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Thursday, 31 October, 2024
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महाराष्ट्र में क्यों हाशिए पर हैं दलित पार्टियां

2019 लोकसभा चुनाव के लिए महाराष्ट्र में दो गठबंधन बने हैं मगर किसी ने भी किसी दलित पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया.

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लोकसभा चुनाव के लिए महाराष्ट्र में दो गठबंधन बने हैं मगर किसी ने भी किसी दलित पार्टी के साथ गठबंधन नहीं किया. रामदास आठवले की रिपब्लिकन पार्टी एनडीए का हिस्सा है मगर उसे एक भी सीट नहीं दी गई. न हीं यूपीए गठबंधन ने प्रकाश आंबेडकर के साथ कोई गठबंधन किया. यह इस बात का प्रतीक है कि महाराष्ट्र की राजनीति में दलित पार्टियां हाशिये पर चली गई हैं. इंडियन एक्सप्रेस ने जब आठवले से पूछा कि क्या आप एनडीए से दूर जाने की योजना बना रहे हैं. तो उनका जवाब था ऐसा करना जल्दबाजी होगी. प्रकाश आंबेडकर के साथ भी कांग्रेस- राष्ट्रवादी गठबंधन का कोई समझौता नहीं हो सका. आंबेडकर की वंचित बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन औवैसी की एमआईएम से है.

हिन्दुत्व की सांप्रदायिकता का विरोध करनेवाले आंबेडकर को औवेसी की मुस्लिम सांप्रदायिकता रास आती है. महाराष्ट्र के दलित नेता राजनीतिक रूप से काफी मुखर है मगर राजनीतिक रूप से कोई ताकत नहीं है. डा. आंबेडकर की कर्मभूमि महाराष्ट्र में दलितों के राजनीतिक रूप से कमजोर होने की कई ऐतिहासिक कारण हैं.


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दलित आंदोलन के जानकार कहते है कि बाबासाहब आंबेडकर के बौद्ध धर्म में धर्मांतरण के नतीजे महाराष्ट्र के दलित आंदोलन के लिए इतने बुरे रहे कि अब कोई भी दलित नेता बड़े पैमाने पर सामूहिक धर्मांतरण कराने से पहले सोचेगा.

डा.आंबेडकर महाराष्ट्र की महार जाति के थे जो महाराष्ट्र के दलितों में पचास फीसदी से थोड़ी ज्यादा थी. बाबासाहब ने जब दलित आंदोलन शुरू किया तो उनकी जाति के ज्यादातर महार ही उनसे जुड़े. बाकी दलित जातियों मांग, कोरी खटीक, मातंग, भेड़, चमार,ढोर,डोम औलख, गोतराज कांग्रेस के साथ थी. उनमें से कईयों को शिकायत थी बाबा साहब महारों को ज्यादा महत्व देते हैं. बाबासाहब ने जब धर्मांतरण किया तब ज्यादातर महार ही बौद्ध बने. बाबासाहब ने मृत्यु से पहले रिपब्लिकन पार्टी बनाने की सोची थी जो उनकी मृत्यु के बाद बनी मगर उसमें भी सभी प्रमुख पदों महार ही थे.

इसलिए बाकी दलित जातियां जो लगभग पचास प्रतिशत थी वे कांग्रेस और बाद में शिवसेना के साथ भी चली गईं. इस तरह दलित महार और गैर महार जातियों के बीच बंट गए. महाराष्ट्र में दलित 11 और 12 प्रतिशत के बीच है उनमें से 5-6 प्रतिशत महार हैं. बाकी जातियां कांग्रेस,शिवसेना के बीच बंट गईं. इस तरह दलित आंदोलन बंट गया. दलितों की आधी आबादी वाली महार जाति के नेताओं के वर्चस्व वाली रिपब्लिकन पार्टी राजनीतिक तौर पर कौई सफलता नहीं पा सकी. आखिर पांच छह प्रतिशत आबादी के जनाधार वाली पार्टियां कैसे सफल हो सकती हैं. फिर वह कुछ ही वर्षों में कई गुटों में बंट गई. जैसे रिपब्लिकन पार्टी आठवले गुट,आंबेडकर गुट,गायकवाड गुट, आदि. इन गुटों के पास अपना अस्तित्व बचाने के लिए कांग्रेस का पुंछल्ला बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था.

