यूक्रेन पर रूस का लड़खड़ाता हमला अब चौथे महीने में पहुंच चुका है. और अब तक जो कुछ सामने आया है उसने व्लादिमीर पुतिन ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की उम्मीदों को झूठा ही साबित किया है. किसी ने कल्पना नहीं की थी कि गतिरोध से ग्रस्त, जबरदस्त, पारंपरिक यह युद्ध 90 से ज्यादा दिनों के बाद भी जारी रहेगा.
काफी उलझन और संदेह अभी भी बना हुआ है. इसके नैतिक, भू-राजनीतिक और रणनीतिक आयाम भी हैं. पहले हम नैतिक पहलू को ही लें जिसे आसानी से और कठोरता के साथ उठाया जा सकता है. इसलिए आप मुझे अग्रिम जमानत दे दीजिए और मेरे साथ बने रहिए.
यह देखें कि दुनियाभर के कई बुद्धिमान लोग आज यूक्रेन को क्या सलाह दे रहे हैं. 99 साल के हो चुके अनुभवी और ज्ञानी हेनरी किसिंजर का कहना है कि यूक्रेन कड़वाहट पीकर समझौता कर ले, शक्तिशाली रूस को अपनी जमीन और संप्रभुता सौंप दे.
‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ का सम्मानित संपादक मंडल कह रहा है कि रूस इतना ताकतवर है कि उसे हराना मुश्किल है, अमेरिका पुतिन पर कटाक्ष बंद करे और यूक्रेन जितनी रियायतें ले सकता है उतनी लेकर एक बुरा सौदा कर ले. इनके अलावा शिकागो यूनिवर्सिटी के जॉन मीरशेमर से लेकर नोम चोम्स्की और सिंगापुर के किशोर महबूबानी तक तमाम दूसरे विद्वान भी अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं. दिप्रिंट के ‘ऑफ द कफ’ कार्यक्रम में मैंने इनसे बात की है, जिसे आप यहां देख सकते हैं.
ये सब वैश्विक विमर्श जगत के भारी-भरकम बुद्धिजीवी हैं. अगर हम भारत में केवल सोशल मीडिया का नहीं बल्कि व्यापक जनमत का जायजा लें, तो पता चलेगा कि उसमें भी खास अंतर नहीं है. यहां भी यही विचार सुनने को मिलेंगे कि पश्चिमी देशों ने बेचारे पुतिन पर कटाक्ष कर-करके उन्हें यूक्रेन पर हमला करने पर मजबूर कर दिया, कि पूरब की ओर नाटो का पैर पसारना पुतिन के लिए भारी उकसावा साबित हुआ, कि पश्चिमी देश अंतिम यूक्रेनी के जिंदा रहने तक रूस से लड़ेंगे.
यह भी सुनने को मिलेगा कि जेलेंस्की एक नये पहलवान हैं जिन्हें वही सब मिल रहा है जिसके वे हकदार हैं. अगर अब भी उन्हें अक्ल आ जाए तो रूस की शर्तों पर समझौता कर लें वरना वे अपने देश को तबाह होता देखते रहें. वैसे भी, दोनबास क्षेत्र के कई लोग खुद को रूसी ही मानते हैं.
अब हम जरा अपने अंदर झांक कर देखें और युद्ध का एक खेल खेलें. पूरी सावधानी बरतते हुए मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि यह खेल पूरी तरह काल्पनिक है. सो, आप मुझसे नाराज भी हों तो कृपया ज्यादा नाराज मत होइएगा.
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कल्पना कीजिए कि इस गर्मी में या किसी गर्मी के मौसम में चीन भारत के साथ सीमा विवाद का अपनी शर्तों पर निपटारा करने का फैसला करके लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में भी हमला कर देता है. यह हमला दो सप्ताह तक जारी रहता है और हमारी सेना पूरी बहादुरी से लड़ती है और तभी पाकिस्तान भी चीन के साथ मिलीभगत से कश्मीर में हमला कर देता है.
भारत को चीन और पाकिस्तान के रूप में अपनी अर्थव्यवस्था के मुकाबले छह गुनी बड़ी अर्थव्यवस्था और अपने रक्षा बजट से सात गुना बड़े बजट वाली ताकत से सामना करना पड़ता है. यह स्थिति तब है जब हम चीनी बजट के आंकड़ों पर भरोसा करें.
