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Friday, 22 November, 2024
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PMJAY को तेज़ी से लागू करने की ज़रूरत- धीमी गति से बढ़ना भारत के ‘मिसिंग मिडिल’ के लिए नुकसानदायक है

PMJAY टारेगट पॉपुलेशन वह है जो सिर्फ एक ही बड़ी स्वास्थ्य दुर्घटना के बाद फाइनेंशियल कोलैप्स की स्थिति में पहुंच सकती है.

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सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज वर्षों से भारत की समस्या रही है. इसीलिए 2018 में प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना या पीएमजेएवाई की शुरुआत एक महत्वपूर्ण पहले कदम से कम नहीं थी. लगभग पांच साल बाद भी पीएमजेएवाई अपनी टारगेटेड पॉपुलेशन के आधे हिस्से तक भी नहीं पहुंच पाई है. “मिसिंग मिडिल” के लिए स्वास्थ्य कवर की बात – नीति आयोग का अनुमान है कि लगभग 40 करोड़ भारतीयों के पास कोई स्वास्थ्य कवर नहीं है और वे पीएमजेएवाई के लिए पात्र होने के लिए काफी “अमीर” हैं – यही बनकर रह गया है.

अब एक आधिकारिक सरकारी दस्तावेज़ से पता चला है कि 9 करोड़ भारतीय स्वास्थ्य देखभाल पर अपनी पारिवारिक आय के दसवें हिस्से से एक चौथाई तक खर्च करते हैं. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के सतत विकास लक्ष्य राष्ट्रीय संकेतक फ्रेमवर्क प्रोग्रेस रिपोर्ट 2023 के अनुसार, चिंता की बात यह है कि इस वर्ग में भारतीयों का अनुपात 2017-18 और 2022-23 के बीच बढ़ गया है.

भारत में यूएचसी के जटिल परिदृश्य में, यह 90 मिलियन – 9 करोड़ लोग – भारत के सबसे धनी लोगों में से हैं जो स्वास्थ्य देखभाल के लिए पेमेंट कर सकते हैं. लेकिन ये संख्याएं भी चिंताजनक हैं क्योंकि ये मुद्रास्फीति के रुझानों का संकेत हैं जिसने भारतीय स्वास्थ्य सेवा (और स्वास्थ्य बीमा को 52.04 करोड़ भारतीय जो इसे वहन कर सकते हैं, जानते हैं) को प्रभावित किया है. कोविड-19 महामारी के बाद बीमा प्रीमियम काफी बढ़ गया है. सरकारी स्वास्थ्य सेवा, अधिकांश भाग में, मुफ़्त या अत्यधिक सब्सिडी वाली बनी हुई है, लेकिन गुणवत्ता अक्सर ख़राब होती है और स्थितियां ऐसी होती हैं कि कई बार मरीज़ की गरिमा से समझौता किया जाता है. निजी स्वास्थ्य सेवा शानदार और हाई-टेक है लेकिन अविश्वसनीय रूप से महंगी भी है; दिल्ली के एक शीर्ष निजी अस्पताल में सिजेरियन सेक्शन के लिए एक व्यक्ति को करीब 2 लाख रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं. ऊंची कीमत वाली स्वास्थ्य सेवा प्रणाली सिर्फ अमीरों को ही असुविधा नहीं पहुंचाती है; यह गरीबों को भी बाहर रखता है.

सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट से पता चलता है कि 9 करोड़ भारतीय अपनी पारिवारिक आय का कम से कम 10 प्रतिशत स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च करते हैं, जबकि उनमें से 3.1 करोड़ अपनी आय का एक चौथाई या अधिक हिस्सा इस उद्देश्य के लिए खर्च करते हैं.

इसे परिप्रेक्ष्य में देखें तो – वित्तीय वर्ष 2022-23 में, केंद्र और राज्य सरकारों ने देश की जीडीपी का 2.1 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किया. इसका मतलब यह है कि 9 करोड़ भारतीय अपनी आय के अनुपात में, अपनी सरकारों द्वारा खर्च किए गए धन के पांच गुना से लेकर 12 गुना तक खर्च करते हैं. यूएचसी भारत के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में से एक है, और स्पष्ट रूप से 2030 की समय सीमा से पहले इसके पास काम करने के लिए बहुत सी चीजें हैं.

