scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतनेहरू ने कहा था कि अतीत के रूमानीकरण से मसले नहीं होंगे हल, भारत को उन्हें फिर से पढ़ने की जरूरत

नेहरू ने कहा था कि अतीत के रूमानीकरण से मसले नहीं होंगे हल, भारत को उन्हें फिर से पढ़ने की जरूरत

नेहरू ने इतिहास के प्रति जो नजरिया अपनाया उसे एक वामपंथी नजरिए के रूप में पढ़ना जटिल बातों का सरलीकरण करना है. देश को और उसकी विविधता को समझने के लिए, इन मामलों में नेहरू का जो नजरिया है उसकी आज बहुत जरूरत है.

Text Size:

2021 में पूरे साल इतिहास को लेकर तरह-तरह के दावे किए जाते रहे, उसे तोड़ा-मरोड़ा जाता राहा, उस पर बहस होती रही— चाहे वह देश के बंटवारे की बात हो, या स्कूली पाठ्यपुस्तकों को नया रूप देने के सुझाव हों, देश की आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने का मामला हो, या जवाहरलाल नेहरू की भूमिका की बात हो जो उन लोगों के लिए पसंदीदा निशाना हैं जिन्हें लगता है कि भारत में इतिहास लिखने वालों ने गुमराह किया है.

नेहरू ने इतिहास के प्रति जो रुख अपनाया उसे एक वामपंथी नजरिए के रूप में पढ़ना जटिल बातों का सरलीकरण करना है. देश और उसकी विविधता को समझने के लिए, नेहरू का जो नजरिया है उसकी आज बहुत जरूरत है.

नेहरू इतिहास को तीन तरह से देखते हैं.

पहला तरीका तो यह है कि विज्ञानसम्मत औजारों और तार्किकता का इस्तेमाल करते हुए अतीत के रूमानीकरण से बचा जाए. नेहरू की किताब ‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया ’ वैदिक अतीत और उसकी उपलब्धियों को खारिज नहीं करती, बल्कि नेहरू उनके लिए गर्व महसूस करते हैं लेकिन वे भ्रामक सोच के खिलाफ हैं.

दूसरा तरीका है कि अतीत की भूलों को नज़र में रखते हुए भविष्य का खाका तैयार करें.

तीसरा तरीका है कि राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए विकृत दृष्टिकोण फैलाने के लिए मिथकों का सहारा लेने से बचें.

अतीत का मूल्यांकन करने के लिए इन औजारों का विभिन्न तरह से उपयोग किया जा सकता है और साथ ही राजनीतिक या सांप्रदायिक स्वार्थ साधने के लिए इनका तोड़-मरोड़ करने से भी बचा जा सकता है.

द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (पेज 102) में नेहरू ने लिखा है कि इतिहास की अनदेखी करने से ‘नजरिया अस्पष्ट होता है, जीवन से अलगाव होता है क्योंकि यह वैचारिक कमजोरी पैदा करता है और हकीकतों के मामले में दिमाग को दिग्भ्रमित करता है’ और इस तरह यह समाज के क्रियाकलाप को खतरे में डालता है.

अतीत का जश्न मनाने से बचें

नेहरू के लिए इतिहास का संधान एक गहरी निजी एवं वैचारिक खोज-यात्रा है जिसका मकसद यह समझना है कि आज हम कहां हैं और अतीत का जश्न न मनाते हुए उसका उपयोग करके भविष्य के बारे में नजरिया तय करना है.

प्राचीन भारत की विरासत के बारे में उनकी जो समझ है वह एक मिशाल है. अतीत को, खासकर भारत में इस्लामी दौर से पहले के अतीत को एक आदर्श युग बताकर उसका रूमानीकरण करना राजनीतिक नेताओं और पत्रकारों की आदत है. नेहरू इस सभ्यता की महानता को कबूल करते हुए उसकी सीमाओं को रेखांकित करके इस धारणा को खंडित करते हैं.

अपने लेख ‘द फैशीनेशन ऑफ रशिया (1927)’ में नेहरू ने लिखा है कि भारतीय लोग ‘हमारे गौरवपूर्ण अतीत और कालातीत सभ्यता की कपोल कल्पनाओं में अपनी वर्तमान दुर्गति और पतन को भूलने की कोशिश में लगे रहते हैं.’ वे कहते हैं कि अतीत का यह रूमानीकरण गरीबी, सांप्रदायिकता और खाद्य सामग्री के अभाव जैसी ‘आज की समस्याओं’ को हल करने में मदद नहीं कर सकता. अपने देश के अतीत के प्रति गौरव से भरकर ‘हम अपनी कई कमजोरियों और विफलताओं को न भूलें, यह गौरव उनसे उबरने की हमारी चाहत को कमजोर न करे’ (‘द डिस्कवरी ऑफ इंडिया’, पेज 97).