मुकाबला कड़ा है, युद्ध क्रूर है और प्रतिकूल हालात में हम कुछ जमीन गंवा देते हैं. हमारे क्वाड वाले मित्र देश और फ्रांस, इजरायल जैसे देश बेशक हमारी मदद करते हैं लेकिन हमें अपनी लड़ाई तो खुद ही लड़नी पड़ती है. इस मुकाम पर शी जिनपिंग भारत और उसके मित्र देशों, खासकर अमेरिका को युद्ध बंद करने की अपनी शर्तों का एक नोट भेजते हैं. वे कहते हैं कि वे पाकिस्तान की ओर से भी शर्तें रख रहे हैं.
शर्तें ये हैं— भारत अक्साई चीन को औपचारिक तौर पर उसे सौंप दे, लद्दाख में चीन की 1959 वाली दावा रेखा को मंजूर करे, अरुणाचल प्रदेश से हाथ धो ले. या चीन ‘उदारता’ दिखाते हुए केवल तवांग जिला ही मांगे और सेंट्रल सेक्टर में कुछ छोटे टुकड़े भी मांग ले.
इसके साथ यह भी शर्त रखे कि भारत कश्मीर घाटी पाकिस्तान को सौंप दे. सहयोग तथा शांति की सच्ची भावना का परिचय देते हुए पाकिस्तान जम्मू को भारत की खातिर छोड़ सकता है और लद्दाख में अपनी पहुंच के रास्ते देने की मांग कर सकता है. और आप जब इस सब में उलझे हों तब वह लिपूलेख पर नेपाल के दावे का ‘निपटारा’ कर दे और भूटान को वह सब सौंप देने को कह सकता है जिनकी मांग चीन करे. भारत कह सकता है, भाड़ में जाओ!
तब, परमाणु शक्ति से लैस तीन पड़ोसी देशों के बीच युद्ध पूरी दुनिया को चिंता में डाल देता है. शहरों पर बरसती मिसाइलों और हजारों लोगों की मौत के बीच तेज-तर्रार लोग भारत को सलाह देने लगते हैं— अपार चुनौतियों से लड़ने का कोई मतलब नहीं है! हिमालय के इन बंजर इलाकों के लिए अपना वजूद दांव पर लगाने का क्या फायदा? चीन तो वही मांग रहा है जिसे वह ऐतिहासिक दृष्टि से अपना मानता रहा है. वह इतना ताकतवर है कि उसे हराना नामुमकिन है.
और पाकिस्तान? वह तो कश्मीर पर हमेशा से दावा करता रहा है. वैसे भी, घाटी के कई कश्मीरी भारत के साथ रहकर खुश नहीं हैं. तो जाने दीजिए उन्हें. ऐसा करके आप अपने देश को बर्बादी से बचा सकते हैं, दुनिया को महायुद्ध से बचा सकते हैं, स्थायी शांति कायम कर सकते हैं.
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यह सब कहके मैंने आपको बहुत उत्तेजित तो नहीं कर दिया? मैं आपकी यह बात सुनता हूं कि युद्ध में ऐसी स्थिति कभी नहीं आएगी. चीन और पाकिस्तान इस तरह का सैन्य दुस्साहस कभी नहीं करेंगे. याद कीजिए कि 24 फरवरी की सुबह तक हम रूस और यूक्रेन के बारे में भी यही सोचते थे.
इसके बाद आप कहेंगे, लेकिन हमारे साथ तो क्वाड के मित्र देश हैं और परमाणु हथियार भी हैं. तो आपको बता दें कि हमारे पश्चिमी मित्रों में यूक्रेन के जो मित्र देश हैं वे कहीं ज्यादा ताकतवर हैं. और पुतिन के पास भी परमाणु हथियार हैं. लेकिन इन हथियारों के साथ दिक्कत यह है, जिसे पुतिन भी महसूस कर रहे होंगे कि कोई इनका इस्तेमाल करने की पहल नहीं कर सकता.
अगर भारत ने पाकिस्तान की परमाणु धौंस को बालाकोट में नाकाम कर दिया, तो पुतिन की इस धौंस को दुनिया कई बार नाकाम कर चुकी है. आधुनिक युद्ध में जब तक कोई देश परमाणु हथियार इस्तेमाल करने के कगार पर पहुंचता है तब तक काफी कुछ गंवा दिया गया होता है. आप कभी नहीं चाहेंगे कि जिसे आप अपने लिए अहम मानते हैं वह, या आपका देश कभी उस कगार तक पहुंचे.
