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Friday, 3 May, 2024
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बीजेपी की रणनीति पर गौर कीजिए, 2024 नहीं बल्कि 2029 की तैयारी कर रही है

‘माइलेज’ वाले नेता मानते हैं कि वे उम्र आदि की सीमाओं से ऊपर हैं, मसलन शी जिनपिंग, बाइडन, ट्रंप, एर्दोगन या पुतिन को ही देख लीजिए. तो फिर मोदी 75 की उम्र के बाद भी प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने रह सकते?

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अगर मैं यह कहूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस गति से यात्राएं, उद्घाटन और शिलान्यास कर रहे हैं, और दूरदराज की जगहों में भाषण देते घूम रहे हैं वे सब यही संकेत दे रहे हैं कि उन्होंने चुनाव अभियान शुरू कर दिया है, तो आप निश्चित रूप से यही सवाल करेंगे कि इसमें बड़ी बात क्या है? क्या हमें यह नहीं मालूम है कि चुनाव अभियान शुरू हो चुका है? आखिर, चुनाव के कुछ हफ्ते ही तो बाकी रह गए हैं!

आपका सवाल जायज है, सिवाय इसके कि हम जिस अभियान की बात कर रहे हैं वह 2024 का चुनाव अभियान नहीं है. इस चुनाव के नतीजे पर दस्तखत, सीलबंद करके तो मोदी-शाह की भाजपा ने अपने लॉकर में रख ही दिया है. इसलिए, हम 2029 के चुनाव अभियान की बात कर रहे हैं. इसकी वजह केवल यह है कि भाजपा के दो दिग्गज नेताओं के सार्वजनिक बयान इसके प्रमाण हैं.

पहले, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दरभंगा में बयान दिया कि देश से गरीबी मिटाने के लिए मतदाता नरेंद्र मोदी को केवल तीसरी बार नहीं बल्कि चौथी बार भी चुनने का संकल्प लें. इसके बाद, गृह मंत्री अमित शाह ने एक मीडिया सम्मेलन में कहा कि विपक्ष को अब 2034 के बाद के लिए अपनी तैयारी करनी चाहिए.

इन दोनों बयानों को जोड़ दीजिए तो इसका अर्थ यही निकलेगा कि 2029 में, मोदी अभूतपूर्व रूप से लगातार चौथी बार चुनाव लड़ेंगे. आपमें से जो लोग अभी भी यह माने बैठे हों कि भाजपा में 75 की उम्र को सेवानिवृत्ति की उम्र मानने का नियम चलेगा, वे जरा गौर कर लें कि हेमा मालिनी को 75 की उम्र में मथुरा से तीसरी बार चुनाव उम्मीदवार बनाया गया है.

आप भाजपा वालों से जब इस बारे में सवाल करेंगे तो वे उलटे आपसे यही सवाल करेंगे कि ‘आपसे किसने कहा कि भाजपा में कोई उम्र सीमा तय की गई है?’ बहरहाल, 75 की उम्र में हेमा मालिनी को चुनावी टिकट साफ संकेत करता है कि 75 की उम्र को कोई ‘कट-ऑफ’ उम्र नहीं बनाया गया है. अगर वे इस उम्र में चुनाव लड़ सकती हैं तो 79 की उम्र में मोदी (2029 में उनकी यही उम्र होगी) चुनाव लड़ें तो भला किसे आपत्ति हो सकती है? अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की आज जो उम्र है उससे तो तब मोदी दो साल छोटे ही होंगे, और डोनाल्ड ट्रंप से दो साल बड़े होंगे. अगर इनमें से कोई एक नेता इस पकी उम्र में अमेरिका का राष्ट्रपति बन सकता है, तो मोदी यहां प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते?

