लगातार दो बार बहुमत से सरकार बनाने वाले नरेंद्र मोदी वादा करते रहे हैं कि वे देश में ऐसा पुनरुत्थान लाकर रहेंगे जैसा उसने अब तक नहीं देखा है. लेकिन हो क्या रहा है? वही पुराना राग ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिंदुस्तान हमारा है’. महज दो सप्ताह के भीतर दो बातें हो गईं. एक तो, ब्रिटिश उच्चायुक्त को बुलाकर जवाब तलब किया गया कि उनके देश की संसद ने भारत में जारी किसान आंदोलन पर बहस कैसे कर डाली. दूसरे, सरकार और कई तरह के उनके ज्यादा जोशीले आत्मतुष्ट समर्थकों ने ‘फ़्रीडम हाउस’ जैसे पश्चिमी, विदेशी पैसे पर चलने वाली संस्था पर इसलिए गुस्सा उतारा कि उसने भारतीय लोकतंत्र का दर्जा घटाकर ‘स्वतंत्र’ से ‘आंशिक तौर पर स्वतंत्र’ देश का कर दिया.
ऐसा पिछले 25 साल में पहली बार किया गया. 25 साल पहले ऐसा 1990 के दशक में तब किया गया था जब भारत दूसरे संकटों के अलावा कश्मीर और पंजाब में अलगाववाद से एक साथ जूझ रहा था. इसके बाद से उसकी रेटिंग सुधर रही थी. लेकिन पिछले नौ साल में इसकी रेटिंग में अच्छी-ख़ासी 9 अंकों की गिरावट आई है. इतना ही अंतर ‘स्वतंत्र’ वाली श्रेणी के निचले पायदान पर घिसटने और ‘आंशिक तौर पर स्वतंत्र’ वाली श्रेणी के शिखर पर मौज मनाने के बीच का है.
हमारे राष्ट्रीय गौरव पर लगा यह जख्म तब भी रिस रहा था जब स्वीडन के ‘वी-डेम’ फाउंडेशन ने इस पर नमक छिड़कते हुए यह घोषणा कर दी की भारत एक निर्वाचित तानाशाही है. ‘वी-डेम’ भी पूरी तरह विदेशी और विदेशी पैसे पर चलने वाला फाउंडेशन है.
इससे पहले, किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति जताते हुए कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का बयान आ चुका था. इस पर भी भारत में वोट बैंक (प्रवासी सिख वोटर) की राजनीति ने हमारे नेताओं को उसी तरह सक्रिय कर दिया था जिस तरह आज ब्रिटिश संसद के मामले में किया है.
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उस समय किसान आंदोलन के समर्थन में एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग, कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस, गायिका रिहाना, और अभिनेत्री सूसन सारंडन के ट्वीटों के खिलाफ भी भद्दा विरोध किया गया था. थनबर्ग ने जो ‘टूलकिट’ जारी किया उसे भारत को तोड़ने की विदेशी ताकतों के एजेंडा का एक हिस्सा बताया गया.
जो कुछ चल रहा है उसे देखकर लगता है कि स्वीडन को कुछ परेशानी झेलने के लिए तैयार रहना होगा. मेरे हिसाब से इस तरह की साजिश की कहानी गढ़ी जा सकती है— थनबर्ग भी ‘वी-डेम’ और बसें बनाने वाली कंपनी स्कानिया की तरह स्वीडिश हैं. इस कंपनी ने हाल में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि उसके अधिकारियों को भारत में घूस देना पड़ा. इस तरह एक सीधी रेखा बन जाती है. यानी मोदी के खिलाफ एक स्वीडिश साजिश चल रही है. जी हां, यह एक मज़ाक है, और आज के हास्य विहीन दौर में इसे स्पष्ट कर देना जरूरी है. लेकिन याद रहे कि भारत में बोफोर्स घोटाले की स्वीडिश जांच ने ही कांग्रेस को बर्बाद कर दिया था.
अंतरराष्ट्रीय मीनमेख और आलोचनाओं के खिलाफ मुख्य आपत्ति यह है कि हमारे मामले पर फैसला सुनाने वाले ये विदेशी कौन होते हैं? उन्हें मालूम क्या है? हमारे आंतरिक मामलों में वे क्यों दखल दें? उनका तरीका बिलकुल गलत और पक्षपातपूर्ण है.
यह सब उस देश के लिए एक अजीबोगरीब बात है जिसने तीन दशक पहले वैश्वीकरण को खुली बांहों से अपनाया था और उससे लाभ भी हासिल किए. इसी भावना के साथ 2007 में भारत ने विश्व आर्थिक फोरम (डब्लूईएफ) के साथ मिलकर ‘इंडिया एवरीव्हेयर’ को ‘दावोस 2007’ का थीम बनाया था. आप कह सकते हैं कि वह यूपीए दौर की मूर्खता थी, कि अब ऐसी मूर्खताओं से मुक्त एक नया भारत उभर रहा है जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया उसके बारे में क्या सोचती है, इसलिए आप तो अपनी ही फिक्र कीजिए!
