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Saturday, 20 September, 2025
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टजब भारत जंग में पाकिस्तान को वॉकओवर नहीं देता, तो क्रिकेट में क्यों दें?

जब भारत जंग में पाकिस्तान को वॉकओवर नहीं देता, तो क्रिकेट में क्यों दें?

अपने ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट का पाकिस्तान के गोल्ड मेडलिस्ट से होड़ लेने पर शांत रहने और पाकिस्तान के साथ एक सामान्य क्रिकेट टूर्नामेंट खेलने पर तूफान खड़ा करने का पाखंड तीन बातें उजागर करता है.

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हमें मालूम है कि ऑपरेशन सिंदूर अभी खत्म नहीं हुआ है. वैसे, सीमाओं पर शांति है. दुश्मनी सीमाओं से हट कर क्रिकेट के क्षेत्र में शुरू हो गई है, भले ही वह उसके मैदान से अलग हो. दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, तीसरी सबसे बड़ी सेना और सबसे विशाल आबादी वाले देश ने आतंकवाद के खिलाफ जो जंग शुरू की थी उसका फैसला अब इस बात से हो रहा है कि वह पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेले कि न खेले.

यह कॉलम न तो क्रिकेट के बारे में है, न खेलों के बारे में है, और न ही भारत-पाकिस्तान रिश्ते के बारे में है. वास्तव में यह हमारे भारी पाखंड की ओर ध्यान दिलाने की घृष्ट नहीं, बल्कि एक विनम्र कोशिश है.

इस पाखंड को उजागर करने के लिए मैं आपको टोक्यो के विशाल नेशनल स्टेडियम लेकर चलता हूं, जहां विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप की भाला फेंक प्रतियोगिता में पहुंचे 12 खिलाड़ियों में इस उपमहादेश के चार एथलीटों (दो भारतीय, एक पाकिस्तानी और एक श्रीलंकाई) के बीच पहला ऐतिहासिक मुक़ाबला हो रहा है.

उस पूरे दिन, खासकर जब भाले फेंके जा रहे थे उस समय सोशल मीडिया पर क्या कुछ चल रहा था उस सब पर अगर आपने ध्यान दिया होगा तो पाया होगा कि उस पर कुछ भी ‘ट्रेंड’ नहीं हो रहा था. नीरज चोपड़ा और सचिन यादव पाकिस्तान के अरशद नदीम से मुक़ाबला कर रहे थे और इस पर कोई गुस्सा नहीं जाहिर किया जा रहा था.

यह हमें कुछ सोचने का मसाला देता है. ओलंपिक खेल 1896 में एथेंस में शुरू हुए थे, तबसे 130 साल बीत चुके हैं लेकिन दो अरब या दुनिया की एक चौथाई आबादी वाला यह उपमहादेश केवल तीन व्यक्तिगत ओलंपिक गोल्ड मेडल जीत पाया है. यह कोई छापे की गलती नहीं है. इन तीन खिलाड़ियों में से दो हैं नीरज चोपड़ा और अरशद नदीम, जो पिछले दिनों टोक्यो में फाइनल मुकाबलों में पहुंचे थे.

सबसे पहले तो आपने उम्मीद की होगी कि इन खेलों में लोगों ने काफी दिलचस्पी ली होगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. उन्माद केवल इस बात को लेकर था कि भारत को पाकिस्तान के साथ खेलना चाहिए या नहीं. मैंने पाकिस्तानी मीडिया और सार्वजनिक बहसों पर भी नजर डाली. उनके लिए तो उनका ओलंपिक गोल्ड मेडलिस्ट और वर्ल्ड रेकॉर्ड होल्डर अपने सबसे बड़े भारतीय प्रतिद्वंद्वी से भिड़ने जा रहा था! लेकिन उनमें कोई खास खलबली नहीं थी. दरअसल, हमारा उन्माद केवल क्रिकेट को लेकर उभरता है.

मैं कहूंगा कि एक तरह से यह अच्छा भी है. पहलगाम कांड के शिकार जबकि अभी भी शोकग्रस्त हैं, तब राहत की बात है कि इंटरनेट और टीवी चैनलों वाली भीड़ सेना के जेसीओ नीरज चोपड़ा को पाकिस्तानी खिलाड़ी से मुक़ाबला करने पर परेशान नहीं कर रही थी. क्रिकेट और एथलेटिक्स मुकाबलों को लेकर भावनाओं के उबाल में जो अंतर है उसकी एक वजह यह भी है कि हम क्रिकेट के दीवाने हैं, और यह वजह भी छोटी ही है. बाकी वजह या मुख्य मकसद तो सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं को उकसाने का शगल है, जिसे ‘एंगेजमेंट फ़ार्मिंग’ कहा जाता है. इस मामले में, 24 घंटे उन्माद बढ़ाने के लिए क्रिकेट का खेल ओलंपिक की किसी प्रतियोगिता के मुक़ाबले कहीं ज्यादा मुफीद साबित होता है.

