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Wednesday, 20 November, 2024
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मोदी-शाह के चुनावी प्रचार से पाकिस्तान, बांग्लादेश और आतंकवाद जैसे मुद्दे इस बार क्यों गायब हैं

इस बार के चुनावों में मोदी-शाह जोड़ी के प्रचार अभियान में पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, आतंकवादियों पर हमले नहीं हो रहे हैं तो ऐसा लगता है कि उन्हें घरेलू राजनीति और राष्ट्रीय रणनीतिक हितों के द्वेषपूर्ण घालमेल के खतरों का एहसास हो गया है.

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पांच विधानसभाओं के लिए चुनाव प्रचार अपने चरम पर पहुंच चुका है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस बार कोई चीज छूट गई है. वास्तव में, तीन अहम चीजें छूट गई हैं. वे क्या हैं, यह अंदाजा लगाने के लिए आपको थोड़ा समय देता हूं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सभी प्रमुख मंत्री, खासकर अमित शाह इस तरह चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं मानो दिल्ली की उनकी सरकार का भविष्य ही दांव पर लगा हो. उनकी राजनीति के एक तरीके के बारे में तो हम जान ही चुके हैं कि उनके लिए कोई भी चुनावी उपहार छोटा नहीं है, चाहे वह पुडुचेरी जैसा छोटा क्यों न हो. हर चुनाव को इस तरह लड़ना है मानो वह आखिरी जंग हो, कोई कमी नहीं छोड़नी है.

लेकिन, हम तो आपको यह बता रहे थे कि इस बार के चुनावों में कौन-सी तीन अहम चीजें छूट रही हैं और यह भाजपा के मामले में एक असामान्य बात ही है. इस पहेली का खुलासा कर दूं, मोदी-शाह के चुनाव प्रचार से गायब ये तीन चीजें हैं- पाकिस्तान, बांग्लादेश और आतंकवाद.

वास्तव में, हम आगे बढ़कर यह भी कह सकते हैं कि प्रमुख राज्यों के इस चुनाव अभियान में किसी विदेशी हाथ का, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरों का कोई जिक्र नहीं किया जा रहा है.

याद कीजिए, 2018 में दूर दक्षिण के कर्नाटक के चुनाव अभियान में मोदी किस तरह यह बताते फिर रहे थे कि डोकलाम में उनकी सेना ने चीन का कैसे मुकाबला किया कि जवाहरलाल नेहरू ने कर्नाटक के साहसी सपूत जनरल के.एस.  थिमैय्या को किस तरह नीचा दिखाया था.

2015 में बिहार में कहा गया था कि भाजपा विरोधी गठबंधन चुनाव जीता तो पाकिस्तान में पटाखे फोड़े जाएंगे. 2017 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में पूरा प्रचार उरी में सर्जिकल स्ट्राइक के जुनूनी जोश पर आधारित था.

2019 के लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल और असम में प्रचार का ज़ोर इस पर था कि बांग्लादेशी घुसपैठिए हमारी जड़ों को ‘दीमक की तरह’ चाट रहे हैं और उन्हें ‘बंगाल की खाड़ी में फेंक’ दिया जाएगा. बाद में, राज्य में भाजपा की सियासत मजबूत करने के लिए सीएए और एनआरसी को उछाला जाने लगा कि यही इन दो राज्यों की समस्याओं का रामबाण इलाज है. और ‘घटनाक्रम’ का खुलासा किया गया.

अब आज अगर चुनाव अभियान के बीच मंगल ग्रह का कोई प्राणी उतर आए तो उसे यह तो भरोसा हो ही जाएगा कि भारत कम-से-कम एक चुनौती से मुक्त है, उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है. उसके सभी पड़ोसी भले लोग हैं और सरहदों पर अमन-चैन है.

इस बदलाव को इस तरह देखा जा सकता है कि बांग्लादेशियों से खतरे को मुद्दा बनाने की जगह मोदी खुद इस सप्ताह ढाका में थे और खुद को बंगालियों का बंधु बताकर वहां से भी पश्चिम बंगाल के लिए चुनाव प्रचार में जुटे थे.


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इस मसले पर हमारा जो संपादकीय मत है, पहले उसे साफ कर दें. हम इस बदलाव का स्वागत करते हैं, भले ही यह स्थायी न हो. या इसकी कोई गुप्त समय सीमा अगले साल उत्तर प्रदेश के चुनाव तक के लिए तय की गई हो. जो भी हो, हमें कोई शिकायत नहीं है.

हमने इसके संकेत पहले ही पढ़ लिये थे और पिछले साल दिसंबर में मैंने इस स्तंभ में इसका सबसे पहले जिक्र भी किया था. यह बदलाव सीएए-एनआरसी का विरोध कर रहे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में नाराज मुसलमानों के बीच उनके सदभावपूर्ण भाषण के बाद से आया. वैसे, इसकी शुरुआत उन्होंने एक साल पहले कर दी थी, जब रामलीला मैदान के अपने भाषण में उन्होंने एनआरसी से खुद को अलग करते हुए इस बात का खंडन किया था कि इसका मकसद दहशत फैलाना है.

उस समय मैंने यह कहने का जोखिम उठाया था कि मोदी को यह एहसास हो गया है कि घरेलू राजनीति में मुस्लिम पत्ता खेलने से भारत के व्यापक रणनीतिक हितों को कितना नुकसान पहुंच सकता है. जिन मुस्लिम मुल्कों (खासकर खाड़ी देशों) के राष्ट्रीय सम्मानों से खुद सम्मानित होने का वे बड़ी शान से जिक्र करते हैं उन्हें वे अलग-थलग कैसे कर सकते हैं?