लेकिन यह परेशानी को बुलावा देना ही है. क्योंकि जब भी हमारी ग्लोबल रैंकिंग बढ़ती है तब हम जश्न मनाने लगते हैं. ‘कारोबार करने की सुविधा’ देने के मामले में हमारी रैंकिंग में सुधार पर खुद हमारे प्रधानमंत्री कितने प्रसन्न होते हैं कि देखिए, दुनिया हमारी कामयाबी को किस तरह कबूल कर रही है! या हमारा ‘ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स’ (जीआईआई) 52 से सुधर कर 48 हो जाता है और हम टॉप-50 में पहुंच जाते हैं तो उस पर कितनी खुशी जाहिर की जाती है! ऐसा तब भी होता है जब किसी भी मामले में भारत ग्लोबल रैंकिंग बढ़ती है, चाहे स्टार्टअप से यूनिकॉर्न बनने वाली कंपनियों की संख्या बढ़ती हो या ‘ग्लोबल एम्पलॉयबिलिटी रैंकिंग’ 23 से सुधरकर 15 हो जाती हो.
अगर आप दुनियाभर से मिलने वाली वाहवाहियों से खुश होते हैं, तो आलोचनाओं को भी झेलने की तैयारी रखिए, चाहे यह हमारे ‘हंगर इंडेक्स’ में (जिसे मैं वैश्विक पोषण सूचकांक कहना चाहूंगा) गिरावट हो, या प्रेस की आज़ादी के सूचकांक में गिरावट हो या मानव विकास संकेतकों को सुधारने में हम पिछड़ रहे हों. ये सब इतनी ही अहम हक़ीक़तें हैं जितना ‘ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस’ की रैंकिंग में सुधार. क्या हम अपने मन की चला सकते हैं?
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यह हमें 1970 के, इंदिरा गांधी वाले दौर की ‘विदेशी हाथ’ वाली मानसिकता में पहुंचा देता है जब कहा जाता था कि ‘दुनिया हमारे खिलाफ साजिश कर रही है’. या इससे भी कई दशक पहले के दौर में, जब शायर इकबाल ने लिखा था— ‘सारे जहां से अच्छा… सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जमां हमारा’.
प्रधानमंत्री को जब किसी विदेशी सम्मान से नवाजा जाता है तब खूब जश्न मनाया जाता है. ये सम्मान तरह-तरह की सरकारों से मिले हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति रहे डोनाल्ड ट्रंप की सरकार ने, जो ‘बुरे’ फ़्रीडम हाउस को भी पैसे देती है, मोदी को रणनीतिक साझीदारी के लिए ‘लीजन ऑफ मेरिट’ सम्मान दिया; सऊदी अरब ने ‘ऑर्डर ऑफ अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद’ सम्मान, फिलस्तीन ने ‘ग्रांड कॉलर ऑफ द स्टेट’ सम्मान; अफगानिस्तान ने ‘स्टेट ऑर्डर ऑफ ग़ाज़ी अमीर अमानुल्लाह खान’ सम्मान; यूएई ने ‘ऑर्डर ऑफ जाएद’; मालदीव ने ‘ऑर्डर ऑफ डिस्टिंगुइष्ड रूल ऑफ निशान इज़्ज़ुद्दीन’ सम्मान; रूस ने ‘ऑर्डर ऑफ सेंट एण्ड्र्युज़’ सम्मान से सम्मानित किया. यह सूची लंबी है.
ये सब संप्रभुतासंपन्न देश हैं. इनके अलावा संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां हैं—यूनाइटेड नेशंस एन्वायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) ने ‘चैंपियन ऑफ द अर्थ’ सम्मान दिया, तो बिल और मेलिंडा गेट्स के फाउंडेशन ने स्वच्छ भारत मिशन के लिए ‘ग्लोबल गोलकीपर’ सम्मान से नवाजा, जिसके वे, हमारी नज़र में, बेशक पूरे हकदार हैं.
लेकिन विदेशी मीडिया से आलोचना हमें पसंद नहीं है, वह इतना पूर्वाग्रहग्रस्त है. 2014 और 2016 में ‘टाइम’ पत्रिका ने जब मोदी को ‘पर्सन ऑफ द इयर’ घोषित किया तब हमें कोई शिकायत नहीं हुई. 2012 में जिस ‘टाइम’ पत्रिका ने 2012 में मोदी की तस्वीर अपने आवरण पर ‘मोदी मीन्स बिजनेस’ शीर्षक के साथ प्रकाशित करके मोदी के उभार में योगदान दिया था, तब कहा गया था कि वह ‘गुजरात मॉडल’ की पैरवी कर रही है. वही पत्रिका आज हमलों की जद में है.
इस बीच एक प्रमुख ग्लोबल बिजनेस पत्रिका ‘फॉर्चून’ ने विश्व के महान नेताओं की 2015 की अपनी सूची में मोदी को 5वें नंबर पर रखा था. नोटबंदी के बाद से मोदी की अर्थनीति की जबर्दस्त आलोचक ‘फोर्ब्स’ पत्रिका दुनिया की ताकतवर हस्तियों की अपनी सूची में उन्हें हमेशा ऊंचे पायदान पर रखती रही है. 2014 में उन्हें 15वें स्थान पर रखा था और 2015, 16, 18 में 9वें स्थान पर रखा.
विदेशी कॉर्पोरेट पुरस्कारों में आप कोटलर अवार्ड और अब ‘सेरावीक अवार्ड’ को गिन सकते हैं. ‘सेरावीक’ हर साल एक सप्ताह चलने वाले सम्मेलन का नाम है, जिसे लेखक और तेल-गैस-ऊर्जा मामलों के विशेषज्ञ डेनियल येरगीन आयोजित करते हैं और जो इन क्षेत्रों की एक कंसल्टेन्सी है. मासाचुसेट्स से काम करने वाली इस कंसल्टेन्सी का नाम कैम्ब्रिज एनर्जी रिसर्च एसोशिएट्स (सेरा) है.
छोटी-सी बात यह है कि तमाम तरह की विदेशी संस्थाओं आदि से मिलने वाली वाहवाही और सम्मान अगर स्वीकार्य है, तो आलोचना पर इतना रोष क्यों? भारत और इसके वर्तमान नेतृत्व की लोकप्रियता और ऊर्जा की दुनिया तारीफ करती है. यहां तक कि मैडम तुसाद ने मोदी की मोम की मूर्ति भी स्थापित कर दी है. लेकिन वही दुनिया लोकतांत्रिक भारत से कुछ अपेक्षाएं रखती है. और जब उसे वे अपेक्षाएं पूरी होती नहीं दीखतीं तो वह शिकायत करती है. उसकी शिकायत पर ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि इसके लिए उस पर वार किया जाए.
और मेहरबानी करके मुझे यह मत कहिए कि हालात इतने बुरे हैं तो आप यह लेख छाप कैसे रहे हैं? मैं इस तरह के लेख लिख और छाप पा रहा हूं, यह यही बताता है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हो गया है, हम अभी भी एक लोकतांत्रिक देश हैं. लेकिन खामियां गहरी होती जा रही हैं, वरना आप दिशा रवि को जेल में बंद नहीं देखते और डिजिटल समाचार मीडिया के लिए इतने सख्त नये नियम न लागू किए जाते.
अफसोस की बात यह है कि हम इन हालात से पहले भी गुजर चुके हैं. 1970 वाला ‘विदेशी हाथ’ 1980 के दशक में भी लौटा था जब राजीव गांधी की मुश्किलें बढ़ गई थीं और उन्होंने इन विदेशी दुष्प्रचारों को ‘नानी याद दिलाने’ वाला सबक सिखाने की चेतावनी दी थी जिसे वे कभी नहीं भूलेंगे.
1990 के दशक में तो हालात और भी बुरे हो गए थे, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, फाउंडेशनों, और सरकारों की ओर से निरंतर हमले हो रहे थे. याद रहे, उसी दौरान अमेरिकी उप विदेश मंत्री रॉबिन राफेल ने जब यह संकेत किया था कि भारत में कश्मीर के विलयनामा को अंतिम नहीं माना जा सकता, तब उन पर जम कर हमले किए गए थे कि यह कहने की उनकी हिम्मत कैसे हुई?
वहां से चल कर हम आज यहां पहुंचे हैं कि अमेरिका हमारा ‘स्वाभाविक रणनीतिक सहयोगी’ है. यह सहयोग ‘क्वाड’ के रूप में विकसित हो रहा है. पांच आला देशों के इस समूह में भारत भी कभी शामिल होने की उम्मीद कर रहा है. वादा किया जा रहा है कि हमारी अर्थव्यवस्था उम्मीद से पहले 5 ट्रिलियन डॉलर वाली बन जाएगी. महत्वाकांक्षा वैश्विक आर्थिक, रणनीतिक और नैतिक महाशक्ति, विश्वगुरु बनने की है. लेकिन हम इतने तुनुकमिज़ाज बन जाते हैं कि जरा-सी असहमति या आलोचना के संकेत भी हमें बर्दाश्त नहीं होते. खुद को ही नीचा दिखाने की और क्या परिभाषा हो सकती है?
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S gupta g aaap sarkar ka fever kerne lage hai hum aapko saaaalon se read jeete aaye hai
Maidaaan me khull ker sarkkar ko devour karo
Doubling is not right
तुनकमिज़ाजी नहीं, कांग्रेस की दलाली और आप तो दलालश्रेष्ठ हैं। दलाली छोड़ो, पत्रकारिता करो, लेकिन यह आपके वश का नहीं, क्योंकि स्वभाव ही राजमाता के दरबार में पूंछ हिलाने का है।