यह एक कठिन काम है, और यही कारण है कि ‘योग्य’ भारतीयों के लिए धीरे-धीरे सरकारी स्वास्थ्य सेवा का विस्तार करने का सीधा दृष्टिकोण बहुत छोटा, बहुत संकीर्ण और बहुत देर से है. इसलिए अलग-अलग हिस्सों में स्वास्थ्य व्यय का विश्लेषण करने और प्रत्येक खंड को एक समाधान के लेंस से देखने की आवश्यकता है – प्रिवेंटिव केयर में निवेश करके संभावित बचत, दवा मूल्य निर्धारण का बेहतर विनियमन, भारत के मिसिंग मिडिल के लिए बीमा, निजी क्षेत्र की स्वीकार्यता, और बेहतर विनियमन जैसे केवल बहुआयामी दृष्टिकोण ही हमें 2030 तक वहां पहुंचा सकता है.

रोकथाम को प्रोत्साहन देना

आउट-ऑफ-पॉकेट (ओओपी) खर्च को कम करने के लिए सबसे प्रभावी – और शायद, सबसे कठिन – तरीका स्वास्थ्य देखभाल को कम महंगा बनाना होगा. क्या हो अगर हम अनट्रीटेड हाइपरटेंशन का इतने प्रभावी ढंग से इलाज कर सकें कि कभी भी स्ट्रोक मैनेजमेंट की स्थिति न आए? क्या होगा अगर हम प्राथमिक देखभाल के स्तर पर मधुमेह को इतनी अच्छी तरह से मैनेज कर सकें कि क्रोनिक किडनी रोग का मैनेजमेंट करने की ज़रूरत ही न पड़े? और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या हो अगर अस्पताल इलाज के बजाय रोकथाम के केंद्र बन जाएं? यह वास्तविक रूप से केवल तभी हो सकता है जब हम किसी अस्पताल के लिए इसे आर्थिक रूप से व्यवहार्य बना सकें कि वह स्टेंट न लगाए बल्कि हृदय संबंधी घटनाओं को बेहतर ढंग से मैनेज करने के लिए दवा और लाइफ स्टाइल काउंसिलिंग का उपयोग करें.

2015 में चाइनीज़ जिले लुओहू की सरकार ने “इलाज से स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करने” का आह्वान किया. उन्होंने पांच जिला अस्पतालों, 23 सामुदायिक स्वास्थ्य स्टेशनों, एक सटीक चिकित्सा संस्थान और कई प्रशासनिक इकाइयों को एकीकृत करके ऐसा किया. लुओहु मॉडल “वैश्विक बजट के माध्यम से अस्पतालों को वित्त पोषित करता है और संस्थानों को वित्तीय वर्ष के दौरान खर्च न किए गए किसी भी धन को बनाए रखने की अनुमति देता है.” इसके अलावा, नवंबर 2016 में, “हॉस्पिटल ग्रुप ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में होने वाले पहले संपर्कों के अनुपात को बढ़ाने के लिए जिला अस्पतालों में विशेषज्ञों को सामुदायिक स्वास्थ्य स्टेशनों में क्लीनिक स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया.”

वैश्विक बजट मॉडल का मतलब था कि अस्पताल, वित्तीय वर्ष की शुरुआत में, अपने एनरोल्ड रोगियों के लिए प्रीमियम का भुगतान करेगा. अब उस पैसे का उपयोग करना इंटीग्रेटेड/इंश्योरेंस निगम की ज़िम्मेदारी थी. इसका मतलब यह था कि अब पुरानी स्वास्थ्य स्थितियों को विनाशकारी स्वास्थ्य खर्चे में बदलने से रोकने में अस्पताल की जिम्मेदारी थी. दूसरी ओर, समुदाय के विशेषज्ञों ने प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल को मजबूत करने में मदद की. फैमिली फिजीशियन, जिसका चलन दुर्भाग्य से भारत में अब खत्म हो रहा है वे इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते थे. पश्चिम में भी लुओहू जैसे उदाहरण हैं – जैसे कैलिफ़ोर्निया का कैसर परमानेंट मॉडल, जो कि हेल्थ सर्विसेज़ के इंटीग्रेशन के ज़रिए इलाज की लागत को घटाने के लिए केयर कंसॉर्टियम का प्रयोग करता है.

दवा मूल्य निर्धारण की उलझन

क्या आपने कभी कुछ फार्मेसियों के बिजनेस मॉडल के बारे में सोचा है – दिल्ली के रिंग रोड पर, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के ठीक सामने या ओखला में फोर्टिस अस्पताल के आसपास की कुछ फार्मेसियों के बारे में सोचें – जो 10-50 पर्सेंट डिस्काउंट देने का इंतज़ाम करती हैं जबकि कॉर्पोरेट अस्पताल बिल्कुल अधिकतम खुदरा मूल्य चार्ज करते हैं? कैसे ये फार्मेसीज़ बड़े अस्पतालों की वित्त की (और नीतिगत) भारी मात्रा के एक अंश के साथ, ये फार्मेसियां ग्राहकों को इतने महत्वपूर्ण लाभ देने का प्रबंधन करती हैं?

