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Sunday, 22 December, 2024
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पाकिस्तान भारत के साथ शांति क्यों चाहता है, और मोदी भी इसे जंग से बेहतर विकल्प मानते हैं

अगर भारत को लगता है कि उसे दो सरहदों पर मोर्चा संभालना पड़ रहा है, तो पाकिस्तान के लिए चुनौतियां कहीं और गंभीर हैं, वह भारत से दुश्मनी जारी रख सकता है और चीन के उपनिवेश वाली हैसियत में बना रह सकता है.

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पिछले बृहस्पतिवार को पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर अहमद बाजवा ने ‘इस्लामाबाद सिक्योरिटी डायलॉग’ में 13 मिनट का जो भाषण दिया उस पर भारत में जानकार लोगों की पहली प्रतिक्रिया एक जम्हाई से ज्यादा शायद ही कुछ हो सकती है. इस भाषण में उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान को अपना पिछला सब कुछ दफन करके एक नयी शुरुआत करनी चाहिए, अमन में दोनों मुल्कों के दांव लगे हैं, इसलिए उन्हें आर्थिक मोर्चे पर ध्यान देना चाहिए, वगैरह-वगैरह. इस तरह की बातें क्या हरेक पाकिस्तानी नेता, चाहे वह निर्वाचित रहा हो या नहीं, कभी-न-कभी नहीं कह चुका है? और फिर वह आपकी पीठ में छुरा भी भोंक चुका है. सो, इसमें नया क्या है?

म्यूचुअल फंड्स के विज्ञापनों में ‘डिस्क्लेमर’  के तौर पर जो जुमला दिया जाता है उसे थोड़ा बदलकर करें तो कहा जा सकता है कि अगर अतीत भावी कामकाज का कोई संकेत देता है तो पाकिस्तान के बारे में कोई बात करना बेकार है. बेहतर यही है कि कुछ और राइफल खरीद कर एलओसी पर बैठ जाइए. इसलिए, अब सवाल यह है कि इस गतिरोध को कैसे खत्म किया जाए?

इस सवाल का जवाब यह नहीं हो सकता कि उन्हें बम से ध्वस्त करके पाषाण युग में पहुंचा दिया जाए. करगिल, ऑपरेशन पराक्रम, और पुलवामा/बालाकोट ने यह साफ कर दिया है. सख्त बातें करने वाले अमेरिकी सुरक्षा दूत रिचर्ड आर्मिटेज भी, जिन्होंने 9/11 कांड के बाद पाकिस्तान को सीधे रास्ते पर लाने के लिए यह धमकी दी थी, जानते थे कि यह सब बड़बोलापन से ज्यादा कुछ नहीं है. उसके बाद के 20 वर्षों में अमेरिका अफगानिस्तान के बड़े हिस्से को कई बार पाषाण युग में पहुंचा चुका है, लेकिन वही अमेरिका हार कर लौट रहा है.


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सामरिक, कूटनीतिक, राजनीतिक या आर्थिक तौर पर कुछ भी ताकत के इस्तेमाल से हासिल करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता. इस महीने के शुरू में पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक ने ‘दप्रिंट’ के ‘ऑफ द कफ’ कार्यक्रम में मुझसे बात करते हुए कहा कि आज फौजी ताकत के ज़ोर पर पीओके या अक्साइ चीन जैसे भौगोलिक लक्ष्य हासिल करना मुमकिन नहीं है. जहां तक क्षमता का सवाल है, ऐसे किसी भी दुस्साहस को दुनिया कबूल नहीं करेगी, और आप कुछ मील ही आगे बढ़ेंगे कि आपको युद्ध विराम के लिए मजबूर कर दिया जाएगा. बता दें कि ये मेरे शब्द हैं, जनरल मलिक के नहीं.

