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Saturday, 20 April, 2024
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जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र होने का भ्रम: बिना राजनीतिक आज़ादी के कोई आर्थिक आज़ादी टिक नहीं सकती

वैसे, एक महत्वपूर्ण सवाल जरूर उभरता है— लोकतंत्र आर्थिक वृद्धि के लिए अच्छा है या बुरा? कितना लोकतंत्र अच्छा है और कब यह जरूरत से ज्यादा हो जाता है? क्या सीमित लोकतंत्र जैसी भी कोई चीज होती है?

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अब यह बहस बेमानी है कि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने जो यह कहा कि ‘हमारे यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है’ उसका क्या मतलब है. आप उन लोगों के साथ भी जा सकते हैं जो इस बयान से नाराज हैं और इसे सीमित लोकतंत्र की मोदी सरकार की अवधारणा का एक बेबाक नौकरशाह के मुंह से किया गया खुलासा मानते हैं.

या आप इस बृहस्पतिवार को ‘इंडियन एक्सप्रेस ‘ में छपे कांत के लेख से प्रभावित भी हो सकते हैं, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्हें गलत समझा गया और उनके बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया. वे तो बस इतना कहना चाहते थे कि आप भारत में आर्थिक सुधारों की गति की तुलना चीन में इसकी गति से नहीं कर सकते क्योंकि ‘हमारे यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है’.

या फिर, बेशक आप दोनों पक्षों की बातों पर गौर कर सकते हैं. लेकिन ‘दोनों पक्ष’ इन दिनों एक विवादास्पद मुहावरा बन गया है. इसलिए मैं तो बस किनारा कर ले रहा हूं.

बहरहाल, एक महत्वपूर्ण सवाल जरूर उभरता है— लोकतंत्र आर्थिक वृद्धि के लिए अच्छा है या बुरा? कितना लोकतंत्र अच्छा है और कब यह जरूरत से ज्यादा हो जाता है? क्या सीमित लोकतंत्र जैसी भी कोई चीज होती है?

लगभग दो दशक पहले, मैं नई दिल्ली में एशिया सोसाइटी के एक सम्मेलन में इस बहस में फंस गया था. इसमें मैं उस पेनल में शामिल था जिसमें हांगकांग के ताकतवर रियल एस्टेट व्यवसायी, हांग लुंग ग्रुप के मालिक और बातूनी परमार्थी रॉनी चान भी शामिल थे. उस समय वे चीन में, खासकर शांघाई के विकास में भारी निवेश कर रहे थे. सम्मेलन में शामिल लोगों ने उनसे पूछा था कि वे भारत में कब निवेश शुरू करेंगे? रॉनी ने बड़ी बेबाकी से जवाब दिया था— मैं यहां कोई निवेश नहीं करने जा रहा हूं क्योंकि आपके यहां लोकतंत्र कुछ ज्यादा ही है. अगर आपके यहां लोकतंत्र थोड़ा कम रहता तो मैं निवेश करता. श्रोताओं में लहर दौड़ गई. लेकिन तथ्य और आंकड़े रॉनी के पक्ष में थे. चीन बम-बम कर रहा था और भारत 1991 के आर्थिक सुधारों की पहली लहर के बाद जद्दोजहद कर रहा था.

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बहरहाल, मसले को अगली पांत में बैठे जापानी राजदूत ने यह कहकर शांत किया कि ‘क्या जापान ने दूसरे विश्व युद्ध में तहस नहस हो जाने के बाद दुनिया का सबसे बड़ा आर्थिक चमत्कार नहीं किया? और हम तो पूर्ण लोकतांत्रिक देश रहे हैं.’


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इसके बाद बहस शांत हो गई. चीन से पहले जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान आदि कई देशों ने आर्थिक चमत्कार कर दिखाया है. जापान जैसे कुछ देशों ने तो लोकतंत्र से शुरुआत की और आगे बढ़ते हुए अपने लोकतंत्र को और मजबूत ही किया.

