यह कॉलम जिस सप्ताह में लिखा जा रहा है उसमें राजनीतिक महत्व की दो बड़ी घटनाओं की वर्षगांठ मनाई जाती है. इस सप्ताह एक तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरे हो रहे हैं; दूसरे, राजीव गांधी की हत्या के 30 साल पूरे हो रहे हैं. ये दो मौके ऐसे हैं जब देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस के खासकर 2024 की गर्मियों तक के भविष्य पर विचार किया जा सकता है. हम बीते हुए की बात नहीं करेंगे. म्यूचुअल फंड की तरह राजनीति में भी अतीत भविष्य का सही संकेत दे, यह जरूरी नहीं है.
इन दो प्रतिद्वंद्वियों का भविष्य एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है. हमें मालूम है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद तीसरे दशक में राष्ट्रीय राजनीति में उनकी पार्टी की हैसियत दौड़ में सिर्फ भाग लेने वाले फिसड्डी प्रतियोगी जैसी रह गई है. 2014 और 2019, दोनों के लोकसभा चुनावों में वह जिन सीटों पर भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी उनमें से करीब 90 प्रतिशत सीटों पर हार गई. ऐसे में आपका यह सवाल वाजिब हो सकता है कि भाजपा के भविष्य के बारे में आकलन करते समय कांग्रेस के भविष्य की बात भी क्यों की जाए.
उसकी बात करने की पहली वजह यह है कि कांग्रेस भले 92-8 से हार गई हो, इसके बावजूद दौड़ में वही भाजपा के सबसे करीब थी. दूसरे, मोदी और अमित शाह की भाजपा ने अगर करीब 38 फीसदी वोट हासिल किए, तो कांग्रेस को 20 फीसदी वोट मिले. यानी भाजपा से आधे. तो क्या हो गया?
कांग्रेस की बात करने की एक वजह यह भी है कि देश में किसी और दल को दहाई अंकों में वोट नहीं मिले. और इससे भी क्या फर्क पड़ जाएगा अगर मैं यह बताऊं कि एनडीए के सहयोगियों समेत कोई भी तीन दल ऐसे नहीं थे जिनके कुल वोटों को जोड़ दें तो आंकड़ा दहाई अंक को छूता हो.
इसके अलावा, अगर आप सभी गैर-कांग्रेस विपक्षी दलों—यूपीए के डीएमके, एनसीपी, आरजेडी जैसे सहयोगियों, जिन्हें 1 फीसदी से ज्यादा वोट मिले— के वोटों को जोड़ दें तो वह कांग्रेस को हासिल 20 फीसदी वोट के बराबर नहीं पहुंचता. इसकी तुलना में, भाजपा विरोधी प्रायः हर पार्टी ने अपने कुछ वफादार वोटरों को गंवाया.
यहां एक तर्क रखा जा रहा है. कांग्रेस 92-8 से भले फिसड्डी साबित हुई हो, देश की सत्ता की दौड़ में केवल वही दूसरे नंबर पर है, भले ही वह बहुत पीछे हो. मोदी और शाह पर गौर कीजिए, वे अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस को वे हल्के में नहीं ले सकते.
यही वजह है कि जिन राज्यों (पश्चिम बंगाल) में कांग्रेस का कोई दम नहीं है या जहां (केरल, तमिलनाडु) भाजपा का कोई वजूद नहीं है वहां भी वे कांग्रेस और गांधी परिवार पर सीधा हमला करते हैं. इसीलिए राहुल गांधी को ‘पप्पू’ साबित करने, सोनिया गांधी को विदेशी मूल का बताने, कांग्रेस के दलबदलुओं का शिकार करने, और कांग्रेस के भीतर असंतुष्टों के लिए दोस्ती जताने और आंसू बहाने के अभियान निरंतर जारी रहते हैं. याद कीजिए, गुलाम नबी आज़ाद को राज्यसभा से किस तरह विदाई दी गई थी.
मोदी और शाह को तीन बातें मालूम हैं—
– राष्ट्रीय स्तर पर केवल कांग्रेस ही उसे चुनौती दे सकती है.
