नेपाल के राष्ट्रपति बिद्या देबी भंडारी ने बहत्तर साल की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भारत के थलसेना अध्यक्ष जनरल मनोज पांडे को इस सोमवार को नेपाली सेना के मानद जनरल की उपाधि से अलंकृत किया. लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि भारतीय सेना में अल्पकालिक नियुक्ति की विवादास्पद ‘अग्निपथ’ योजना के कारण, भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट में नेपाली सैनिकों की नियुक्ति की 207 साल पुरानी परंपरा को खतरा पैदा हो गया है.
ब्रिटिश काल में भारतीय सेना ने गोरखों को 1815 से शामिल करना शुरू किया था लेकिन इससे भी पहले महाराजा रणजीत सिंह ने 1809 की कांगड़ा की लड़ाई के बाद गोरखों को अपनी सेना में नियुक्त किया था. यही वजह है कि सेवारत या सेवानिवृत्त गोरखा सैनिकों को ‘लहुरे’ के नाम से पुकारा जाता है क्योंकि वे लाहौर से लौटे होते थे.
भारत में गोरखों की नियुक्ति का इतिहास
गोरखों की नियुक्ति की पारंपरिक महीने भर की भर्ती (26 अगस्त से 29 सितंबर) से पहले 24 अगस्त को नेपाल के विदेश मंत्री नारायण खड्का ने नेपाल में भारत के राजदूत नवीन श्रीवास्तव को सूचित किया कि अग्निपथ योजना के तहत गोरखों की नियुक्ति त्रिपक्षीय समझौते के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है. नेपाल, भारत और ब्रिटेन के बीच यह समझौता 9 नवंबर 1947 को किया गया था. इसमें प्रावधान किया गया है कि नेपाली सैनिक भारतीय सेना को सेवा दे सकेंगे और उन्हें वित्तीय सुरक्षा तथा लाभ दिए जाएंगे.
खड्का के करीबी सूत्र ने बताया, ‘यह सरकार का अंतिम फैसला नहीं है. हम अपने राजनीतिक दलों और सभी संबद्ध पक्षों से विचार-विमर्श करने के बाद भारत सरकार से बात करेंगे.’ लेकिन नेपाल में व्यापक तौर पर यह आशंका की जा रही है कि उसके 75 फीसदी सैनिक जब सेवा की अवधि समाप्त होने के बाद पेंशन की सुविधा के बिना बेरोजगार युवा के रूप में वापस लौटेंगे तब उसका समाज और अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा.
जाहिर है, भारत ने नेपाल को न तो सूचित किया और न उससे परामर्श किया कि अग्निपथ योजना गोरखों की नियुक्ति पर भी लागू होगी. लगता है, भारत ने पहले यह नहीं सोचा कि उसके इस फैसले का नेपाल के साथ उसके जो ‘विशेष संबंध’ हैं उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा. इस तरह के कदम नेपाल के लोगों की इस पारंपरिक धारणा को पुष्ट ही करते हैं कि भारत हिमालय में बसे इस देश को हल्के में लेता है.
नियुक्ति की पारंपरिक प्रक्रिया को त्रिपक्षीय समझौते के तहत जारी रखने का फैसला गोरखों के युद्धकौशल की वजह से या इसलिए नहीं किया गया था कि भारतीय सेना के लिए मानव शक्ति की कमी थी बल्कि दोनों देशों के राष्ट्रीय हित को मद्दे नजर रख कर किया गया था ताकि आपसी संबंध अच्छे हों. अब इस मसले का दोनों को मंजूर हल ढूंढते हुए इस पहलू को ध्यान में रखना उचित होगा.