दक्षिण कोरिया और ताइवान ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद आपसी झगड़े से उबरते हुए तानाशाही से शुरुआत की. लेकिन जैसे-जैसे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई और उनके लोग जागरूक होते गए, उन्होंने ऐसे नाटकीय रूप से लोकतंत्र को अपनाया कि 21वीं सदी के प्रारंभ तक वयस्क होने वाले तमाम लोग (70 प्रतिशत भारतीय), जो इस क्षेत्र के जानकार या यूपीएससी परीक्षा की तैयारी नहीं कर रहे थे, 1988 तक पार्क चुंग-ही के बिना दक्षिण कोरिया की और जनरल च्यांग काई शेक के बिना ताइवान की कल्पना करने को तैयार नहीं थे.

ये तीनों देश आज पूर्वी एशिया में, चीन के दालान के आगे लोकतंत्र की मशाल के रूप में जगमगा रहे हैं. इनमें से दो (जापान और ताइवान) तो उसे चिढ़ाते भी रहते हैं और तीसरा (दक्षिण कोरिया) उसके संरक्षण में पड़े पाकिस्तान के अलावा दूसरे परमाणु शक्ति सम्पन्न देश उत्तरी कोरिया से छत्तीस का आंकड़ा बनाए हुए है. ये तीनों देश यह संदेश भी दे रहे हैं कि आर्थिक वृद्धि और लोकतंत्र साथ-साथ चल सकते हैं और यह भी कि अर्थव्यवस्थाएं और समाज जैसे-जैसे तरक्की करते हैं, वैसे-वैसे उनमें लोकतंत्र के लिए चाहत घटती नहीं बल्कि बढ़ती जाती है.

लेकिन, तब चीन के बारे में क्या कहा जाए? म्युच्युअल फंड के साथ चस्पां वैधानिक चेतावनी के ठीक विपरीत, जब बात देशों के तकदीर की आती है तब उनका अतीत ही उनके भावी प्रदर्शन का सटीक संकेत देता है. आज चीन में लोकतंत्र नहीं है लेकिन आज का चीन उस चीन से काफी अलग है जब तंग श्याओ पिंग ने नियंत्रणों में ढील देने की शुरुआत की थी.

लेकिन शी जिंपिंग ने घड़ी की सुई की चाल फिर उलट दी है. मजबूत हो रही स्वाधीनताओं में उन्होंने जब से कटौती शुरू की है, जिससे चीन को आर्थिक रूप से लाभ भी हुआ है, तब से उनके लिए चुनौतियां बढ़ने लगी हैं. सबूत के लिए उनका वह ताज़ा दस्तावेज़ देखिए जिसे उन्होंने अपने शक्तिशाली देश को अपने सपने के सुपर पावर में बदलने के लिए और एक नये शीतयुद्ध की अपनी कल्पना के तहत तैयार किया है. लेकिन इसे ‘आत्मनिर्भर चीन’ का उनका अपना संस्करण कहा जा सकता है. उन्होंने चीन में लोकतंत्र की उभरती चाहत को जिस तरह दबाया है उससे उसकी अर्थव्यवस्था आगे बढ़ने की जगह पीछे ही जाएगी.

हम चीन से इसलिए प्रभावित होते हैं कि चार दशक पहले उसने भी उसी स्तर से शुरुआत की थी जिस स्तर पर हम थे लेकिन आज उसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा भारत के इस आंकड़े से पांच गुना ज्यादा है और यह फासला बढ़ता ही जा रहा है. लेकिन पूर्वी एशिया के अपने छोटे साथियों के आगे वह बौना ही दिखता है.

