भारत में लोग सांप्रदायिक दंगों, आतंकवादी हमलों, यौन उत्पीड़न, प्राकृतिक आपदाओं, या इस तरह की त्रासदियों में जान गंवाते हैं. इनके कारण पीड़ित हुए लोगों की सहायता करना, उनके परिवारों का वित्तीय बोझ कम करना सरकारों का फर्ज़ बनता है.
भारतीय राज्यतंत्र की नज़रों में मनुष्य के जीवन का क्या मूल्य है? किसी विशेष त्रासदी के पीड़ितों को मुआवज़ा देने की क्या कोई व्यापक एवं समान नीति मौजूद है? यह महज एक दार्शनिक प्रश्न नहीं है, क्योंकि अर्थशास्त्रियों से लेकर बीमा के प्रबंधक तक सभी सांख्यिकीय जीवन का मूल्य (वीएसएल) यानी मौत के जोखिम (या उससे बचने के लाभ) के मूल्य को पैसे से आंकने में दिन-रात जूझते रहते हैं.
हमारा शोध बताता है कि मुआवज़े को लेकर हड़बड़ी में की जाने वाली घोषणाओं में काफी खामियां रहती हैं. क्या मुआवज़े की रकम मीडिया में आई खबरों, राजनीतिक वजहों, पीड़ित की जाति या धर्म जैसे असंबद्ध कारणों पर निर्भर होनी चाहिए? हाल के कुछ मामलों पर सरसरी नज़र डालने से कई असुविधाजनक तथ्य सामने आते हैं. समान नीति के अभाव में मुआवज़े का परिमाण पीड़ितों के वर्गों के मुताबिक ही नहीं बल्कि एक ही वर्ग में अलग-अलग कारणों से भी घटता-बढ़ता रहता है.
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अखलाक बनाम अकबर, पुलवामा बनाम सुकमा
उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के दादरी में भीड़ की ‘लिंचिंग’ में मारे गए मोहम्मद अखलाक— जिसका मामला दुनिया भर में सुर्खियों में आया— के परिवार को तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार ने मुआवज़े में 45 लाख रुपये के अलावा ग्रेटर नोएडा में चार फ्लैट दिए. लेकिन इसके कुछ महीने बाद राजस्थान के अलवर में भीड़ द्वारा मार डाले गए अकबर खान के परिवार को मुआवज़े के तौर पर तब की वसुंधरा राजे सरकार ने मात्र सवा लाख रुपये दिए और पड़ोस की हरियाणा सरकार ने 8 लाख. लिंचिंग के कारण मारे गए अधिकतर लोगों के परिवारों को कोई मुआवजा नहीं मिला. राज्य सरकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बावजूद अब तक केवल तीन राज्यों ने मुआवज़े के लिए समान नीतियां तय की हैं.
इसी तरह की खामी ड्यूटी के दौरान मारे गए केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) के जवानों के मामले में देखी गई है. इन जवानों के परिवारों को मुआवज़े के नियमों के अनुसार 50 से 60 लाख रुपये तक का मुआवजा दिया जाता. लेकिन पुलवामा मामले में शहीद हुए जवानों के परिवारों को इससे कई गुना ज्यादा—2.16 करोड़ से लेकर 3.24 करोड़ रुपये तक— मुआवजा मिला. इसमें केंद्र सरकार से मिले 35 लाख और ‘भारत के वीर’ नामक नये कोष से मिले 15 लाख रुपये शामिल हैं.
कई राज्य सरकारों ने भी इतने मुआवज़े दिए, जो ऐसे ही मामलों में पहले दिए गए मुआवजों से काफी बड़े थे. उदाहरण के लिए, बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने अनुग्रह राशि के रूप में घोषित 11 लाख रुपये के ऊपर 25 लाख रुपये की अतिरिक्त राशि मुख्यमंत्री राहत कोष से दी. लेकिन एक साल पहले सुकमा में नक्सल हमले में मारे गए जवानों के लिए नीतीश सरकार ने 5 लाख रुपये की अनुग्रह राशि की घोषणा की थी. इसी तरह, पंजाब सरकार ने पुलवामा के जवानों के लिए तो 12 लाख रुपये की घोषणा की मगर सुकमा के जवानों के लिए मात्र 5 लाख रुपये की घोषणा.
ड्यूटी के बहाने
वैसे, मुआवज़े की समान नीति बनाने की कुछ स्वागतयोग्य पहल भी की गई है. उदाहरण के लिए पंजाब सरकार ने प्राकृतिक आपदाओं, दुर्घटनाओं या मनुष्य की गलती से हुए हादसों में मौत पर मुआवज़े के तौर पर 5 लाख रुपये की एकमुश्त अनुग्रह राशि तय की है. महाराष्ट्र सरकार ने ड्यूटी पर मारे जाने वाले अपने राज्य के सुरक्षा सैनिकों के परिवारों के लिए मुआवज़े की रकम 25 लाख से बढ़ाकर 1 करोड़ रुपये कर दी है.