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गोरखा सैनिकों का व्यापज प्रभाव
1947 के बाद से भारत-नेपाल रिश्ते ने लंबी दूरी तय कर ली है. आर्थिक निर्भरता, समान धर्म, और भारत में रोजगार पाने की आज़ादी ने नेपाल को एक प्रतिबद्ध सहयोगी बना दिया है. भारतीय सेना के ‘लैजां ग्रुप’ के सैनिक और नेपाल सेना 1969 तक नेपाल की उत्तरी सीमा पर तैनात रहते थी. नेपाली में एक लोकप्रिय कहावत थी कि ‘श्री पांच ले चिनकू मांग छ बने, भारतीय दूत लइ सोड्नु पर्द चा’ (अगर महाराजाधिराज छींकना भी चाहते हैं तो उन्हें भारतीय राजदूत की इजाजत लेनी पड़ती है). आंतरिक राजनीतिक उथल्पुथल, माओवादी बगावत, राजशाही के खात्मे, और चीन के दबदबे ने नेपाल की संप्रभुता के सवाल को उभार दिया. भारत ने भी नेपाल को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखने के लिए वास्तविक राजनीति का अनुसरण किया है. 1989 और 2015 के आर्थिक प्रतिबंध इसके उदाहरण हैं. आज भारत-नेपाल संबंध चौराहे पर आ पहुंचा है और नेपाल भारत-चीन सत्ता संघर्ष का अपने राष्ट्रीय हित उपयोग करने से परहेज नहीं करता.
लेकिन भारतीय सेना में मौजूद नेपाल अधिवासी 35,000 गोरखा सैनिकों का और नेपाली समाज में मौजूद 1.35 लाख सेवानिवृत्त गोरखा सैनिकों का व्यापक प्रभाव कायम है. नेपाल के हरेक गांव में सेवानिवृत्त गोरखा सैनिक मौजूद हैं, जिन्होंने अपनी जवानी भारतीय सेना में गुजारी है और वहां से पेंशन पा रहे हैं. उनका व्यक्तित्व भारतीय सेना के मूल्यों में ढला है. सैनिक के रूप में उन्होंने भारतीय संविधान की शपथ ली और सेवा काल में वे फर्ज़ और अपनी रेजिमेंट के प्रति निष्ठा से प्रेरित होते थे.
समाज में उन्हें बहुत प्रतिष्ठा हासिल है और गांवों-कस्बों में सभी दलों के लोग उनसे सलाह-मशविरा करते रहते हैं. अर्थव्यवस्था में उनका वित्तीय योगदान उनके दबदबे में इजाफा करता है. सेवारत सैनिकों के वेतन और सेवानिवृत्त सैनिकों के पेंशन की कुल राशि 62 करोड़ डॉलर के बराबर होती है, जो नेपाल की जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर है और 43 करोड़ डॉलर के उसके रक्षा बजट से ज्यादा ही है. यह राशि बंद हो जाए तो नेपाल की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगेगा.
सेवारत और सेवानिवृत्त गोरखा सैनिक नेपाल में भारत के दूत समान हैं और उन्होंने दोनों देशों के रिश्तों की बेहतरी में भारी योगदान दिया है. चीन मौके की ताक में है इसलिए भारत इस कूटनीतिक बढ़त को गंवाने का जोखिम नहीं उठा सकता.
भारत के लिए दो विकल्प
अग्निपथ योजना में सुधार जारी है. यह उन कई कदमों से जाहिर होता है जो योजना की घोषणा के बाद हड़बड़ी में उठाए जा रहे हैं ताकि सेवा से निवृत्त होने के बाद अग्निवीरों को और लाभ दिए जा सकें. अपर्याप्त प्रोत्साहन और दूसरे केरियर के बारे में आश्वासन न मिलना इस योजना की दो बड़ी कमियां हैं.
