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Thursday, 21 November, 2024
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नाज़ी युद्ध अपराधियों पर अब भी मुकदमा चल सकता है तो 1971 के नरसंहार के लिए पाकिस्तानियों पर क्यों नहीं

बांग्लादेश 1971 के नरसंहार और युद्ध अपराधों के लिए पाकिस्तानी फ़ौजियों पर मुकदमा चलाना चाहता रहा है मगर राजनीतिक हकीकतें उसे रोकती रही हैं, फिर भी इंसाफ तो किया ही जाना चाहिए.

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पाकिस्तान में हुए पहले आम चुनाव के नतीजे 7 दिसंबर 1970 को घोषित हुए थे और अवामी लीग को बहुमत मिला था लेकिन इस जनादेश को लागू नहीं किया गया. इसके बाद पूरे देश में बांग्ला राष्ट्रवादी स्वतंत्रता आंदोलन मार्च 1971 से शुरू हो गया था. इसके नेता शेख मुजीबुर्रहमान ने ‘अहिंसक असहयोग आंदोलन’ का आह्वान किया था मगर गैर-बंगाली उर्दू भाषी बिहारी मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई और पूर्वी पाकिस्तान सूबे का प्रशासन ठप हो गया.

पश्चिम पाकिस्तान के वर्चस्व वाली सरकार ने कानून का शासन बहाल करने और चुनावी जनादेश को लागू करने की जगह बंगालियों को सबक सिखाने का फैसला किया. 25/26 मार्च 1971 की रात से ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ के नाम से बर्बर नरसंहार शुरू कर दिया, जो 14 दिसंबर 1971 तक चला. अवामी लीग के कार्यकर्ताओं/समर्थकों, बुद्धिजीवियों, सेना/अर्द्धसैनिक बलों के बंगाली जवानों और हिंदू आबादी को निशाना बनाया गया.

जातीय और धार्मिक आधार पर सफाए के इस नरसंहार ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए. शर्म की बात यह है कि इस जघन्य अपराध को अंजाम देने वाले पाकिस्तानी फ़ौजी अफसरों और सैनिकों से सांठ-गाठ करने वाले कुछ गैर-फ़ौजियों को बांग्लादेश में इंसाफ के कठघरे में देर से ही सही खड़ा तो किया गया मगर वे अफसर और सैनिक सजा से बचे हुए हैं, हालांकि उनकी पहचान की जा चुकी है.


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युद्ध अपराध के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून

‘इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट’ के रोम के कानून विधान के अनुच्छेद 6 में ‘नरसंहार’ को ‘किसी राष्ट्रीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को आंशिक या पूर्ण रूप से नष्ट करने के लिए इरादतन किए गए कत्ले-आम’ के रूप में परिभाषित किया गया है. इसी कानूनी विधान के अनुच्छेद 8 में ‘युद्ध अपराधों’ में ’12 अगस्त 1949 के जेनेवा समझौतों के गंभीर उल्लंघन, युद्धबंदियों के प्रति बुरे बर्ताव, नागरिकों की इरादतन हत्या, यातना, जबरन गर्भाधान, अमानवीय व्यवहार या जान-बूझकर तकलीफ देने तथा चोट पहुंचाना और नागरिक संपत्ति की नष्ट करने’ को शामिल किया है.

उपरोक्त बातों के मद्देनज़र, इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि पाकिस्तानी फौज और उसके सहयोगी नरसंहार तथा युद्ध अपराधों के दोषी हैं. पाकिस्तानी सेना ने खंडन करने के अलावा यह सफाई दी कि उसने ‘जायज सरकार के आदेश पर एक बगावत को काबू करने के लिए सिविल सत्ता की मदद की’. लेकिन यह पूरी तरह स्पष्ट है कि ऐसी परिस्थितियों के लिए जेनेवा समझौते और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून, मानवाधिकार संबंधी कानून लागू हो जाते हैं. इसके अलावा, न्यूरेमबर्ग सिद्धांतों का कहना हैं कि अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानूनों के उल्लंघन के ‘अवैध आदेशों’ का पालन करने के लिए सैनिकों को जवाबदेह माना जाएगा.

बांग्लादेश नरसंहार के सूत्रधार

सभी विदेशी पत्रकारों को ढाका के एक होटल में क्वारेंटाइन कर दिया गया था. लेकिन भारतीय अखबार पूर्वी बंगाल में जो कुछ हो रहा था उसकी खबरें विस्तार से दे रहे थे. भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 31 मार्च 1971 को ही कह दिया था कि वहां नरसंहार हो रहा है. लेकिन तीन विख्यात व्यक्तियों ने इस नरसंहार के खिलाफ दुनिया के जमीर को जगाया.

ढाका में उस समय अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के प्रमुख आर्चर केंट ब्लड ने 27 मार्च को वाशिंगटन को भेजे इस टेलीग्राम के बाद और भी कई टेलीग्राम भेजे— ‘ढाका में हम पाकिस्तानी सेना द्वारा बरपाए गए आतंक के मूक तथा ख़ौफजदा दर्शक बनकर रह गए हैं’. अपने 20 सहकर्मियों के साथ उन्होंने 6 अप्रैल 1971 को विदेश विभाग के ‘डिसेंट चैनल’ (असहमति चैनल) के मार्फत यह ‘डिसेंट टेलीग्राम’ भी भेजा— ‘हमारी सरकार लोकतंत्र का गला घोटे जाने की निंदा करने में नाकाम रही है. हमारी सरकार अत्याचारों की निंदा करने में नाकाम रही है… हमने नैतिकता के नाते भी दखल न देने का इस आधार पर फैसला किया है कि अवामी संघर्ष, जिसके मामले में दुर्भाग्य से नरसंहार जैसा शब्द लागू होता है, एक संप्रभु देश का पूरी तरह आंतरिक मामला है.’

दूसरे साहसी पत्रकार सिमोन ड्रिंग ने, जो ढाका में किसी तरह कुछ दिनों तक टीके रहने में सफल हुए थे, ‘डेली टेलीग्राफ’ में ‘टैंक्स क्रश रिवोल्ट इन पाकिस्तान’ शीर्षक से एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने पहले 24 घंटे का विवरण दिया- ‘सही-सही अंदाजा लागान असंभाव है कि इस सबके कारण कितने बेकसूर लोग मारे गए हैं. लेकिन चटगांव, कोमिल्ला और जेस्सोर जैसे बाहरी इलाकों से खबरें आने लगी हैं और बताया जा रहा है कि ढाका को मिलाकर करीब 15,000 लोग मारे जा चुके हैं. फौजी कार्रवाई की क्रूरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छात्र अपने बिस्तरों में मरे पाए गए, बाजार में कसाइयों को अपने स्टॉल के पीछे मारा हुआ पाया गया, महिलाएं और बच्चे अपने घरों के साथ जले हुए पाए गाए, हिंदू मूल के पाकिस्तानैयों को घरों से बाहर लाकर एक साथ गोली मार दी गई, बाज़ारों और दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया और पाकिस्तानी झंडा राजधानी की हर इमारत पर फहरा रहा है.’

लेकिन जिस सबसे विस्तृत और मर्मस्पर्शी विवरण ने दुनिया के जमीर को झकझोर दिया और इंदिरा गांधी को बहुत गहरे प्रभावित किया वह पाकिस्तानी पत्रकार एंथनी मस्क्रेन्हास का था, जो ‘संडे टाइम्स’ में 13 जून 1971 को प्रकाशित हुआ था. पाकिस्तानी होने के कारण उन्हें पाकिस्तानी सेना के साथ घूमने की इजाजत दी गई थी ताकि वे सरकारी रिपोर्ट को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करें. ‘जेनोसाइड’ शीर्षक से उनका लेख खून को जमा देने वाला विवरण प्रस्तुत करता है.


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कितनी बड़ी हिंसा

बांग्लादेशी सूत्रों के अनुसार, 30 लाख लोग मारे गए, 1 करोड़ लोगों ने भाग कर भारत में शरण ली, करीब ढाई लाख महिलाओं को बलात्कार का शिकार होना पड़ा जिनमें से 25000 गर्भवती हो गईं.

दूसरे सूत्रों के अनुसार 5 लाख लोग मारे गए, 30 लाख का आंकड़ा बांग्लादेश के ‘राष्ट्रीय आख्यान’ का हिस्सा है. अमेरिकी सीआईए के आकलन के अनुसार 2 लाख लोग मारे गए. 6.5 करोड़ में से 1 करोड़ लोगों ने अगर भारत में शरण ली थी, तो माना जा सकता है कि 5 से 10 लाख के बीच लोग मारे गए होंगे.

ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टर ज्योफ्रे डेविस ने, जिन्हें युद्ध खत्म होने के बाद संयुक्त राष्ट्र बलात्कार की शिकार महिलाओं का गर्भपात कराने में मदद के लिए ढाका लाया था, कहा कि यह अनुमान काफी कम करके लगाया गया लगता है कि 2 से 4 लाख के बीच बांग्ला महिलाओं का बलात्कार किया गया. ले.जनरल ए.ए.ए.के. नियाजी ने अपनी किताब ‘बिट्रेयल ऑफ ईस्ट पाकिस्तान’ में ले.जनरल टिक्का खान की तुलना हुलागु खान और चंगेज़ खान से की है. हमूदूर रहमान आयोग की रिपोर्ट में इस पहलू पर भी चर्चा की गई है और उसने इस दावे को खारिज किया है.

इंसाफ से इनकार

नरसंहार और युद्ध अपराधों का पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर असर पड़ता है. इनमें शामिल राज्यतंत्र के किरदारों को जरूर जवाबदेह बनाया जाना चाहिए और ऐसे जघन्य अपराधों के लिए उन्हें बचकर निकलने नहीं देना चाहिए. बदकिस्मती से, पाकिस्तान अब तक बचा हुआ है.

बांग्लादेश ने अपनी मंशा साफ कर दी है, वह युद्ध अपराधों के लिए पाकिस्तानी सेना पर मुकदमा चलाना चाहता है. चूंकि पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सेना के आगे हथियार डाल दिए थे, 93 हजार युद्धबंदी भारत लाए गए थे. भारत और बांग्लादेश ने वरिष्ठ अधिकारियों समेत 195 फौजियों की पहचान की थी जिन पर युद्ध अपराधों के लिए मुकदमा चलाना था. तब, पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री बने जुल्फ़ीकर अली भुट्टो ने रहमान को रिहा कर दिया था लेकिन पाकिस्तान में उस समय मौजूद सभी बंगाली फ़ौजियों और सरकारी कर्मचारियों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की धमकी दी थी. उन्होंने पश्चिम पाकिस्तान में फंसे करीब चार लाख बंगाली नागरिकों को भी बंधक बनाकर रखा.

पाकिस्तान ने 195 युद्ध अपराधियों के मामले को बांग्लादेश को एक संप्रभु देश की मान्यता देने की जगह अपना अलग हुआ सूबा घोषित करने के मसले से जोड़ दिया. संयुक्त राष्ट्र में चीन का वीटो भी तलवार की तरह सिर के ऊपर लटका था. 2 जुलाई 1972 को शिमला समझौता हुआ. इसके बाद भारत और पाकिस्तान ने युद्धबंदियों और 195 युद्ध अपराधियों को वापस लौटाने के समझौते पर दस्तखत किए.

बांग्लादेश के लिए यह मसला बेहद भावनात्मक था मगर राजनीतिक हक़ीक़तें भारी पड़ीं. बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान ने युद्धबंदियों और असैनिक बंदियों के मसले पर 9 अप्रैल 1974 को दस्तखत किए. आपसी समझ यह बनी थी कि युद्ध अपराधियों पर पाकिस्तान में मुकदमा चलेगा. लेकिन यह कभी नहीं चला और भुक्तभोगी को पूर्ण इंसाफ से वंचित रखा गया. अब यह बांग्लादेश के ऊपर है कि वह विश्व जनमत बनाए और इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में मामला दायर करे. अगर नाजी युद्ध अपराधियों पर अभी भी मुकदमा चल सकता है तो पाकिस्तानी युद्ध अपराधियों पर क्यों नहीं?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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