क्या भारतीय राज्यसत्ता विफल हो चुकी है? समाचार पत्रिका ‘इंडिया टुडे ’ का ऐसा ही मानना है. लेकिन मैं इसका विनम्रतापूर्वक खंडन करना चाहूंगा क्योंकि अगर ऐसा होता तो वह पत्रिका अपने आवरण पर इस आशय का शीर्षक न लगा पाती और मैं यह स्तंभ न लिख पाता.
अगर ऐसा होता तो हम यह न जान पाते कि हम कितनी बुरी तरह विफल हो रहे हैं. जब तक किसी राष्ट्र का अपना मीडिया, सिविल सोसाइटी और अकेला व्यक्ति भी बुरी खबर देने, करीब पिछले चार दशक के सबसे ताकतवर शासक को आईना दिखाने को आज़ाद है तब तक हम एक विफल राज्य नहीं माने जा सकते.
तब हम क्या हैं? मैं एक उपयुक्त विशेषण सुझा सकता हूं— हम हाथ-पैर मार रहे, दर्द से कराह रहे, हताशा, उलझन, अफरातफरी, एक कमजोर नेतृत्व में गर्त के कगार पर पहुंच चुके मगर रास्ता तलाश रहे मुल्क हैं.
आज के भारत की इससे बेहतर तस्वीर नहीं बताई जा सकती. अफसोस की बात है कि यह विशेषण मैंने नहीं बल्कि अर्थशास्त्री लांट प्रिटशेट ने इजाद किया है, जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ब्लावत्निक स्कूल ऑफ गवर्मेंट में रिसर्च डायरेक्टर हैं. 2009 में हार्वर्ड के केनेडी स्कूल में प्रस्तुत अपने बहुचर्चित शोधपत्र में उन्होंने यह लिखा था, जिसका शीर्षक कुछ उत्तेजना पैदा करने वाला रखा गया था— ‘भारत: आधुनिकीकरण के चार लेन वाले हाई-वे पर लड़खड़ाता मुल्क ’.
गौर करने वाली बात यह है कि प्रिटशेट ने ऐसा 2009 में कहा था, जब यूपीए सरकार अपने उत्कर्ष पर थी और देश के एक हांफते दशक में वृद्धि दर लहक रही थी. कमी सिर्फ यह थी कि राज्यसत्ता शासन में सुधार करने, बहुसंख्य आबादी का जीवन स्तर सुधारने और वृद्धि दर के बूते व्यापक संपन्नता और सामाजिक सुरक्षा देने में सक्षम साबित नहीं हो रही थी.
2009 से 2014 के बीच, दिग्भ्रमित यूपीए-2 के राज में शासन का स्तर बुरी तरह गिर गया था. सरकार विरोधाभासों और अनिर्णय में फंसकर पंगु हो चुकी थी. राज्यसत्ता जिस तरह लड़खड़ा रही थी उसका फायदा उठाते हुए नरेंद्र मोदी ने इसे बदल देने, ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन ’ देने के वादे किए और लोगों ने उन पर यकीन कर लिया.
उन्होंने जिस ‘न्यू इंडिया’ का वादा किया था उसमें भी अनिश्चितता, दुविधा की हद हो गई. सात वर्षों तक आर्थिक गतिरोध कायम रहा और उनके ऊपर मतदाताओं का भरोसा तब तक बना रहा जब तक वायरस दोबारा वापस नहीं आया और उसने इस असलियत को उजागर कर दिया कि मोदी के सात साल के राज में भारत एक शिथिल तो क्या, एक लड़खड़ाती राज्यसत्ता वाला देश है.
‘राज्यसत्ता’, शीर्ष नेतृत्व, नौकरशाही और वैज्ञानिक प्रतिष्ठान समेत तमाम संस्थाएं या तो काम के मोर्चे से गायब हैं या लीपापोती में लगी हैं— असलियत को बदलने में नहीं बल्कि किसी तरह अपनी छवि चमकाने में लगी हैं.
हर नेता की अपनी ब्रांड छवि होती है. मोदी की ब्रांड छवि में हिंदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद तो शामिल है ही, प्रशासनिक क्षमता, जनकल्याण योजनाओं को कुशलता से लागू करना भी शामिल है. इसकी मिशाल हम पिछले सात साल में देख चुके हैं, खासकर सबसे गरीब आबादी को लाभ पहुंचाने और इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के मामलों में. लेकिन बुनियादी शासन की नींव को मजबूत करने का काम नहीं किया गया.