तो यहां से आगे हम कहां जा रहे हैं? और पहला सवाल तो यह है कि हम इस मुकाम पर पहुंचे कैसे? पिछले महीने अचानक एक सुबह हमने देखा कि दोनों देशों के डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिटरी ऑपरेशन्स (डीजीएमओ) ने बड़े शुद्ध भाव से यह बयान जारी किया कि वे नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर शांति बनाए रखने के 2003 के समझौते का पालन करेंगे. इसका अर्थ यह हुआ कि एक-दूसरे की चौकियों और गांवों पर उन्मादी, बेमानी गोलाबारियां बंद हो जाएंगी. आखिर इससे अपनी भड़ास निकालने के सिवा हासिल कुछ नहीं होता था. इसके अलावा इससे दोनों ओर के कमांडोनुमा टीवी चैनलों को कुछ ‘शानदार’ तस्वीरें जरूर मिल जाती थीं, जिनका इस्तेमाल करके वे सफ़ेद मूंछ वालों की मदद से अपनी-अपनी सेना की जीत का दावा किया करते थे. लेकिन सच्चाई तो सेनाओं को मालूम होती थी और सरकारों को भी. कभी-न-कभी तो उन्हें इस सबसे आगे बढ़ना ही था.

जो भी यह सोच रहा हो कि दोनों तरफ के डीजीएमओ एक सुबह शांति बहाल करने के एक ही इरादे से जगे और जरूर कोई जबर्दस्त चीज पीकर सोए होंगे, उन्हें चीनियों द्वारा बनाई जाने वाली ‘माओताई’ शराब भरपूर मात्रा में भेंट की जानी चाहिए. इसी तरह, जो भी यह मान बैठा हो कि जनरल बाजवा ने किसी इलहाम के बाद वह भाषण दिया, उसे भी किसी शराबखाने की बार में बैठा होना चाहिए. दोनों देशों के बीच परदे के पीछे महीनों नहीं तो कुछ हफ्तों से जरूर कुछ चल रहा था.

पुराने अनुभवी खुफिया/रणनीतिक/सामरिक तंत्र की ओर से कुछ सख्त हिदायतें आई हैं. एक और पाकिस्तानी जनरल जब यह कहता है कि बीते हुए को दफन कर दो और आगे बढ़ो, तो इसका क्या मतलब है? इसका यह मतलब है कि भारत बीते हुए को भूल जाए और आगे बढ़े, जबकि पाकिस्तान हमें नुकसान पहुंचाता रहे. जो लोग एक ही दुश्मन से लड़ने में अपना जीवन खपा चुके हैं उनके लिए इस भावना को समझना आसान है. लेकिन जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, 2021 में किसी देश के लिए यह संभव नहीं है कि वह कुछ हासिल करने के लिए दूसरे देश को तबाह कर डाले. खासकर तब जब दोनों देश पड़ोसी हों, दोनों देशों में राष्ट्रवाद का जुनून उफान मार रहा हो और दोनों की सेनाएं परमाणु शक्ति से लैस हों. कोई भी यहां आर्मेनिया से अज़रबैजान या यूक्रेन से रूस जैसा नहीं बनना चाहता. हमें रचनात्मक रूप से सोचने की जरूरत है.

शीत युद्ध समाप्त करने की वार्ता में रोनाल्ड रीगन ने माइकल गोर्बाचोव से एक मार्के की बात कही थी—भरोसा कीजिए मगर जांच भी कर लीजिए! पाकिस्तान के मामले में हम इस हिदायत को इस तरह उलट कर देख सकते हैं— अविश्वास कीजिए मगर जांच कर लीजिए! इसका अर्थ यह है कि रावलपिंडी (मैं जान-बूझकर इस्लामाबाद का नाम नहीं ले रहा हूं) द्वारा की जाने वाली हर नई पहल पर गहरा संदेह करते हुए जांच जरूर लीजिए. तभी हम अपने गहरे शक को सीने में दबाए रखकर भी अपने दिमाग का इस्तेमाल करते हुए जनरलों के बयानों में छिपे संदेश को पढ़ पाएंगे. ये बयान बड़ी खुशमिजाजी से पक्के पंजाबी लहजे में दिए गए, जिससे सरहद के दोनों ओर के लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं.

उन लिखित बयानों में दो बातें साफ तौर पर उभरती हैं. एक तो यह कि पड़ोस या इस क्षेत्र के किसी देश के आंतरिक मामलों में दखल न देने का वादा किया जा रहा है. आप कह सकते हैं कि यह तो बड़ी मामूली बात है. लेकिन सावधानी से जांच लीजिए. उत्तरी क्षेत्र के पाकिस्तानी कमांडर को श्रीनगर के बादामी बाग में गोल्फ खेलने के लिए हड़बड़ा कर कोई न्यौता नहीं देने जा रहा है.

दूसरी बात यह कि वे कश्मीर का जिक्र करना नहीं भूले. लेकिन इसमें भी एक पेच है. उन्होंने कहा कि रिश्ते में बेहतरी बेशक इस पर निर्भर होगा कि भारत अपने कश्मीर में ‘माकूल माहौल’ बनाने के लिए क्या करता है. कश्मीर के इस रस्मी जिक्र के साथ भारत को जम्मू-कश्मीर की 5 अगस्त 2019 से पहले वाली स्थिति तुरंत बहाल करने, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के मुताबिक रायशुमारी की तैयारी, वगैरह-वगैरह की याद दिलाई जा सकती थी. ऐसा नहीं किया गया तो क्या इसका मतलब यह है कि पाकिस्तानी फौज ने जम्मू-कश्मीर की 5 अगस्त 2019 से पहले वाली स्थिति तुरंत बहाल करने की अपनी जिद छोड़ दी है? तुरंत निष्कर्ष मत निकालने लगिए. जरा जांच लीजिए. क्योंकि, अगर हम यह सोचते हैं कि हमें दो सरहदों पर मोर्चा लेने की दुष्कर स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, तो बाजवा जिस स्थिति में हैं उसके मद्देनजर गौर करेंगे तो तस्वीर और बुरी नज़र आएगी.

बाजवा को पूरब में मजबूत भारत खड़ा नज़र आता है, पश्चिम में निरंतर बदलता अफगानिस्तान और पेचीदा ईरान नज़र आता है, उत्तर में ऊपर से लदता चीन और अमेरिका नज़र आता है, जो अब सहयोगी नहीं रह गया है. हम इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां भारत और अमेरिका सहयोगी बन गए हैं और ‘क्वाड’ पर उनकी पकड़ मजबूत हो रही है. पाकिस्तानी शासक वर्ग की अधिकतर अहम हस्तियों की तरह बाजवा को भी फैसला करना पड़ता है.

या तो भारत के साथ अमन बहाल कीजिए, या लड़ते रहिए और चीन की छत्रछाया में आर्थिक उपनिवेश बनकर रहिए.
याद रहे कि पाकिस्तानी शासक वर्ग के पैसे, जायदाद और बच्चे पश्चिम में हैं. अगर वे भारत के प्रति ऐसी नफरत नहीं रखेंगे तो फिर चीन के साथ सुर कैसे मिलेंगे? इसके अलावा, खाड़ी देश उससे किनारा कर रहे हैं और अपने कर्जों का भुगतान मांग रहे हैं. इसलिए भारत से अमन ही आगे का रास्ता है.

भारत में, हमें मानना होगा कि मोदी सरकार अपने पत्ते छिपा कर रखने में सफल रही है. सरकार के अंदर के चंद लोगों के सिवा अगर कोई यह दावा करता है कि वह सरकार के नजरिए को समझता है तो वह झूठ बोल रहा है. लेकिन अब तक हमें पर्याप्त सबूत मिल चुका है कि यह सरकार कोई टकराव नहीं चाहती है. सात वर्षों और आठ बजट के बाद भी रक्षा बजट लगभग एक जैसा ही बना रहा है, बल्कि घटा ही है. जाहिर है, सरकार युद्ध की तैयारी नहीं कर रही है. इसी तरह पठानकोट, उड़ी, पुलवामा, गलवान, सब यही बता रहे हैं कि वह टक्कर लेने को बेताब नहीं है.

इसलिए हम ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते हैं, जो कई लोगों को उकसा सकता है या आज की भाषा में कहें तो आमादा कर सकता है. मोदी सरकार ‘युद्ध निषेध’ की नीति बना सकती है क्योंकि वह इतनी ताकतवर है. कमजोर सरकार होती तो पूर्वी लद्दाख में कहीं ज्यादा दबाव में होती, और इससे पहले पाकिस्तान के मामले में इतना दुस्साहस नहीं कर पाती. कई लोगों ने मोदी पर तंज़ भी कसा कि वे नेहरू की तरह चीन से भिड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, जबकि नेहरू ‘कम-से-कम लड़े तो, भले ही हार गए हों.’ 1962 में नेहरू की सरकार मोदी की आज की सरकार के मुक़ाबले कहीं ज्यादा कमजोर थी. उनके पास लड़ने और लड़ते हुए हारने के सिवा कोई रास्ता नहीं था. मोदी इतने मजबूत हैं कि इस जाल में फंसने से बच सकते हैं. इसलिए वे अमन चाहेंगे, जंग नहीं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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