उत्तर सरल है – दवा की एमआरपी में मार्केटिंग चेन के लिए कमीशन का एक महत्वपूर्ण तत्व शामिल होता है. कुछ फार्मेसीज़, व्यवसाय से लाभ पाने के लिए, उपभोक्ताओं को लाभ का एक अंश देती हैं, जबकि निजी अस्पताल ऐसा नहीं करते हैं. मूल्य नियंत्रण के तहत आवश्यक दवाओं के मामले में दवा विक्रेता को बड़ा कमीशन देने की गुंजाइश स्वाभाविक रूप से सीमित है, लेकिन इसके अलावा एक पूरा ब्रह्मांड है जहां वितरकों और खुदरा विक्रेताओं के कमीशन तय होने पर कीमतें काफी कम हो सकती हैं. इस कमीशन की वजह से आपका लोकल केमिस्ट अक्सर आपको आपके प्रेस्क्रिप्शन में लिखी दवा या आप काउंटर पर जो दवा खरीदना चाहते हैं, उससे “अलग और बेहतर” दवा बेचने की कोशिश करेगा.

लेकिन बड़े अस्पतालों के चेन के सवाल पर वापस आते हुए, निजी स्वास्थ्य देखभाल को विनियमित करने की आवश्यकता के बारे में बातचीत आमतौर पर अनावश्यक टेस्ट, अस्पताल में भर्ती होने का लंबा समय और अनियंत्रित प्रक्रियाओं के बड़े मुद्दों पर केंद्रित होती है. इसका मतलब यह नहीं है कि उन चीजों की जांच की आवश्यकता नहीं है या केवल उल्लंघन के मामलों में मानक उपचार दिशा-निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए. लेकिन अस्पताल द्वारा उपयोग की जाने वाली दवाओं में भी हमारे द्वारा सौंपे जाने वाले अत्यधिक बिल का एक बड़ा हिस्सा शामिल होता है. यह एक ऐसा विषय है जिसका असर दवा की दुकानों पर होने वाले ओओपी खर्च पर भी पड़ सकता है.

PMJAY को तेजी से लागू करना

30 जून 2023 तक, यानी PMJAY लॉन्च होने के चार साल और नौ महीने से थोड़ा अधिक समय बाद, पात्र परिवारों को 5 लाख रुपये का वार्षिक पारिवारिक स्वास्थ्य कवर प्रदान करने वाली योजना में केवल 23,88,07,318 लाभार्थियों का नामांकन हुआ है. इस योजना का लक्ष्य 50 करोड़ लोगों को कवर करना है. सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट के आलोक में पीएमजेएवाई नामांकन को तेज़ी से लागू करना महत्वपूर्ण है क्योंकि पीएमजेएवाई टारगेट पॉपुलेशन वह है जो सिर्फ एक ही बड़ी बीमारी के चलते फाइनेंशियल कोलैप्स की स्थिति में पहुंच सकती है.

समानांतर रूप से, सरकार को मिसिंग मिडिल को स्वास्थ्य कवरेज प्रदान करने की दिशा में भी आगे बढ़ने की ज़रूरत है. यह कई कारणों से कठिन है. एक बात तो यह है कि यह आबादी हमेशा सरकारी अस्पताल में जाने के लिए संतुष्ट नहीं हो सकती है और उसे न्यूनतम स्तर की सेवाओं की आवश्यकता हो सकती है. यह किसी की बात नहीं है कि सरकारी अस्पतालों को सेवा वितरण और गुणवत्ता के मुद्दे पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है, सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए नए तरीकों के बारे में सोचना होगा कि एक गंभीर बीमारी इस कमजोर वर्ग के इस समूह की वर्षों की कड़ी मेहनत पर पानी न फेर दे. सहभागी सहित कई मॉडल हो सकते हैं और उसके लिए कई संख्याएं भी हो सकती हैं.

लेकिन एक संख्या जिसे निश्चित रूप से बदलने की जरूरत है वह है सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.1 प्रतिशत का सरकारी स्वास्थ्य व्यय.

(अबंतिका घोष एक पूर्व पत्रकार और लेखिका हैं. वह वर्तमान में चेस इंडिया के साथ काम कर रही हैं. वह @abantika77 ट्वीट करती हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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