संस्थाओं को कमजोर किया गया और तो और केंद्रीय मंत्रिमंडल को भी. अगर यह एक सामान्य मंत्रिमंडलीय संस्था की तरह काम कर रहा होता तो सबसे कुशल मंत्रियों को इस संकट से मुकाबला करने की जिम्मेदारियां सौंपी जातीं. जो ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाते उन्हें बाहर जाने का दरवाजा दिखा दिया जाता. ऐसी गंभीर राष्ट्रीय आपदा के बीच जीवन-मरण के सवाल के मामले में अपनी राजनीति को तरजीह नहीं दी जाती.
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मुझे मालूम है कि जवाहरलाल नेहरू का जिक्र करने का मतलब कई तरह की प्रतिक्रियाओं को उकसाना है. लेकिन 1962 में पराजय के बाद नेहरू ने अपने रक्षा मंत्री वी.के. कृष्ण मेनन को बर्खास्त कर दिया था और उनकी जगह यशवंत राव चह्वाण को नियुक्त किया था. मराठा दिग्गज चह्वाण ने भारतीय सेना के आधुनिकीकरण की पहली पंचवर्षीय योजना तुरंत लागू कर दी थी. इसका असर 1965 में पाकिस्तान के साथ लड़ाई में दिख गया था.
लाल बहादुर शास्त्री को नेहरू से विरासत में शर्मनाक खाद्य संकट मिला. वे इसका मुकाबला करने में सीधे जुट गए थे और सी. सुब्रह्मण्यम को कृषि मंत्री नियुक्त किया. शास्त्री के बाद इंदिरा गांधी ने सुब्रह्मण्यम को बनाए रखा. और 1969 तक हमने हरित क्रांति होते देखा.
अगर गांधी परिवार से आपको परेशानी होती हो, तो 1991 के आर्थिक संकट को याद कीजिए, जब देश को अपना कर्ज भुगतान करने में भी दिक्कत आने लगी थी. तब प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने एक अराजनीतिक मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी.
2008 में 26/11 कांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने गृह मंत्री शिवराज पाटिल की छुट्टी कर दी थी और पी. चिदंबरम को यह पद सौंपा था. कई वजहों से आज मोदी सरकार एनआईए और एनटीआरओ जैसी जिन संस्थाओं को बहुत महत्व देती है वे चिदंबरम की ही देन हैं.
यह सब बताने का अर्थ यह नहीं है कि हम अमुक मंत्री को बर्खास्त करने या अमुक को मंत्री नियुक्त करने की मांग कर रहे हैं. व्यक्तियों का महत्व नहीं है, मुद्दों का जरूर है. इसलिए आइए हम उन अहम मुद्दों की सूची बनाएं जिन्होंने सख्त फैसलों को मुमकिन बनाया.
. सबसे पहले तो ईमानदारी से यह कबूल किया गया कि कहीं गलती हुई है. जब तक आप विफलता को कबूल नहीं करेंगे, आप उसे सुधार नहीं सकते.
. शीर्ष नेता या नेतृत्व को सुरक्षा के घेरे में डालने का कोई दबाव नहीं था.
. एक नेता को सारा श्रेय देने की मजबूरी नहीं थी. इसका अर्थ यह है कि हमेशा आपको जीत की घोषणा करनी पड़ती है.
. इन सभी अवसरों पर चापलूसी की शक्तिशाली प्रवृत्ति हावी नहीं थी. हमें मालूम है कि तब ट्विटर वगैरह नहीं थे लेकिन इंदिरा गांधी के राज में हमने अविश्वसनीय चाटुकारिता के कुछ दौर भी देखे. हमने इस स्तंभ की शुरुआत ‘इंडिया टुडे ’ के आवरण शीर्षक से की थी, तो 1982 का एक ऐसा ही शीर्षक याद आता है जिसका आशय कुछ यह था— ‘बेलगाम चाटुकारिता’. लेकिन उस समय मंत्री लोग विदेश से खरीदे गए हरेक विमान के भारत आने पर या विदेश से भारी राहत आने पर अपना काम पूरा हो गया मान कर रोज कई-कई ट्वीट नहीं लिखा करते थे. खासकर तब जबकि विदेश से सहायता लेने की नौबत इसलिए आई क्योंकि आप अपना काम करने में विफल रहे.