क्या कोई सरकार मौत की वजह के आधार पर मुआवज़े की अलग-अलग नीति तय कर सकती है? महाराष्ट्र सरकार आत्महत्या करने वाले किसान के परिवार को 1 लाख रुपये की अनुग्रह राशि देती है. जिस राज्य में पिछले सात साल में 15,000 से ज्यादा किसान ख़ुदकुशी कर चुके हैं और जहां किसानों की खुदकुशी के सबसे ज्यादा मामले होते हैं वहां के लिए यह राशि बेहद कम ही मानी जाएगी. कोई तर्क दे सकता है कि शहीद होने वाले सैनिकों के परिवारों को किसानों के परिवारों से ज्यादा मुआवजा देना ही चाहिए क्योंकि किसान सैनिकों की तरह ‘ड्यूटी’ पर नहीं मारे जाते.
लेकिन ड्यूटी पर मरने वाले सफाई कर्मचारियों का क्या? सफाई कर्मचारियों के राष्ट्रीय आयोग (एनएससीके) के मुताबिक, 1993 के बाद से मारे गए 32 सफाई कर्मचारियों को मुआवजा देने की कोई पहल नहीं की गई है. हाल ही में दायर आरटीआई अर्जी से पता चला है कि सीवर की सफाई करते हुए मारे गए 814 सफाई कर्मचारियों में से केवल आधे परिवारों को पूरी मुआवजा रकम मिल पाई है.
मुआवज़े में भेदभाव के फायदे
सवाल किया जा सकता है कि नेता लोग अनुग्रह भुगतान की समान नीति की जगह मनमर्जी नीति क्यों पसंद करते हैं?
इसकी पहली वजह यह है कि इससे उन्हें राजनीतिक मालिकाना का संतोष हासिल होता है. मुआवज़े की घोषणा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री व्यक्तिगत सरपरस्ती के रूप में करते हैं. और सबसे अहम बात यह है कि मुआवज़े के भुगतान के पीछे असली मंशा सरकार को जिम्मेवारी से बरी करने की होती है. जब तक लोग इन मुआवज़ों को अपना अधिकार न समझकर ‘माई-बाप सरकार’ की मनमर्जी अनुकंपा मानते रहेंगे तब तक यह राजनीतिक तबके को माफिक पड़ता रहेगा.
दूसरे, नेताओं द्वारा घोषणाएं मीडिया में जिस तरह सुर्खियां बनती हैं वैसा किसी नीतिगत फैसले के तहत नौकरशाही द्वारा भुगतान से नहीं हो सकता. मीडिया की सुर्खियां— ऊंचे मामलों में मोटी रकम के आंकड़ों के साथ— जनाक्रोश को शांत करने में बहुत काम आती हैं. दिल्ली की अनाज मंडी में आगजनी में हुई मौतों के लिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 10 लाख रुपये के मुआवज़े की घोषणा की, तो प्रधानमंत्री मोदी ने ऊपर से 2 लाख और देने का वादा कर दिया.
तीसरे, इन मुआवज़ों का विवेकाधीन स्वरूप इसे राजनीतिक एजेंडा साधने या राजनीतिक संदेश देने का काफी मौका दे देता है. वास्तव में, मुआवज़े को तय करने में राजनीतिक जोड़-तोड़ का पूरा खयाल रखा जाता है. यह राजनीतिक होड़ के लिए भी काफी मौका जुटाता है और जनता को पर्याप्त मुआवजा हासिल करने के लिए प्रदर्शन आदि करने के लिए भी उकसाता है.
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उदाहरण के लिए, अलवर में लिंचिंग के शिकार हुए अकबर खान के रिश्तेदारों ने उनके शव को दिल्ली-अलवर रोड पर रखकर प्रदर्शन किया और सभी आरोपियों को गिरफ्तार करने तथा परिवार को वित्तीय सहायता देने की मांग की. इसी तरह, अखलाक की लिंचिंग के मामले में एक आरोपी रविन की हिरासत में मौत पर स्थानीय राजनीतिक तथा सामुदायिक नेताओं के दबाव के बाद उसके परिवार को 25 लाख रुपये का मुआवजा दिया गया.
दरअसल, व्यक्ति निरपेक्ष किस्म के नियम-कायदे और निष्पक्ष न्याय ही राज्यतंत्र को विशिष्ट किस्म के सामाजिक संगठनों से अलग करती है. लेकिन एक ही तरह के पीड़ितों को मुआवजा देने में मनमाना भेदभाव राज्यतंत्र की विश्वसनीयता और गरिमा को धूमिल करता है.
(राहुल वर्मा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), दिल्ली में फ़ेलो हैं, आसिम अली सीपीआर में रिसर्च एसोसिएट हैं. ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं .)