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Monday, 29 April, 2024
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मोदी और 600 वकील न्यायपालिका की ‘रक्षा’ के लिए एकजुट, लेकिन धमकी कौन दे रहा है? ज़रा गौर कीजिए

‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ के बारे में मोदी का ज़िक्र हमें 1970 वाले दशक में ले जाता है जब इंदिरा गांधी की सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के पद पर वरिष्ठतम जज को नियुक्त करने की मान्य परंपरा का दो बार उल्लंघन किया था.

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देश की उच्चतर न्यायपालिका को लेकर पिछले दिनों काफी गहमागहमी रही. सबसे पहले तो बार काउंसिल के 600 वकीलों (हरीश साल्वे सहित) के दस्तखत से देश के मुख्य न्यायाधीश के नाम एक पत्र भेजा गया जिसमें न्यायपालिका को ऐसे समय में पूरा समर्थन देने की पेशकश की गई जबकि कुछ पार्टियां न्यायपालिका को कमज़ोर करने के मकसद से उस पर करारा हमला कर रही हैं.

इस कदम को आम तौर पर बार में चलने वाली राजनीति का हिस्सा माना जा सकता है, क्योंकि कुछ राज्यों (खासकर पश्चिम बंगाल) में बार काउंसिल के चुनाव पार्टियो के चुनाव चिह्न पर लड़े जाते रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसकी कई बार हिमायत भी कर चुके हैं. उन्होंने न्यायपालिका को समर्थन ज़ाहिर करने वाले उपरोक्त पत्र को साझा भी किया, जिसमें वकीलों ने चिंता जताई है कि न्यायपालिका खतरे में है और जिसमें उन्होंने एक दिलचस्प टिप्पणी भी की है — 50 साल पहले कांग्रेस ने “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” की मांग की थी.

यह हमें 1973 और 1977 के दौर में ले जाता है, जब इंदिरा गांधी की सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के पद पर वरिष्ठतम जज को नियुक्त करने की मान्य परंपरा का दो बार उल्लंघन किया था. दोनों नियुक्तियां राजनीति से प्रेरित थीं और उनके पीछे राजनीतिक मकसद साफ तौर पर दिख रहा था. दरअसल, दोनों नियुक्तियां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उस गहमागहमी भरे दशक में जारी किए गए अहम फैसले से जुड़ी थीं.

पहला मामला अप्रैल 1973 का है, जब तीन वरिष्ठतम जजों — जयशंकर मणिलाल शेलत, ए. एन. ग्रोवर, के.एस. हेगड़े — को लांघकर (किनारे करके) अजित नाथ राय को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया. उक्त तीनों जजों ने इस्तीफा दे दिया. यह मामला केशवनंद भारती मामले में सुनाए गए फैसले से जुड़ा था. 13 जजों की पीठ ने 7-6 के बहुमत से फैसला सुनाया था कि संविधान का एक बुनियादी ढांचा है. राय उन छह जजों में थे जिन्होंने इससे इनकार किया था. जिन तीन जजों को किनारे किया गया था उन्होंने बुनियादी ढांचे के सिद्धांत को मान्य किया था, जिसके लिए भारतीयों की तमाम पीढ़ियों को उनका कृतज्ञ होना चाहिए.

दूसरा मामला जनवरी 1977 का है, जिसके चंद दिनों बाद इमरजेंसी को वापस ले लिया गया था, लेकिन इंदिरा गांधी सबसे ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले जज को सजा दिए बिना छोड़ने वालीं नहीं थीं. इस बार जस्टिस एच.आर. खन्ना को किनारे करके एम.एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया. खन्ना ने इस्तीफा दे दिया. उन्होंने 1973 में ही दिए जा चुके संकेत को समझ लिया होगा. वे केशवानंद भारती मामले में फैसला सुनाने वाले बहुमत वाले सात जजों में शामिल थे. इससे भी अहम बात यह है कि निंदनीय इमरजेंसी वाले दौर में बंदी प्रत्यक्षीकरण से जुड़े जिस मशहूर ‘एडीएम जबलपुर मामले’ में पांच जजों की पीठ ने चार के बहुमत से नागरिक स्वाधीनताओं में कटौती करने के इंदिरा सरकार के फैसले का समर्थन किया था उससे असहमति केवल जस्टिस खन्ना ने दर्ज कराई थी. खन्ना मुख्य न्यायाधीश तो नहीं बने, लेकिन भारतीय न्यायाधीशों में शायद सबसे बड़े ‘आइकॉन’ बनकर उभरे.

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श्रीमती गांधी का सत्तातंत्र जजों को अपनी समाजवादी धारा के, जिसे उनके मतदाताओं का समर्थन हासिल था, प्रतिकूल मानता था. उनकी अंदरूनी मंडली सोवियत शैली वाला कट्टर वामपंथी झुकाव रखती थी. इसलिए उनका मानना था कि भारत को ऐसे जजों की ज़रूरत थी जिनमें जनता की इच्छा को लागू करने के उनके प्रयासों की समझ हो.

इस दृष्टि से जजों को एक निर्वाचित सरकार द्वारा शासन की “लोकप्रिय” शैली के प्रति “प्रतिबद्ध” होना चाहिए था. माना जाता है कि “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” का विचार सबसे पहले पेश करने का श्रेय दिवंगत मोहन कुमारमंगलम को दिया जाता है जिन्हें इंदिरा मंत्रिमंडल में शामिल एकमात्र कम्युनिस्ट नेता माना जाता था. तानाशाहों की एक खब्त यह होती है कि तमाम संस्थाएं उनके हिसाब से “बिलकुल दुरुस्त” हों क्योंकि वे मानते हैं कि केवल वे ही संस्थाओ को जन्म दे सकते हैं और उनकी रक्षा कर सकते हैं. श्रीमती गांधी ने जजों को ‘सुपरसीड’ करके न्यायपालिका को ऐसी ही एक संस्था में तब्दील करना चाहा. प्रधानमंत्री मोदी 1973 में शुरू हुए इसी चलन का ज़िक्र कर रहे हैं.

इसके बाद तो यही सवाल उभरता है कि आज न्यायपालिका को दबाने की कोशिश कौन कर रहा है? प्रधानमंत्री का एक्स पर पोस्ट कांग्रेस की ओर ही इशारा कर रहा है. अगर ऐसा है, तो यही कहा जाएगा कि मात्र 52 लोकसभा सदस्यों वाली कांग्रेस अपनी हैसियत से तीन गुना, चार गुना ज्यादा ताकत जता रही है.


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लोकतंत्र में “बिलकुल दुरुस्त” संस्था जैसी कोई चीज़ नहीं होती. इसलिए, भारतीय न्यायपालिका को भी बिलकुल दुरुस्त नहीं कहा जा सकता है, लेकिन क्या इन दिनों वह ज़रूरत से ज्यादा खोटी हो रही है? इस सवाल का जवाब इस पर निर्भर होगा कि आप ‘इन दिनों’ में किन दिनों को गिनते हैं. इसके साथ यह इस पर भी निर्भर करेगा कि आपकी ‘राजनीति’ क्या है?

उदाहरण के लिए अगर आप मोदी-भाजपा विरोधी हैं तब आप आप कहेंगे कि सुप्रीम कोर्ट 2010 से 2014 के बीच के घोटाले वाले यूपीए-2 दौर में रास्ते से भटक गया. उस दौर में हमारे ‘मी लॉर्ड’ तमाम प्रभावशाली आरोपी हस्तियों को दोषी ठहराने के आदेश जारी कर रहे थे, जिनमें कुछ बिलकुल मौखिक थे और वे टू-जी स्पेक्ट्रम जैसे ‘घोटाले’ की जांच की सीधी निगरानी कर रहे थे. उनके मौखिक आदेशों में इतना क्रोध भरा होता था कि कानून की ज्यादा समझ न रखने वाले हम जैसे लोगों को यह ज्ञान हो गया कि ‘ओबिटर डिक्टा’ (जज का आशय) जैसी चीज़ क्या होती है.