वे जिस तरह बेदाग छूट रहे हैं और प्रधानमंत्री ने जिस तरह कदम पीछे खींच लिये हैं, उनकी वजह से संकट और गंभीर होता जा रहा है. यह सरकार पल्ला झाड़ती नज़र आ रही है. वह अपने बचाव में इस तरह की बातें कर रही है— हमारे यहां मृतकों की संख्या तो ब्रिटेन में मृतकों की संख्या से कम ही है… या यह कि यह तो वायरस का बेहद मारक नया रूप कहर ढा रहा है.
देखिए कि हमारे प्रधानमंत्री एक फोन करते हैं और ऑक्सीजन की बड़ी खेप पहुंच रही है. सबसे ताजा घोषणा यह है कि कोविड की लहर अब स्थिर हो रही है और संकट जल्दी ही दूर हो जाएगा. इसे अविश्वसनीय स्थिति के विश्लेषण में तार्किकता की जानबूझकर अनदेखी करना ही कहा जा सकता है.
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असलियत के इस सामूहिक इनकार और सच कहने से तमाम संस्थाओं के परहेज के कारण ही हम पर इस अकल्पनीय संकट का पहाड़ टूट पड़ा है. इसने दुनिया भर में भारत की हैसियत को बड़ा नुकसान पहुंचाया है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हजारों लोग हर हफ्ते मर रहे हैं (पिछले सप्ताह यह संख्या 26,000 थी) और यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है. पैथोलॉजी लैब्स से लेकर अस्पतालों और श्मशानों तक हर जगह व्यवस्था चरमरा चुकी है.
यह वक्त थोड़ी विनम्रता दिखाने का है. तभी व्यापक राष्ट्रीय सदभाव और एक लक्ष्य के लिए एकजुटता स्थापित हो सकती है. कैसी विनम्रता चाहिए? माफ करेंगे, मुझे फिर से नेहरू की ही याद आती है, हालांकि यह एक सांत्वना देने वाली बात होगी.
अपनी किताब ‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट ’ में डॉमिनिक लैपियर और लैरी कॉलिन्स ने एक उल्लेखनीय घटना का जिक्र किया है. बंटवारे के बाद जब दंगे बेकाबू हो गए और पंजाब में जलती इसकी आग दिल्ली तक फैलने लगी तब नेहरू ने वायसराय माउंटबेटन से मुलाकात की और मदद की मांग की. वे और उनके एक प्रमुख सहायक ने माउंटबेटन से कहा कि उन्हें आंदोलन करने और उनकी जेलों में वर्षों बिताने का अनुभव तो है मगर शासन का प्रशिक्षण नहीं हासिल है. उन्होंने माउंटबेटन से आपातकालीन परिषद बनाने और इसका अध्यक्ष बनने का अनुरोध किया. आज़ाद हुए एक नए देश की कमान वायसराय के हाथों में.
कांग्रेस ने इस खुलासे का बहुत विरोध किया और किताब पर रोक लगाने की मांग की. लेकिन लेखकों का कहना था कि यह तो एक राजनेता की फरागदिली की मिशाल है. बेशक हम यह नहीं कह रहे कि मोदी भी ऐसा कुछ करें. लेकिन उन्हें अपनी पार्टी में और दूसरी जगह मौजूद प्रतिभाओं का सहयोग और विपक्ष को भरोसे में लेना चाहिए. इस आग को बुझाने के लिए केंद्र और राज्यों में संयुक्त संघीय मोर्चा का गठन करना चाहिए. यह सब करने के लिए सबसे पहले विफलता को कबूल करें या न करें, संकट की विकरालता को कबूल करना पड़ेगा. इसके लिए एक गुण की जरूरत होगी, जिसके दर्शन अब तक नहीं हुए हैं. वह गुण है— विनम्रता.
इससे कोई नाटकीय बदलाव नहीं आ जाएगा क्योंकि लड़खड़ाती राज्यसत्ता की समस्या कहीं ज्यादा गहरी और ढांचागत है. खासकर गरीब और बड़ी आबादी वाले देशों को भयानक समस्याओं का सामना करना पड़ता है. ऐसे में आप जो पहल करते हैं वही आपको एक आम सियासतदां की जगह एक अगुआ साबित करता है.
पुनश्च: हमने वादा किया था कि आपको एक तरह की सांत्वना देंगे. तो बता दें कि नेहरू के साथ माउंटबेटन के पास जाने वाले उनके प्रमुख सहायक सरदार पटेल थे. उस किताब के पन्ने यहां पढ़ लीजिए.
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