मैं पहले ही कई बार कह चुका हूं कि मैं यहां युद्ध के काल्पनिक खेल की बात कर रहा हूं. लेकिन इससे हमें यह समझने में मदद मिलती है कि जब यूक्रेन से पुतिन की मांग मानते हुए अपनी जमीन और संप्रभुता गंवा कर चैन से रहने की सलाह दी जाती है तो उसे कैसा महसूस होता होगा. रूस ने वास्तव में अपनी शर्तों की सूची भेज दी है. इन्हीं के समानांतर मैंने युद्ध के अपने खेल में चीन का इस्तेमाल किया है.
हरेक देश के लोगों को अपनी राष्ट्रीयता का अधिकार है. और जब तक वे इसकी खातिर लड़ने तैयार हैं तब तक उन्हें विनम्र बनने के उपदेश देना अश्लीलता है, चाहे उनका दुश्मन कितना भी ताकतवर क्यों न हो. हम जिस युद्ध की कल्पना कर रहे हैं वह भगवान न करे, अगर सच हो गई तब हम भारत के लोग कहां होंगे?
अपनी जमीन और संप्रभुता की खातिर हम एकजुट होकर लड़ेंगे, चाहे उसकी जो भी कीमत देनी पड़े. यूक्रेन भी यही कर रहा है. और जो लोग हमें सच को कबूलने और कड़वा समझौता करने की सलाह दे रहे हैं उन्हें हम क्या जवाब देंगे? इसका संकेत भर भी हमें क्रोध से भर देगा. और इन ‘शुभचिंतकों’ को शायद हम एक सुर में उसी तरह जवाब देंगे जिस तरह ग्रेटा थनबर्ग ने दिया— तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ?
नैतिकता वाले पहलू से निपट लिया तो फिर भू-राजनीतिक और रणनीतिक पहलुओं से निपटना आसान होगा. यह युद्ध रूस को आर्थिक और सामरिक पहलुओं से काफी कमजोर बनाकर छोड़ेगा, चाहे वह युद्ध में जीत कर पूरे यूक्रेन पर कब्जा ही क्यों न कर ले.
चीन अपने सबसे ताकतवर मित्र देश को कमजोर होता देखकर जरूर बुरी तरह परेशान होगा. अमेरिका, यूरोप और चीन अपने संबंधों को कभी-न-कभी सुधार लेंगे. आखिर इसमें बहुत बड़ा आर्थिक दांव लगा है. भारत पश्चिमी देशों के साथ अपने जुड़ाव को दुरुस्त करने में तुरंत जुट जाएगा और सैन्य मामलों में रूस या किसी एक देश पर अपनी निर्भरता कम करेगा. यानी कुल मिलाकर वैश्विक सत्ता संतुलन में उलटफेर होगा.
रणनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह भारत के लिए एक पीढ़ी के दौर में सबसे माकूल स्थिति है. वैश्विक व्यवस्था हवा में है और भारत के लिए खुशकिस्मती की बात यह है कि वह इस युद्ध से अलग है. वह निष्पक्ष है, जिसे हर कोई खुश रखना चाह रहा है. और यह संकट जब लंबा खिंचेगा और अंततः समाप्त होगा तब उसके सामने कई अवसरों के दरवाजे खुले होंगे.
रूस कमजोर हुआ है, शी जिनपिंग अपने तीसरे कार्यकाल को बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं इसलिए चीन ठंडा पड़ा हुआ है, पश्चिम फिर से एकजुट हुआ है और पाकिस्तान उथल-पुथल से ग्रस्त है.
यह भारत के लिए बिल्कुल माकूल रणनीतिक स्थिति है. हाल तक यह आर्थिक, रणनीतिक और सैन्य मसलों पर अकल्पनीय संभावनाओं के द्वार खोलता रहा है. अब यह भारत के ऊपर है कि वह इस ऐतिहासिक अवसर का पूरा लाभ उठाए या उसे गंवा दे, जैसा कि वह अतीत में ऐसे कुछ अवसरों के साथ कर चुका है.
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