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वैसे भी, राजनीति में उम्र की सीमा कब लागू हुई है? यहां तक कि चीन में भी, जहां कम्युनिस्टों ने युवा नेतृत्व की खातिर उम्र सीमा का जो सख्त नियम लागू किया था उसे शी जिनपिंग की खातिर बदल दिया. यहां पर मुझे आपको 2007 की फिल्म ‘जॉनी गद्दार’ में धर्मेंद्र के शानदार किरदार के बारे में बताने का लोभ हो रहा है. इस फिल्म में उन्होंने तीन ठगों में से एक ठग की भूमिका निभाई है. उसका एक साथी जब चकित होकर पूछता है कि इस उम्र में भी वह ‘इतने बुरे काम’ कैसे कर रहा है तो उसका जवाब होता है कि ‘यह उम्र की बात नहीं है, माइलेज का मामला है’.

‘माइलेज’ वाले नेता मानते हैं कि वे हमेशा बने रह सकते हैं. शी, बाइडन, ट्रंप को देखिए! एर्दोगन और पुतिन तो आगे बढ़ ही रहे हैं, और अब मोदी को लेकर हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं. निश्चित मानिए कि 2029 में आप मोदी को अपनी चौथी पारी के लिए चुनाव प्रचार करते देख सकते हैं.

राजनाथ सिंह और अमित शाह के बयानों से ज्यादा, प्रमाण इन तथ्यों में मिलेगा कि मोदी आज कहां-कहां और किस तरह प्रचार कर रहे हैं और क्या कुछ कह रहे हैं. उदाहरण के लिए देखिए कि वे तमिलनाडु और केरल को कितना समय और कितनी ऊर्जा दे रहे हैं.

तमाम संशयवादी लोग और डीएमके के नेता भी अनौपचारिक बातचीत में कबूल कर रहे हैं कि भाजपा वहां अपने बूते भले कोई सीट न जीते मगर उसका वोट प्रतिशत काफी बढ़ सकता है. कुछ लोग तो उसे 15-17 प्रतिशत वोट मिलने की बातें भी कर रहे हैं. इस बार उसे भले कोई सीट न मिले मगर एक बार जब आप एक दायरे में आ जाते हैं और आपने गति पकड़ ली है तब 2029 में खेल जरूर कर सकते हैं.

भारत में परिवार केंद्रित दलों का इतिहास कहता है कि परिवार की तीसरी पीढ़ी तक आते-आते वे अपनी काफी शक्ति गंवा चुके होते हैं. उदाहरण के लिए आप कांग्रेस (नेहरू-गांधी परिवार) से शुरू करके बाकी दलों को इस सूची में शामिल कर सकते हैं. तो क्या उदयनिधि के नेतृत्व में डीएमके अपवाद साबित होगी?

बाकी दलों का जो हाल हुआ है उस पर भाजपा नजर डाले तो उसे तमिलनाडु में अपने लिए काफी जगह बनती दिखेगी, खासतौर से इस तथ्य के मद्देनजर कि द्रविड़वाद की दूसरी दावेदार एआइडीएमके टूट चुकी है और पस्त हो चुकी है.

डीएमके के समर्थकों का कहना है कि बात केवल परिवार की नहीं बल्कि विचारधारा की है, जो व्यक्ति से परे भी कायम रहेगी. लेकिन भारतीय राजनीति में अब तक तो ऐसा नहीं हुआ है. विचारधारा को तो छोड़िए, धर्म भी परिवारों के पतन को रोक नहीं पाया है. भारत में धर्म पर आधारित एकमात्र दल, शिरोमणि अकाली दल को देख लीजिए. इसका संविधान कहता है कि इसका अध्यक्ष वही बन सकता है जिसने सिख धर्म को अपनाया हो. देखिए कि जब यह परिवार केंद्रित दल नहीं था तब क्या था, और आज परिवार की दूसरी पीढ़ी के नेतृत्व में यह किस हाल में है. इसलिए, मोदी आज तमिलनाडु में जो अभियान चला रहे हैं उसे हम 2029 के लिए तैयारी के रूप में, और मोदी भाजपा को तब वहां कम-से-कम दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में देख रहे हैं.