यह तब की बात है जब पूर्वी लद्दाख में तकरार नहीं बढ़ी थी. लेकिन भारत चीन और उसकी छत्रछाया में पाकिस्तान के लिए तो पहले से ही फ्रंटलाइन वाला देश है. ताजा बदलाव उसी की तार्किक परिणति है. इस दिमागी बदलाव (दिल की जगह दिमाग को जानबूझकर तरजीह देने) की तीन प्रमुख वजहें हो सकती हैं.

. बांग्लादेश में भारत द्वारा खाली छोड़ी गई जगह की तलाश में चीन और पाकिस्तान जिस जोश से आगे बढ़े, उसने खतरे की घंटी बजा दी. जब नेपाल और श्रीलंका के साथ रिश्ते तनावपूर्ण थे, तब भारत कतई नहीं चाह सकता था कि पूरब में बांग्लाभाषी पाकिस्तान खड़ा हो जाए. आखिर यह एक बड़ा देश है और पिछले साल इसने प्रति व्यक्ति जीडीपी के अनुपात में भारत को पीछे छोड़ दिया.

. पूर्वी लद्दाख में युद्ध का खतरा तो टल गया मगर चीनियों ने अपना दावा जता दिया. एक तो यह कि भारत के दो पड़ोसी दुश्मन हैं. और वह दूसरे को 1971 की तरह अपना बचाव खुद करने के लिए छोड़ नहीं सकता. इसने भी पाकिस्तान के साथ एलओसी पर एक तरह की शांति बहाल करने के लिए तैयार किया और आक्रामक लफ्फाजियों को बंद करने के लिए भी.

. और तीसरी बात यह कि राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति जैसे संवेदनशील और सूक्ष्म मसलों का घरेलू राजनीति के लिए दोहन करने के कई नुकसान हैं, खासकर यह कि इससे लेने के देने पड़ सकते हैं. चीनियों ने लद्दाख में एक कठोर सच को रेखांकित कर दिया कि पाकिस्तान के विपरीत, आप किसी टकराव को अपनी जीत में बदलने के बारे में आश्वस्त नहीं हो सकते. याद रहे कि मोदी की छवि ‘घर में घुसकर मारने वाले ’ ताकतवर शख्स की बनाई गई है. लद्दाख में हमने अपनी जबरदस्त सैन्य क्षमता का प्रदर्शन किया लेकिन इससे अपनी घरेलू राजनीति को होने वाले नुकसान को रोकना भी जरूरी हो गया.


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अब बड़ा भूल-सुधार किया जा रहा है. जब आप पाकिस्तान के साथ हर स्तर पर सामान्य स्थिति बहाल कर रहे हैं और चीन के साथ टकराव को खत्म कर रहे हैं, तब असुरक्षा के मुद्दे को चुनाव अभियान में उठाने का कोई कारण नहीं रह जाता है, क्योंकि आप ऐसी लफ्फाजी करने का जोखिम नहीं उठा सकते जिससे पड़ोसियों में अविश्वास फिर पनपे. जब आप इमरान खान के शीघ्र स्वस्थ होने की दुआ करते हुए ट्वीट करते हैं और उनके राष्ट्रीय दिवस पर उन्हें कूटनीतिक सदभावना से ओतप्रोत संदेश भेजते हैं और जब आपका सेनाध्यक्ष यह कह रहा हो कि चीन की ओर से खतरा खत्म हो चुका है, तब आप चुनावी रैलियों में माहौल को गरम करने वाली बातें नहीं कर सकते.

रणनीतिक लिहाज से भी दुनिया का माहौल बदल चुका है. बाइडन प्रशासन चीन के मामले में ट्रंप वाली दौड़ आगे बढ़ा रहा है. वह ज्यादा तेजी से दौड़ रहा है और उद्देश्यपूर्ण तरीके से दौड़ रहा है. भारत के लिए यह बड़ी राहत और फायदे की बात है. बाइडन की टीम में इस उपमहादेश के मूल के युवा भरे हैं, जो नागरिक अधिकारों और मुसलमानों के प्रति बर्ताव के मामलों में भाजपा पर भारी अविश्वास रखते हैं. आप बाइडेन को ज्यादा मौका देना चाहते हैं, उन्हें आंतरिक रूप से एक कोने में सिमटने नहीं देना चाहते क्योंकि उन्हें अपनी ही पार्टी में उग्र सुधारवादियों से काफी चुनौती मिल रही है.

मोदी-शाह की भाजपा ‘टोटल पॉलिटिक्स’ में विश्वास रखती है. अर्थनीति से लेकर समाज और विदेश नीति तक हर चीज, हर चाल, एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर चली जाएगी, वह है चुनाव में जीत. मैं यह कहने का जोखिम लेना चाहूंगा कि उन्हें यह समझ में आ गया है कि घरेलू राजनीति और रणनीतिक राष्ट्रीय हितों की विद्वेषपूर्ण घालमेल से लेने के देने पड़ सकते हैं.

मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर पराजित नेता के रूप में उभरने का जोखिम कतई मोल नहीं ले सकते. इसे स्मार्ट पॉलिटिक्स कहा जा सकता है और यह भारत के लिए बेहतर भी है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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