अपने लेखन से नेहरू यह स्पष्ट करते हैं कि इतिहास अपनी पहचान की खोज करने की यात्रा है और आगे बढ़ने की कोशिश में चिंतन और समझ बनाने की प्रक्रिया है.

अतीत का जश्न न मनाने की इच्छा तभी पैदा होती है जब हम तार्किकता के औज़ार और अपने अतीत को समझने का वस्तुनिष्ठ विवेक विकसित करते हैं.

ऑन अंडरस्टैंडिंग हिस्ट्री ’ (1948) में नेहरू कहते हैं कि जब हम ‘चीजों को समग्र दृष्टि से समझने की कोशिश करते हैं’ तब अतीत की सटीक समझ हासिल करने के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा दूसरे कारणों का भी विश्लेषण जरूरी हो जाता है, वैसा विश्लेषण जो उन्होंने मुगल सल्तनत का किया है.

भारत में इस्लाम के आगमन को कुछ लोग सांस्कृतिक मिश्रण और परिवर्तन के रूप में न देखकर देश के इतिहास का एक अलग हिस्सा मानते हैं. हिंदू राष्ट्रवादियों के विपरीत, नेहरू कहते हैं कि मुसलमानों ने भारत पर चढ़ाई नहीं की या उसका शोषण नहीं किया बल्कि भारत आए और यहां बस गए और अब वे इसकी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं. मुगल सल्तनत के कई वंशों का ‘पूर्ण भारतीयकरण हो गया और उनकी जड़ें भारत में ही पनपीं… राजनीतिक टकराव के बावजूद, उन्हें बादशाह माना गया और कई राजपूत राजाओं ने भी उन्हें अपना शासक कबूल किया’.

जो भी हो, नेहरू ने मुगल हुकूमत के कई पहलुओं को— चाहे वह स्थापत्य कला हो या खानपान, पहनावा, संगीत या भाषा, सबको— धार्मिक मेल-जोल के प्रतीक के रूप में देखा, जिस दृष्टि से वे स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देख रहे थे.

वर्तमान विमर्श के विपरीत, मुगल काल सांस्कृतिक मिश्रण का काल था, जिसमें नये विचारों का विकास हुआ. नेहरू कहते हैं कि वह हिंदू-इस्लाम-सिख धर्मों के मेल-जोल का काल था. ‘मेल-जोल की भावना व्यापक रूप से फैली हुई थी, अपने अति संवेदनशील और सुग्राही दिमाग के कारण अकबर ने इसे जरूर आत्मसात किया होगा और इसके प्रति काफी अनुकूल प्रतिक्रिया की.’

लेकिन नेहरू अकबर की निरंकुशता के लिए उसकी आलोचना भी करते हैं क्योंकि वह भारत की विविधता को अपनाते हुए भी अपना नियंत्रण मजबूत करने पर आमादा था. इस तरह का विश्लेषण इस एहसास को रेखांकित करता है कि अतीत का मूल्यांकन कोई सरल काम नहीं है जिसके जरिए फौरी फैसले सुनाए जाएं. यह विश्लेषण व्यापक फतवे देने से बचने और विभिन्न स्रोतों तथा दृष्टिकोणों को समझने के नेहरू के संकल्प को उजागर करता है.


यह भी पढ़े: बिपिन रावत से गलवान तक- किसमें व्यस्त रहा चीन और अपने मित्र क्यों खो रहा है ताइवान


अतीत को समझो, भविष्य सुधारो

इतिहास के बारे में उनके दृष्टिकोण का दूसरा पहलू भविष्य को संवारने के लिए अतीत के इस्तेमाल से जुड़ा है. इसका सबसे अच्छी तरह पता तब चलता है जब नेहरू विभाजन की विभीषिका से उबरने और आजादी के बाद एकबद्ध भारत का निर्माण करने में जुटे थे. उनका कहना था कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष केवल विदेशी शासन से मुक्ति का संघर्ष नहीं था बल्कि उसके साथ राष्ट्रवाद की कई धाराएं जुड़ी थीं, जबकि कुछ लोग अपनी सत्ता मजबूत करने के लिए सांप्रदायिकता की आग को हवा देने की कोशिश कर रहे थे.