ताइवान का, जिसे चीन के दूसरे नाम से जाना जाता है, प्रति व्यक्ति जीडीपी का आंकड़ा चीन के इस आंकड़े से ढाई गुना ज्यादा है, तो दक्षिण कोरिया का यह आंकड़ा चीन के आंकड़े के तीन गुने से ज्यादा है. इन देशों ने अपने यहां ‘बहुत ज्यादा लोकतंत्र’ के कारण नुकसान उठाया या उसका काफी लाभ कमाया, इसका फैसला आप ही करें. इन दो देशों ने कोरोना महामारी का जिस तरह मुकाबला किया उसकी आज दुनिया भर में तारीफ की जा रही है.

महामारी से संबंधित उनके आंकड़ों पर भरोसा भी किया जा रहा है. अब हम इस बहस के इस हिस्से को रॉनी चान की दौलत और प्रसिद्धि पर समाप्त कर सकते हैं, जिन्होंने इस बहस की शुरुआत की थी. चान ने अपनी दौलत और प्रसिद्धि दुनिया के सबसे उल्लेखनीय ‘ग्रोथ इंजिन’ माने गए उस छोटे-से हांगकांग में हासिल की, जो तकनीकी रूप से चीन का हिस्सा होने के बावजूद ‘बहुत अधिक लोकतंत्र’ के साथ शोर मचाते हुए शानदार प्रगति करता रहा.

आशावादियों का मानना था कि चीन में शामिल होने के बाद हांगकांग खुद बदलने से ज्यादा चीन को बदल देगा. लेकिन शी के राज में सब उलट गया. अब आप उन्हें लोकतंत्र, संस्थाओं, रचनात्मक एवं उद्यमी ऊर्जा का गला घोंटते हुए देख सकते हैं. चीन के सबसे प्रतिभाशाली बौद्धिक और व्यवसायी पश्चिम का रुख कर रहे हैं.


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भारत में पढ़े-लिखे, समृद्ध, मुखर लोगों का एक ऐसा कुलीन तबका है जो इस विचार में विश्वास रखता है कि बहुत ज्यादा लोकतंत्र एक बोझ है, कि भारत को कुछ समय के लिए एक कृपालु तानाशाही की जरूरत है. बेशक उसे ऐसी तानाशाही में कभी रहना नहीं पड़ा है. इमरजेंसी तो महज 19 महीने रही और उसको खत्म हुए 43 साल बीत चुके हैं. वे कहेंगे, जरा सिंगापुर को देख लीजिए. वे उसके मुरीद हैं. आप वहां बिलकुल ‘सेफ’ हैं, आपको वहां किसी तरह की ‘पॉलिटिक्स’ की चिंता नहीं करनी पड़ती, निरंतरता बनी रहती है, जिंदगी के कुछ मौजमजों पर नियम-कायदे बेशक कठोर हैं, तो कोई बात नहीं. क्या हुआ जो आप टहलते हुए च्युइंग गम भी चबा सकने के अमेरिकी सुख का उपभोग नहीं कर सकते, हमेशा जुर्माना भरने और जेल भेजे जाने की दहशत में जीते हैं?

चीन को छोड़कर तमाम देशों में हम पाते हैं कि आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास का इतिहास साथ-साथ चला है. यह हमारा दांव है कि यह अब अपनी गति खो रहा है. रूस को कम्युनिस्ट शासन के खात्मे के बाद जो आर्थिक लाभ मिला उसे उसने नयी तरह की तानाशाही लाकर बर्बाद कर दिया. उसकी आकार के चौथाई के बराबर आकार के उसके यूरोपीय साथी देशों की अर्थव्यवस्था उसके मुकाबले बड़ी हो गई है, भले ही उसके पास तेल व खनिज का भंडार है, परमाणु अस्त्रों का जखीरा है और अस्त्र-शस्त्र का बड़ा उद्योग है.