मैं पांच साल की सेवा अवधि वाली उस अल्पकालिक सेवा योजना का समर्थक हूं, जिसमें स्वैछिक रूप से पांच साल और सेवा देने की व्यवस्था हो और जिसमें पेंशन भले न हो मगर सेवा निवृत्ति पर ग्रेच्युटी में मोटी रकम दी जाए, योगदान से चलने वाली पेंशन योजना हो और शिक्षा, उद्यम या सरकारी/निजी क्षेत्र में रोजगार के लिए आकर्षक प्रोत्साहन की व्यवस्था हो. मेरा अनुमान है कि इन तमाम अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अगले कुछ साल में अग्निपथ योजना में सुधार किए जाएंगे. तब यह एक सैन्य सुधार से राजनीति प्रेरित विशाल रोजगार निर्माण योजना में परिवर्तित हो जाएगी. लेकिन भारत में जिसे राजनीतिक रूप से फायदेमंद माना जाएगा उसे जरूरी नहीं नेपाल में भी ऐसा मान जाए.
गोरखा सैनिकों के मामले में भारत के पास दो विकल्प हैं. पहला यह कि उन्हें अपवाद माना जाए और नियुक्ति तथा सेवा की मौजूदा शर्तों को उनके लिए जारी रखा जाए. त्रिपक्षीय समझौते के तहत 1947 में जो फैसला किया गया था वह भी एक अपवाद था और उसे जारी रखने में भारत सरकार की कोई बदनामी नहीं होगी. इससे नेपाल में भारत के प्रति भारी सदभाव पैदा होगा और नेपाल के समाज पर भारत का परोक्ष प्रभाव बना रहेगा.
दूसरा विकल्प यह है कि भेदभाव न किया जाए लेकिन नेपाली मूल के अग्निवीरों को सेवा से निवृत्त किए जाने के बाद भारतीय अग्निवीरों की तरह दूसरे केरियर के लिए प्रोत्साहन उपलब्ध कराया जाए. मैं कह चुका हूं कि अग्निपथ योजना में सुधार अभी जारी है. फिलहाल जो प्रोत्साहन दिए गए हैं वे भरोसा नहीं जगाते और नेपाल की सरकार को शायद मंजूर नहीं होंगे.
नाराज नेपाल सरकार त्रिपक्षीय समझौते को रद्द कर सकती है, जिसमें कहा गया है कि ‘संतोषजनक कामकाज और आचरण के आधार पर सभी सैनिकों को तब तक सेवा करने का मौका दिया जाएगा जब तक कि वे पेंशन के अधिकारी नहीं हो जाते.’ विपक्ष इसी की मांग कर रहा है. नेपाल अपने गोरखों को दूसरे देशों की पुलिस/सेना में भर्ती होने की इजाजत दे सकता है.
बिना औपचारिक समझौते के वे सिंगापूर और ब्रुने में सेवाएं दे चुके हैं. अगर चीनी सेना ‘पीएलए’ अगर भारत को चिढ़ाने के लिए गोरखा सैनिकों की भर्ती करती है तो यह भारत के लिए शर्म की बात ही होगी. आंकड़ा छोटा है. 1,400 वार्षिक पेंशनों की कीमत पर पड़ोसी देश के साथ अच्छे संबंध को दांव पर लगाना महाशक्ति बनने को तैयार भारत की शान के अनुकूल नहीं होगा.
गोरखा लोग खुद को भारतीय सभ्यता का ही एक अंग मानते हैं. ग्रामीण नेपाल में भारत को ‘देस’ कहा जाता है. ड्यूटी से लौते नेपाली सैनिक प्रायः यही कहते हैं—’मा देस बटा आए को’. और विडंबना यह है कि जब वे काठमांडो से लौटते हैं तब कहते हैं— ‘मा नेपाल बटा आए को’
मुझे 5/5 गोरखा राइफल्स में छह साल सेवा देने का मौका मिला था. मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि गोरखा सैनिक और सेवानिवृत्त सैनिक नेपाल के वफादार नागरिक हैं लेकिन उनका गर्भनाल भारतीय सेना से जुड़ा है. इसे हम जुड़ा ही रहने दें.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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