लेकिन चालू राजनीति की ज्यादा परवाह न करने वाले, मेरे जैसे क्रिकेटप्रेमी लोग यह सोच सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट बाद में अपने रास्ते से तब भटक गया जब उसने खुद को ‘ताकतवर पिता’ मानते हुए ‘बीसीसीआई’ को अपने हाथ में लेकर भारतीय क्रिकेट को संभालने का बीड़ा उठा लिया. (मैं अभी भी सच कहने से डर रहा हूं, लेकिन उसने उसे संभालने की जगह अंततः बिगाड़ने का ही काम किया). इसने भारतीय क्रिकेट के लिए तो कुछ नहीं किया, लेकिन कई रिटायर्ड जजों, नौकरशाहों और तीन सितारे वाले एक फौजी जनरल को मालामाल कर दिया.


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अगर आप भाजपा समर्थक हैं या भाजपा वाले हैं, तब आप बताइए कि आप ‘इन दिनों’ में किन दिनों को गिनते हैं. वकीलों के उपरोक्त पत्र और उसके समर्थन में प्रधानमंत्री के पोस्ट से तो यही लगता है कि ‘इन दिनों’ में आज के ही दिनों को गिना जाएगा.

क्या यह पत्र और उसका समर्थन गुमनाम चुनावी बॉन्ड पर दिए गए फैसले के कारण आया? यह एक कारण हो सकता है, हालांकि, जो खुलासे हुए हैं वे एकपक्षीय नहीं हैं. चुनावी बॉन्ड का लाभ हर दल को मिला और गोपनीयता बनाए रखने में सबकी मिलीभगत रही, लेकिन इससे कुछ अहम मुद्दे उभरे हैं, जैसे यह कि ‘एजेंसियों’ या रेगुलेटरों ने कंपनियों पर जो छापे मारे और जो कार्रवाई की गई उनके बीच क्या संबंध है और जो भुगतान किए गए उनका समय क्या था?

वकीलों के पत्र को इसलिए सावधानी से पढ़ें कि इसे लिखने के पीछे के कारण को समझ सकें. इसे बचाव की कार्रवाई के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि इसे तब भेजा गया है जब इसी समय चुनाव अभियान शुरू हुआ है, लेकिन इसे सत्तातंत्र का जोरदार समर्थन मिला है. पत्र में न्यायपालिका के अनाम ‘शत्रुओं’ का हवाला देते हुए ‘बेंच फिक्सिंग’ (अदालत की पीठ को खरीदने) के आरोप लगाए गए हैं, जजों को प्रभावित करने के लिए दिन में अदालत में बहसों का और शाम में टीवी समाचार चैनलों के डिबेट में प्रचार अभियान चलाने, चुनिंदा जजों और उनके फैसलों की आलोचना करने के आरोप लगाए गए हैं.

पत्र में एक वाक्य खास तौर पर दिलचस्प और रहस्यपूर्ण है, जिसमें वकीलों ने कुछ लोगों की राजनीतिक आलोचना की है मगर अदालतों में वे उनका बचाव करते हैं. आप चाहें तो खाली जगहों को भर सकते हैं. गौर कीजिए कि इन दिनों अदालतों में सबसे प्रमुख विपक्षी नेता कौन है और उसकी वकालत कौन कर रहा है? और क्या हमने कुछ राजनीतिक मुकदमेबाजों को कुछ बेंचों से अपना मुकदमा इस उम्मीद में वापस लेते देखा है कि प्रतिकूल जज कुछ समय बाद बदल जाएंगे? यह पत्र बहुत गहराई से सोचने-विचारने और बहस करने का मसाला जुटाता है, लेकिन एक बात तो बिलकुल साफ है कि इसे सरकार का पूरा समर्थन हासिल है.

सोच यह है कि न्यायपालिका गंभीर खतरे में है और वकीलों तथा कार्यपालिका की यह जमात उसकी ‘रक्षा’ करने को एकजुट है. अब सुप्रीम कोर्ट को फैसला करना है कि उसे अपने लिए खतरा महसूस हो रहा है या नहीं. अगर ऐसा है, तो ‘सत्तातंत्र से अलग इन तत्वों’ की ओर से यह खतरा क्या इतना गंभीर है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका की मदद की ज़रूरत पड़ेगी? तब, कहा जा सकता है कि यह परिदृश्य 50 साल पहले के उस परिदृश्य से उलटा है जब न्यायपालिका इंदिरा गांधी की कार्यपालिका से संघर्ष कर रही थी.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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