द डिस्कवरी ऑफ इंडिया ’ में नेहरू कहते हैं कि धर्म ने ‘मानव समाज में अंतर्निहित परिवर्तन तथा प्रगति की प्रवृत्ति को बाधित किया है.’ उसकी ज्यादा दिलचस्पी ‘मनोभावना से जुड़ी बातों की जगह निहित स्वार्थों में होती है, (और) वह वैज्ञानिक मानसिकता से विपरीत के सोच को बढ़ावा देता है. वह संकीर्णता और असहिष्णुता को जन्म देता है.’ व्यक्तिगत स्तर पर इस असहिष्णुता पर काबू पाने का रास्ता धर्मनिरपेक्ष शिक्षा है, जो वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देता है और राष्ट्रीय स्तर पर इससे लड़ने के लिए एक ऐसी राज्यसत्ता चाहिए जो ‘सांप्रदायिक नहीं हो, लोकतांत्रिक हो और जिसमें हर एक को समान अधिकार हासिल हों.’

राष्ट्रीय एकता के व्यापक विचार के साथ व्यक्तिगत स्वाधीनता के मेल के लिए नेहरू का जो नजरिया था वह ब्रिटिश राज के शुरू के दिनों में और सत्ता परिवर्तन के दौरान फैली सांप्रदायिकता की उनकी समझ से विकसित हुआ और यह अतीत से सबक लेते हुए आगे बढ़ने के संकल्प को उजागर करता है.

मिथक बनाम तार्किकता

सत्य और तार्किकता की खातिर मिथकों से उबरना इतिहास को समझने के लिए नेहरूवाद के प्रयोग की एक और शर्त है. नेहरू के लिए, मिथकों में तथ्यों और गल्प का घालमेल होता है, जिसके ‘बुरे परिणाम’ निकलते हैं. ‘अस्पष्ट नजरिया, जीवन जैसा है उससे अलगाव’ इसकी विशेषताएं हैं. ज्ञान के एक रूप के तौर पर मिथक का प्रयोग प्रगति को बाधित करता है, जिसका मुकाबला विज्ञान की मदद से ही किया जाना चाहिए.

नेहरू ने 1959 के अपने एक भाषण में इसे स्पष्ट किया है- ‘भारत में हम नाभिकीय तथा परमाणु ऊर्जा का विकास कर रहे हैं और यहां गोबर युग भी मौजूद है,’ जिसका अर्थ यह है कि लोग दुनिया को कई तरह से समझ रहे हैं.

पूर्वाग्रहों और मिथकों से उबरने के लिए वैज्ञानिक जानकारियां हासिल करने पर वे कितना ज़ोर देते थे, यह मुख्यमंत्रियों को लिखे उनके पत्रों से जाहिर है. उदाहरण के लिए, वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि भारत में खाद्य सामग्री का अभाव था. उन्होंने राज्यों से कहा था कि वे ‘गांवों और जिलों के रिकॉर्डों में बिना उपयोग के पड़ी जानकारियों का उपयोग करने की हर संभव कोशिश करें और जो जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं उन्हें इकट्ठा करने के विशेष प्रयास करें.’ (माधव खोसला, संपादित ‘लेटर्स फॉर अ नेशन : फ्रोम जवाहरलाल नेहरू टु हिज़ चीफ मिनिस्टर्स, 1947-1963’; गुड़गांव : पेंगुइन बुक्स इंडिया, 2015; पेज 146-147).

यह नजरिया देश में भूखमरी की स्थिति को लेकर फैली गलत सूचना के जवाब में उभरा. उन्हें उम्मीद थी कि ऐसे नजरिए के बूते एक प्रमुख नीतिगत मसले के मामले में विश्वसनीय जानकारी का इस्तेमाल किया जाएगा.

भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में विभिन्न संस्कृतियों की बारीकियों की समझ और उनके प्रति सम्मान राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी है. इतिहास के प्रति नेहरू के दृष्टिकोण का ज़ोर समाज के भविष्य को सुधारने के लिए इसके विश्लेषण, समाज को समझने के लिए तमाम तरह के स्रोतों पर निर्भर करने और राजनीतिक लाभ की खातिर मिथकों तथा फर्जी खबरों के दुरुपयोग से बचने पर केंद्रित है.

सत्ता की बागडोर थामने से बहुत पहले ही नेहरू को इन सबका एहसास हो हो गया था. यह उनके लेखन से और बाद में प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यों से जाहिर है. इस नजरिए की आज इसलिए जरूरत है क्योंकि भारत अपनी सीमाओं पर नयी चुनातियों से रू-ब-रू है और इसके साथ ही कोविड-19 महामारी और जलवायु परिवर्तन जैसे संकटों से मुकाबला कर रहा है.

(लेखक ने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास और नृविज्ञान का अध्ययन किया हैं. उनका ट्विटर अकाउंट @VibhavMariwala है. यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़े: वो 13 दिन जब भारतीय सेना ने पाकिस्तान को घुटने पर ला दिया था..1971 युद्ध के 50 साल का विजय पर्व


share & View comments