इस मामले में मुझे सबसे ज्यादा याद उन प्रमुख लोगों, खासकर उन पत्रकारों की आती है जो पहलगाम कांड के शिकार हुए लोगों का अंतिम संस्कार करते उनके पिताओं या बिलखती विधवाओं के चित्र पोस्ट करते हुए सवाल करते हैं कि क्या पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेल कर हम इन लोगों को न्याय दिला रहे हैं? इस पर मेरा सवाल है कि क्रिकेट न खेल कर और पाकिस्तान को मैच जीत सौंप कर क्या हम उन्हें न्याय दिला पाएंगे?

क्या हमने अपनी वायुसेना, थलसेना और नौसेना की संयुक्त भीषण आक्रामक शक्ति का प्रयोग करके उन्हें न्याय नहीं दिया? बशर्ते आप कई मूर्ख पाकिस्तानियों की तरह यह न सोचते हों कि जेश और लश्कर के ध्वस्त मुख्यालय, दर्जन भर पाकिस्तानी हवाई अड्डों के विध्वंस, जलाए गए पाकिस्तानी रडारों की कोई गिनती नहीं है. आतंकवाद के खिलाफ जंग में हमारी सेना ने क्या नहीं हासिल किया है या आगे जरूरत पड़ने पर क्या नहीं हासिल कर सकती है, जो भारतीय क्रिकेट हासिल कर सकती है?

खेलों के प्रति हमारी भावना एकेश्वरवादी है, क्रिकेट ही हमारा एकमात्र ईश्वर है. इस मामले में पवित्र आक्रोश जीतने से ज्यादा खेलने या बायकॉट करने को लेकर उभरता है.

सोशल मीडिया न होता तो आप इसे बचकानी प्रवृत्ति मान कर खारिज कर सकते थे. फर्क यह है कि यह प्रवृत्ति टीवी पर होने वाली बहसों पर भी हावी रहती है. दोनों तरफ प्राइम टाइम की हर बहस में यह ज्यादा से ज्यादा विद्वेषपूर्ण और कड़वा होती जाती है, जिनमें अपशब्दों का इस्तेमाल किया जाता है और सीधे-सीधे सांप्रदायिक आरोप तक उछाले जाते हैं.

उदाहरण के लिए, अब तबलीगी जामे में नजर आ रहे क्रिकेटर मोहम्मद यूसुफ को ही लीजिए, जो महिला एंकर के साथ भारतीय कप्तान सूर्यकुमार यादव के नाम का गलत तरह से उच्चारण करके खिल्ली उड़ाते देखे गए. मैं उसे दोहराकर उसे इज्जत नहीं देने वाला हूं. लेकिन इस तरह की गंदगी दोनों तरफ से बरती जाती है.

कई स्मार्ट लोग अब यह रुख अपना रहे हैं कि किसी भी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना राजनीतिक, रणनीतिक और सबसे अहम, नैतिक रूप से भी गलत है. ये लोग चाहते हैं कि भारत ऐसे टूर्नामेंटों का बहिष्कार करे या पाकिस्तान को मैच जीतने दें.

यह प्रतिस्पर्द्धी खेलों के अपमान जैसा है. भारत आतंकवाद का शिकार है, यह बेशक एक बुरी बात है. तो क्या भारत सभी अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में पाकिस्तान को वॉकओवर देता रहे? यह पीड़ित होने की किस तरह की पराजयवादी भावना है?

इसका मतलब यह होगा कि पिछले 20 वर्षों में किसी भी खेल में जो पाकिस्तान भारत के साथ दस मुकाबलों में से केवल एक मुक़ाबला जीत सकता है उसे अब बिना खेले जीत मिलेगी.

खेलों के कुछ आंकड़े काफी कुछ बताते हैं. भारत की दो पीढ़ी, जिनमें से एक जो आज सबसे ज्यादा आक्रोश में है, वह पाकिस्तान से हारते रहने के हमारे इतिहास से आक्रांत है. लेकिन पिछले 25 वर्षों में स्थिति उलट गई है. उदाहरण के लिए, पिछले 20 वर्षों में T-20 के 14 में से 11 मुकाबलों में भारत ने पाकिस्तान को हराया.  पिछले एक दशक में पाकिस्तान के साथ एकदिवसीय मुकाबलों में भारत का स्कोर 8-1 का रहा है. 2017 में, ओवल के मैदान में चैंपियनशिप ट्रॉफी के फाइनल तक भारत का यह स्कोर 7-0 का था. पाकिस्तान की जीत अब दुर्लभ अपवाद ही बन गई है. क्या अब हम इसे एक नियम बना दें? पाकिस्तान को हमेशा हारने वाली टीम से स्थायी विजेता टीम बनाने से क्या पहलगाम कांड के पीड़ितों को न्याय दिया जा सकेगा?