जब छह प्रतिशत आबादी भी कई हिस्सों में बंट जाए तो उसकी क्या ताकत हो सकती है. इसका अंदाज आप लगा सकते हैं. दरअसल रिपब्लिकन पार्टियां इतनी कमजोर थी वे अपने बूते विधानसभा तो छोड़िये मगर निगम की सीट नहीं जीत सकती हैं. अक्सर कांग्रेस उन्हें समझौते में दो-चार विधानसभा सीटें दे देती थी. उन्हीं पर वे संतुष्ट रहतीं. दरअसल धर्मांतरण के मुद्दे ने दलित समाज को इतना बांट दिया कि दलित आंदोलन महाराष्ट्र में बहुत कमजोर पड़ गया. वह अपने बूते एक सीट नहीं जीत सकता है. इसके बावजूद महाराष्ट्र के दलित आंदोलन की बहुत चर्चा है तो इसलिए कि डा.आंबेडकर के अनुयायी बने महारों ने बाबासाहब की सलाह मानकर शिक्षा अर्जित की और आरक्षण का फायदा लेकर सरकारी नौकरियां हासिल की.


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पढ़े लिखें होने के कारण वे मुखर भी हैं. इसलिए महाराष्ट्र का दलित चर्चा में तो रहता है मगर लेकिन राजनीतिक तौर पर बंटा हुआ और कमजोर है. काशीराम ने पुणे में नौकरी करते हुए महाराष्ट्र के दलित आंदोलन की यह शोकांतिका देखी थी कि धर्मांतरण दलितों में ही फूट डालकर उसे कमजोर कर देता है. इसलिए उन्होंने कभी धर्मांतरण को अपने एजेंडा में नहीं रखा.

डा.आंबेडकर भी केवल 51 दिन ही बौद्ध के रूप में जिए. उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को धर्मांतरण किया और 6 दिसंबर 1956 को उनका निर्वाण हो गया. वे अगर और कुछ साल जीते और धर्मांतरण के बाद हुई दलित आंदोलन की हालत देखते तो धर्मांतरण पर अफसोस करते.

कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी का मामला और भी टेढ़ा है वह केवल दलितों की पार्टी नहीं है नहीं बहुजनों यानी दलित,ओबीसी,आदिवासीऔर अलपसंख्यकों की पार्टी है कम से कम सौद्दांतिक दृष्टि से. ये सब जरूरी नहीं बौद्ध बनने को राजी हों. बौद्धधर्म में धर्मांतरण पर वे मायावती का साथ दे यह जरूरी नहीं. जब बाबासहब ने धर्म परिवर्तन किया था तब भी उत्तर प्रदेश और बिहार में उसका तीखा विरोध हुआ था. अब तो दलित बुद्धिजीवी और लेखक तो बौद्धधर्म के मुद्दे पर कई हिस्सों में बंट गए हैं.

डा. धर्मवीर श्यौराज सिंह बेचैन, डा.दिनेश राम ये सब बुद्ध को नकार रहे हैं. डा. धर्मवीर का मानना था कि बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाकर बहुत बड़ी गलती की. डा. धर्मवीर आजीवक धर्म का समर्थन करते थे .

डा. धर्मवीर बुद्ध का दर्शन का खुल्लम-खुल्ला विरोध करते हुए कहते -‘इस देश को बुद्ध की जरूरत नहीं है. दलितों को बुद्ध की बिल्कुल जरूरत नहीं है. बुद्ध के लौटने की प्रार्थना करना सही नहीं है. वे अपने घर नही लौटे थे, तो देश में क्या लौटेगें? दलितों में क्या लौटेगें? बुद्ध को लौटना है तो पहले अपने घर लौटे. घर बारी बने, पत्नी से प्यार करें, बच्चों को स्कूल भेजे और कबीर की तरह भगवान के गुण गाए.’

दूसरे बड़े दलित चिंतल डॉ. चंद्रभान प्रसाद तो मानते हैं कि पूंजीवाद ही जाति को खत्म करेगा. इस तरह बौद्धधर्म में धर्मांतरण बसपा की फूट का कारण बन सकता है. इसलिए मायावती इस मुद्दे से कन्नी काट रही है.