– कांग्रेस का वोट प्रतिशत भाजपा के वोट प्रतिशत से ऊपर नहीं जाना चाहिए. अगर यह 20 से बढ़कर 25 प्रतिशत भी हो गया तो राष्ट्रीय राजनीति बदल जाएगी. भाजपा-एनडीए की सरकार तो रहेगी लेकिन वह गठबंधन की सरकार ज्यादा होगी. मोदी-शाह को चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. और तब संवैधानिक संस्थाएं भी इतनी कमजोर नहीं होंगी.
– कि गांधी परिवार ही कुंजी है. वह कांग्रेस को एकजुट रख सकता है. इसलिए उसके ऊपर बेरहमी से हमला करते रहने की जरूरत है.
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मैं यह नहीं कर रहा कि कांग्रेस या गांधी परिवार को यह सब नहीं मालूम है. वे मोदी-शाह की भाजपा को हल्के में शायद इसलिए लेते हैं कि वे उसके प्रति तिरस्कार का भाव रखते हैं और शायद वे यह नहीं पचा पा रहे कि वह इतने बड़े अंतर से क्यों जीतती है. कांग्रेस के सोच में तीन मुख्य खामियां हैं—
– कि नरेंद्र मोदी का उत्कर्ष एक अस्थायी भटकाव है. वोटरों का विवेक जल्द ही लौटेगा. 2019 में तो कांग्रेस पुलवामा के कारण चूक गई, लेकिन अब महामारी और आर्थिक गिरावट भाजपा को ले डूबेगी.
– कि भाजपा की सबसे दुखती रग, जिसे हम भारतीयकरण की खातिर ‘रामायण’ का संदर्भ देते हुए रावण की नाभि कह सकते हैं, आरएसएस और उसकी विचारधारा है. विचारधारा तो अमूर्त चीज है, वास्तविक चीज तो हैं व्यक्ति. कांग्रेस अपने सीमित हथियार आरएसएस, गोमूत्र-गोबर पहेली, सावरकर-गोलवलकर पर हमले करने में बरबाद करती रही है. भाजपा नेहरू-गांधी वंश पर हमले करती रही है, मगर कांग्रेस के पूर्व तथा कुछ वर्तमान नेताओं के बारे में अच्छी-अच्छी बातें करती रही है.
– कि कांग्रेस का भविष्य अब धुर वामपंथ में है. यही वजह है कि वह वाम मोर्चा से हाथ मिला रही है, और केरल विधानसभा चुनाव में उसे सिफर हासिल हुआ, जबकि उसे इस राज्य को जीतना था. वह पश्चिम बंगाल में कुछ सीटें जीत सकती थी. कुछ सीटें शून्य से तो बेहतर ही होतीं. लेकिन यह कांग्रेस और खासकर इसके युवा नेता कम्युनिस्टों पर फिदा हैं. सबूत के लिए उन्हें देखिए जो उसके सोशल मीडिया को संभालते हैं, और किस तरह संभालते हैं!
अभी तो मौसम ममता बनर्जी और उनकी टीएमसी का है. मोदी-शाह के विरोधी उन्हें अपनी हीरोइन के रूप में देखते हैं. लेकिन राजनीति में जीत की उम्र हार के मुक़ाबले छोटी और समय से बंधी होती है. राजनीति उनकी कहानी को जल्दी ही भुला देगी. मेरे बुद्धिमान सहयोगी, ‘दप्रिंट’ के राजनीतिक संपादक डी.के. सिंह बताते हैं कि 2024 के बड़े चुनाव से पहले 16 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होंगे. अगले ही साल सात राज्यों— उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में फरवरी-मार्च में; गुजरात और हिमाचल प्रदेश में अक्तूबर-दिसंबर 2022 में— की विधानसभाओं के चुनाव होंगे. 2023 में नौ राज्यों—मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा में फरवरी में; कर्नाटक में मई में; इसके बाद अगुआ राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना तथा मिजोरम में दिसंबर में चुनाव होंगे.
इनमें उत्तर प्रदेश को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में कांग्रेस ही भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी होगी. इनमें थोड़ी कामयाबी भी पार्टी में जान डाल सकती है और तब वह 2024 में अधिक भरोसेमंद प्रतिद्वंद्वी के रूप उभर सकती है. लेकिन हार हुई तो इसमें टूट आ सकती है.