एकमात्र दूसरे जिस खेल में पाकिस्तान प्रतिस्पर्द्धी रहा है, वह है हॉकी. उसमें भी समीकरण अब क्रिकेट की तुलना में ज्यादा बदल गया है. पिछले 10 वर्षों में, भारत ने पाकिस्तान के साथ खेले सभी सात मैच जीते,  जिनमें 2023 में हांगझाउ में हुए एशियाई खेलों में 10-2 के स्कोर से जीत भी शामिल है. 2012 के बाद से पाकिस्तान ओलंपिक में हॉकी खेलने के लिए क्वालिफ़ाई तक नहीं कर पाया है.

अभी पिछले महीने उसने बिहार के राजगीर में हुए एशियाई कप से अलग रहने का फैसला किया. इस कप में जीतने वाली टीम अगले वर्ल्ड कप के लिए स्वतः क्वालिफ़ाई हो जाती. भारतीय हॉकी फेडरेशन (आईएचएफ) पर सोशल मीडिया या इन्फ़्लुएंसरों या टीवी के कमांडोज़ की ओर से कोई दबाव नहीं था कि वह पाकिस्तान को आमंत्रित न करे. पाकिस्तान को खेलों में जीत सौंपने का मौका कोई मूर्ख ही देगा.

अपने जनाधार की बात मानना किसी भी सरकार को आकर्षित कर सकता है. आप कह सकते हैं कि प्रतिबंध अस्थायी है, क्योंकि पहलगाम कांड के जख्म अभी हरे हैं. लेकिन कोई हिम्मती सरकार ही यह घोषणा कर सकती है कि लोगों के जख्म भर गए हैं, और अब हम पाकिस्तान के साथ खेल सकते हैं. यहां हम मोदी सरकार की तारीफ कर सकते हैं कि उसने अपने समर्थकों के मुक़ाबले ज्यादा समझदारी दिखाई है.

भारत आज विश्व क्रिकेट का कप्तान है, और हॉकी इंडिया लीग की वापसी के बाद हॉकी में भी उसका दबदबा बढ़ रहा है. वह द्विपक्षीय मसलों को बहुपक्षीय खेलकूद में घसीट नहीं सकता. आगे आईसीसी का लगभग हर मुखिया कोई भारतीय ही होने वाला है. जय शाह और राजीव शुक्ल को पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड (पीसीबी) और एशियन क्रिकेट काउंसिल (एसीसी) के अध्यक्षों और पाकिस्तान के गृह मंत्री मोहसिन रज़ा नक़वी से बात करनी ही होगी. दुनियावी जरूरतों को कबूल करना ही होगा. आखिर, प्रधानमंत्री मोदी ने तियांजिन में ‘एससीओ’ शिखर सम्मेलन के बाद ग्रुप फोटो के लिए खड़े होने से मना नहीं किया जबकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ भी वहां खड़े थे.

पिछले बहिष्कार या प्रतिबंध मिसाल नहीं बन सकते. इंदिरा गांधी के दौर में, 1974 में भारत ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी नीति के कारण डेविस कप का फाइनल मैच उसके साथ खेलने से मना कर दिया था और जीत उसे सौंप दी थी. राजीव गांधी की सरकार ने इंतिफादा हत्याओं के विरोध में ईजरायल को ‘रेलीगेशन राउंड’ का मैच सौंप दिया था. अमेरिकी और सोवियत खेमों ने एक-दूसरे के जवाब में मॉस्को ओलंपिक (1980) और लॉस एंजिलिस ओलंपिक (1984) का बहिष्कार किया. यूक्रेन युद्ध के कारण रूस को पेरिस ओलंपिक के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था. ये सब कई देशों की बहुपक्षीय कार्रवाईयां थीं.

एकतरफा बहिष्कार से अब भारतीय क्रिकेट को ही नुकसान होगा और पाकिस्तान को जीत का तोहफा हासिल होगा. इससे भी बुरी बात यह कि हम एक नरम हुकूमत की तरह काम करेंगे. ऑपरेशन सिंदूर के साथ हमने सामान्य स्थिति का जो नया पैमाना, जो “न्यू नॉर्मल” घोषित किया है और सेना को जिस तरह केंद्रीय मंच पर स्थापित किया है उसके बाद हमें यह सब करने की जरूरत नहीं है. भारतीय क्रिकेट इस युद्ध का योद्धा नहीं है.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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