केंद्र सरकार के राज्यमंत्री और महाराष्ट्र के दलित नेता रामदास आठवले ने कुछ समय पहले बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती पर जमकर निशाना साधा कि मायावती बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर राजनीति तो करती हैं लेकिन, उनके आदर्शों को नहीं मानती. आंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाली मायावती ने अभी तक बौद्ध धर्म क्यों नहीं अपनाया. उन्होंने आरोप लगाया कि मायावती ने कई बार बौद्ध धर्मं अपनाने की बात की, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं किया और अभी तक वो हिंदू हैं.

यह आरोप लगाकर आठवले ने मायावती की दुखती रग पर हाथ रख दिया. तब बसपा सुप्रीमो मायावती ने अठावले पर पलटवार करते हुए कहा कि समय आने पर देश के करोड़ों दलितों के साथ वह बौध धर्म अपनाएंगी. मायावती ने कहा कि आठवले का बयान राजनीति से प्रेरित है और वक्त आने पर वे बौद्ध धर्म अपना कर कांशीराम की इच्छाओं को पूरा करेंगी….मायावती ने कहा कि, ‘बाबा साहब ने बौद्ध धर्म अपनाने मे हड़बड़ी नहीं की. लाखों अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा ली. मैं भी समय आने पर बौध धर्म अपना लूंगी’.

मायावती ने खानापूर्ति करने के लिए आठवले के मुद्दे का जवाब तो दे दिया है. उन्‍होंने कहा कि उनकी सरकार ने भगवान बुद्ध के नाम पर एक जिला और विश्‍वविद्यालय का नामकरण करने के अलावा और भी कई स्‍मारक बनवाए हैं. उन्‍होंने कहा कि बढ़ती हुई नफरत और साम्‍प्रदायिकता के बीच बौद्ध धर्म और प्रासंगिक हो गया है.

मगर इससे इस बात का जवाब नहीं मिलता कि मायावती बौद्ध धर्म के सिद्धांतों को मानती हैं तो बौद्ध धर्म को स्वीकार क्यों नहीं करती? क्या इसकी राजनीतिक वजह है. वैसे इन दिनों मायावती बौद्ध धर्म के नाम पर राजनीति तो कर रही हैं मगर उसे सार्वजनिक तौर पर अपनाती नहीं. मायावती ने दलित-मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए बुद्ध पूर्णि‍मा के अवसर पर पार्टी के मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी को लखनऊ के बुद्ध विहार में आयोजित प्रार्थना सभा में भेजा. सिद्दीकी ने बुद्ध पूर्णि‍मा के अवसर पर आयोजित प्रार्थना में हिस्‍सा लिया और भगवान बुद्ध को पुष्‍प अर्पित किए. उन्‍होंने प्रसाद में मिली खीर भी खाई.


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बसपा सूत्रों का कहना है कि मायावती का बुद्ध पूर्णिमा के मौके पर किसी मुस्लिम को पार्टी प्रतिनिधि के तौर पर भेजना इस बात का संकेत था कि वो चाहती हैं कि मुसलमान और दलित उनकी पार्टी के साथ खड़े हों. इस तरह मायावती बौद्ध धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल तो कर रही हैं मगर बौद्ध धर्म स्वीकार करने से परहेज कर रही हैं.

दरअसल मायावती के गुरू कांशीराम ने भी कभी बौद्ध धर्म अपनाया हो यह याद नहीं आता. यूं भी कांशीराम सिख थे जो सैद्धांतिक तौर पर जातीय भेदभाव को नहीं मानता. मगर मायावती ने कांशीराम के बारे में कहा कि उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म के रीति-रिवाजों के अनुसार किया गया. कांशीराम डॉ. आंबेडकर के अनुयायी थे, मगर उन्होंने अपने जीवन में सार्वजनिक तौर पर बौद्ध धर्म नहीं अपनाया, इसे क्या कहा जाए. वे चाहते तो बसपा के लोगों के साथ बौद्ध धर्म अपना सकते थे. अब मायावती भी वही कर रही हैं. आखिर इसकी क्या वजह है. अगर दलित नेता डा. आंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने का समर्थन करते हैं तो उस पर अमल क्यों नहीं करते. वजह राजनीतिक है या धार्मिक? या बौद्ध धर्म से जातिवाद खत्म हो जाएगा यह मानना चूक थी.

(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं )

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