केरल मोदी के लिए दूसरा अवसर प्रस्तुत कर रहा है. गौर कीजिए कि भाजपा वहां के ईसाई समुदाय की ओर किस तरह लगातार अपना हाथ बढ़ा रही है. इस समुदाय का सुनिश्चित वोट कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ की राजनीति का आधार है. लेकिन यूडीएफ के दूसरे वोट बैंक, मुस्लिम समुदाय और ईसाई समुदाय के बीच पुराने संदेह कायम हैं.

अगर कुछ ईसाई वोट भाजपा की ओर गए, तो मुस्लिम वोट वाम दलों की ओर मुड़ सकते हैं क्योंकि वे कांग्रेस/यूडीएफ को कमजोर होते देख रहे हैं. तब भाजपा के लिए काफी जगह बन जाएगी. इसी उम्मीद में मोदी वहां अपना अभियान चला रहे हैं और उन नेताओं को अपने साथ ले रहे हैं, जिन्हें कांग्रेस में होने की उम्मीद की जाती थी. मसलन, कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों, ए.के. एंटनी और के. करुणाकरन के क्रमशः बेटे और बेटी. सो, मोदी केरल में 2029 के लिए अभियान चला रहे हैं.

भाजपा जिस तरह ताबड़तोड़ गठबंधन बना रही है उस पर गौर कीजिए. इनमें दीर्घकालिक रणनीति दिखेगी. आज भाजपा उन दलों को अपने साथ जोड़ रही है जो पहले से ही पतनशील हैं और सौदेबाजी में कमजोर पड़ते हैं, जिनके पतन को और तेज किया जा सकता है और भाजपा उनकी जगह पर काबिज हो सकती है.

इस रणनीति को निरपवाद रूप से स्पष्ट करने के लिए हम आपको पूरी सूची पेश कर सकते हैं. भाजपा ने असम में 2016 में असम गण परिषद (एजीपी) और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के साथ गठबंधन करके चुनाव जीता, और बाद में बीपीएफ का पत्ता काट कर दूसरी जनजातीय पार्टी, प्रमोद बोरो के नेतृत्व वाली यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपी-एल) को साथी बना लिया. 2022 में, काफी कमजोर हो चुकी बीपीएफ इस गठबंधन में वापस आई, जबकि एजीपी भी अपने मूल स्वरूप की छाया भर रह गई है.

ऐसा ही बिहार में भी हुआ. भाजपा ने नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए चिराग पासवान का इस्तेमाल किया (विधानसभा चुनाव में चिराग ने खुद को मोदी जी का हनुमान बताते हुए जद-यू के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए थे). और अब भाजपा जद-यू के सांसदों को तोड़ने में लगी थी, तो नीतीश के पास फिर से दलबदल करके वापस लौटने के सिवाय कोई उपाय नहीं रह गया था. जो भी हो, अगले आम चुनाव में वे और कमजोर होकर ही सामने आएंगे.

गठबंधन का यही खेल आंध्र प्रदेश और हरियाणा में भी चल रहा है. आंध्र में, कमजोर हो चुकी टीडीपी 2029 में परिवार की तीसरी पीढ़ी के नेतृत्व में और ज्यादा कमजोर ही पड़ने वाली है. हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की जेजेपी तो लगभग खत्म ही हो चुकी है. और महाराष्ट्र में भी, पुरानी सहयोगी शिवसेना दो टुकड़े हो चुके हैं जबकि नये सहयोगी, एनसीपी से टूटे घटक का भाजपा के बिना कोई भविष्य नहीं है.

इन तमाम बातों का कुल जमा जोड़ आपको स्पष्ट कर देगा कि हम यह क्यों कह रहे हैं कि 2029 के लिए मोदी-भाजपा का चुनावी अभियान शुरू हो चुका है. अब विपक्ष क्या करेगा? यह जानने के लिए इस कॉलम पर आगे भी नजर रखे रहिए.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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