तुलनात्मक रूप से कम आबादी वाले इराक और ईरान हाइड्रोकार्बन के अपने भारी-भरकम भंडार के बूते यूरोप से ज्यादा अमीर हो सकते हैं. दोनों महान फारसी और मेसोपोटामियाई प्राचीन सभ्यताओं की देन हैं. लेकिन दोनों ने कई पीढ़ियों तक लड़ाई, आर्थिक प्रतिबंधों के कारण खुद को बर्बाद कर लिया. आज उनके लोग तीसरी दुनिया के उनसे कहीं गरीब देशों के लोगों से भी बदतर हालात में हैं. वे इसके लिए किसे दोष देंगे, बहुत ज्यादा लोकतंत्र को या बहुत कम लोकतंत्र को?

क्या लोकतंत्र किसी शाह, सद्दाम या अयातुल्लाह को दशकों तक गद्दी पर बैठे रहने और तेल के रूप में अपनी दौलत को जलाने दे सकता था? तुर्की में स्वतंत्र, निष्पक्ष और वैध चुनाव जीत कर सत्ता में आने वाले एर्दोगन ने फैसला किया कि इतना ज्यादा लोकतंत्र ठीक नहीं है और उन्होंने दिशा उलट दी. तो उनकी खिलती हुई अर्थव्यवस्था ने भी यही किया.

निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मैं एक घुमंतू रिपोर्टर का पसंदीदा तरीका अपना रहा हूं. एक टैक्सी ड्राइवर की बुद्धिमत्ता का सहारा ले रहा हूं. जनवरी 1990 में मैं ईस्टर्न ब्लॉक के हालात का जायजा लेने के लिए प्राहा में था. वहां मेरा टैक्सी ड्राइवर एक बेरोजगार कंप्यूटर इंजीनियर था. वह कम्युनिस्टों को बहुत कोस रहा था. मैंने उसे बताया कि मेरे देश में वे आज भी कुछ राज्यों में चुनाव जीत रहे हैं. उसका जवाब था कि ऐसा इसलिए है कि आप कभी कम्युनिस्ट राज या तानाशाही में नहीं रहे.

मैंने उससे कहा कि हम इमरजेंसी में जी चुके हैं.

उसका जवाब था, यह अच्छा मुद्दा है. इमरजेंसी ने आपके राजनीतिक अधिकार छीन लिये, तब आपको एहसास हुआ कि आपने क्या खो दिया था. तब आपने उसे वापस पाने के लिए संघर्ष किया. आपने जब आर्थिक आज़ादी का कभी लाभ नहीं उठाया तो आपको पता नहीं है कि आपने क्या खो दिया और कम्युनिस्टों के राज में आप उसे और खो देंगे. हम, चेकोस्लोवाकिया के लोगों को यह पता है. कम्युनिस्टों के आने तक हमें पूरी आर्थिक आज़ादी थी.

हमारी यह बातचीत तब बंद हो गई जब हम वेंकेस्लास स्क्वॉयर पर स्थित अपने होटल पहुंच गए. उस सड़क की एक इमारत पर लाल रंग का एक बैनर लटक रहा था, जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था— ‘अपने घर में तुम्हारा स्वागत है, बाटा!’ थॉमस बाटा एक चेक उद्यमी थे जिन्होंने फूटवियर का विशाल साम्राज्य खड़ा किया. उसके बाद कम्युनिस्ट आ गए थे, उन्होंने हर चीज का राष्ट्रीयकरण कर दिया और बाटा कनाडा चले गए. जब वाक्लाव हावेल ने कम्युनिस्टों का राज खत्म कर दिया, तो बाटा फिर स्वदेश लौट आए. आप देख सकते हैं कि राजनीतिक आज़ादी के बिना आर्थिक आज़ादी बच नहीं सकती. लोकतंत्र जितना मजबूत होगा, उद्यमी ऊर्जा और आर्थिक वृद्धि भी उतनी ही मजबूत होगी.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. Sir
    I generally remains agree with you , Till you generalist people try to over power political leaders.

    Regards

    Manoj Gupta

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