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यह कहना आसान है कि कांग्रेस अपने समर्थकों को निराश कर रही है. एनडीटीवी के ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में एक इंटरव्यू में ओम प्रकाश चौटाला ने राजनीति के बारे में मुझे उपदेश दिया था कि ‘यह धरम-करम या तीर्थयात्रा नहीं है. यह सत्ता के लिए है.’
आगे, यह कहना बेमानी है कि काश, गांधी परिवार अलग हो जाए और पार्टी को किसी नए नेता के हाथ में सौंप दे; या कम-से-कम राहुल ही हट जाएं. आप यह सब 178 बार कह डालिए, मगर यह होने वाला नहीं है. कांग्रेस की जो हकीकत है उसे मोदी-शाह ने तो समझ लिया है मगर उसके कई समर्थक नहीं कबूल कर पाते हैं, कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस रहेगी नहीं. आज वह 20 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं हासिल कर पा रहा है लेकिन पार्टी को एकजुट रखे हुए है. भाजपा का गुरुत्वाकर्षण केंद्र आरएसएस है जिसे आप पसंद करें या नफरत करें, वह एक संस्था है. कांग्रेस एक ही खंभे पर खड़ी है, जिसका नाम है गांधी परिवार.
लेकिन राजनीति हमेशा एक घोड़े वाली घुड़दौड़ नहीं होती. क्या तीसरी बार सत्ता हासिल करने की मोदी की कोशिश को ज्यादा चुनौतीपूर्ण बनाया जा सकता है? अगर बनाया जा सकता है, तो कौन बनाएगा? और कैसे बनाएगा?
तीसरा, चौथा, सेकुलर, प्रगतिशील… तरह-तरह के मोर्चे अब तक आजमाए जा चुके हैं. वे नाकाम रहे और भविष्य के लिए बुरी मिशाल बन गए. 1967 के संयुक्त विधायक दल से लेकर वी.पी. सिंह के जन मोर्चा, संयुक्त मोर्चा तक कई महागठबंधनों की सूची तैयार की जा सकती है जिनमें दिहाड़ी पर प्रधानमंत्री बनते दिखे.
फिर भी, दूसरे तर्क दिए जा सकते हैं. क्षेत्रीय नेता 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे दिग्गज नेता को हराने में मददगार बनते हैं. वे विपक्ष को अतिरिक्त वोट दिलवा सकते हैं. 2019 में यूपीए ने एनडीए के 44 फीसदी वोटों के मुक़ाबले 26 फीसदी वोट हासिल किए. क्या हो अगर अधिक सहयोगी मिलकर वोटों का अनुपात क्रमशः 32 और 36 फीसदी पर ला दें?
कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों की जमात को अगर हम ‘मोदी पीड़ित समाज’ कहें, तो उसके लिए एक और विकल्प है. एक ऐसी कंपनी की कल्पना कीजिए जिसके ब्रांड की पुरानी पहचान हो और पुराने वफादार ग्राहकों की जमात भी हो मगर वह नये प्रतिद्वंद्वियों से मात खा रही हो. तो वह क्या करेगी? वह कहीं से एक नया सीईओ ले आएगी. कांग्रेस में तो ऐसा नहीं हो सकता. क्या बड़े विपक्षी गठबंधन में, जिसकी धुरी कांग्रेस हो, ऐसा हो सकता है? कांग्रेस अपने नेताओं के करिश्मे के रूप में तो योगदान नहीं दे सकती मगर अपने वफादार ग्राहकों के 20 फीसदी के आधार का लाभ तो दे ही सकती है.
अगर ऐसा कोई विचार उभरता है, तो ममता बनर्जी और उनके सरीखे दूसरे नेता मुक़ाबले में आ सकते हैं. इसका अर्थ यह भी होगा कि कांग्रेस को राज करने वाली पार्टी होने का अपना मोह छोड़ना पड़ेगा. यह कष्टप्रद होगा मगर यह नामुमकिन नहीं है. न ही यह उन लोगों की एक हवाई कपोलकल्पना है, जो चाहते हैं कि गांधी परिवार मंच से दूर रहे.
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