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Thursday, 31 October, 2024
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क्या भारत की अहमियत है? कमला हैरिस के ‘उपदेश’ ने मोदी को ये बता दिया है

मोदी के लिए ऐतिहासिक मौका है कि वे अपने देश को एक नये, अधिक सुरक्षित रणनीतिक स्थिति में पहुंचा दें. यह वे पूर्ण लोकतांत्रिक देश के रूप में ही ऐसा कर सकते हैं.

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इस बार इस स्तंभ के शीर्षक पर कड़ी प्रतिक्रियाएं आ सकती हैं. क्या अनाड़ीपन वाला सवाल है ये कि क्या भारत अहमियत रखता है? और ऐसा सवाल आप तब उठा रहे हैं जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडन से पहली बार मिल रहे हैं, और क्वाड के उनके सहयोगी नेताओं से मिल रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित कर रहे हैं.

और हां, यह भी हो सकता है कि आप जानबूझकर उकसाऊ शीर्षक दे रहे हैं ताकि लोग आपका पूरा लेख पढ़ें.

भारत बेशक अहमियत रखता है, और मैं अनाड़ी ही माना जाऊंगा अगर शीर्षक में उठाए गए अपने सवाल का नकारात्मक जवाब दूंगा. और जहां तक आपके दूसरे आरोप का सवाल है, तो मैं जरूर जानबूझकर उकसाऊ शीर्षक दे रहा हूं ताकि आप पूरा लेख पढ़ें. इसकी वजह क्या है, आगे पढ़िए.

यह बताना बहुत आसान है कि भारत की हमेशा अहमियत रही है और 21वीं सदी में तो और भी ज्यादा है. प्रधानमंत्री खुद बता चुके हैं कि भारत दुनिया के लिए अनिवार्य आकर्षण है. अनुप्रास अलंकार के प्रयोग में माहिर मोदी तीन ‘डी’- डेमोग्रेफी (जनसंख्या), डेमोक्रेसी (लोकतंत्र), डिमांड (मांग)- का जिक्र करते रहते हैं. भारत के इस वैश्विक आकर्षण की जब नरेंद्र मोदी ने इतनी जोरदार व्याख्या कर दी है तब एक स्तंभ लेखक के लिए कहने को कुछ रह नहीं जाता.

क्योंकि अगर आप केवल उस आकर्षक मुहावरे तक सीमित रहेंगे तब कोई विमर्श नहीं शुरू किया जा सकता. इसलिए हमें यह सवाल उठाना चाहिए कि जब भारत के वैश्विक संबंध, खासकर रणनीतिक पहलू से, अब तक के लिहाज से सबसे मजबूत और निर्णायक हैं, तब वह क्या चीज है जो उसकी अहमियत को अधिक या कम बनाते हैं? हमने ‘अब तक के लिहाज से’ कहा, बेशक इसमें सोवियत संघ के साथ 1971 की शांति, मैत्री और सहयोग की संधि को अपवाद मान लें.

सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत एक तरह के वैश्विक सत्ता के शून्य में, नज़रों से दूर तो ख्यालों से भी बाहर वाली स्थिति में रहा. इसके बाद फिर से जुड़ने की कोशिश शुरू हुई. चार प्रधानमंत्रियों ने इसमें पहल की- पी.वी. नरसिम्हा राव ने, अपनी सरकार के बहुमत में न होने के बावजूद, अटल बिहारी वाजपेयी ने, बावजूद इसके कि गठबंधन वाली उनकी सरकार को 17 दिन से लेकर 13 महीने और करीब साढ़े चार साल की तीन जिंदगियां जीनी पड़ीं, मनमोहन सिंह ने, बावजूद इसके कि वे वामपंथी दलों के समर्थन से गठबंधन सरकार चला रहे थे और नरेंद्र मोदी ने, जो अब दूसरी पाली में पूर्ण बहुमत की सरकार चला रहे हैं.

मुझे पूरा एहसास है कि इन दिनों नेहरू का नाम लेने से कई लोग ‘उत्तेजित’ हो जाते हैं. लेकिन अगर मैं नेहरू की प्रसिद्ध उक्ति ‘नियति से मिलन’ को चुरा लूं, तो कहा जा सकता है की राव ने भारत के लिए एक नयी नियति की खातिर एक नया वादा किया था. उसे पूरा करने का समय आ गया है, भले ही ‘पूरी तरह या संपूर्णता में नहीं’ तो कम-से-कम काफी हद तक. मोदी के लिए यह एक मौका है. सवाल यह है कि क्या उनका भारत इसके लिए तैयार है? इसीलिए हमने शुरू में ही सवाल उठाया कि क्या भारत अहमियत रखता है?


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यह हमें भारत के प्रति आकर्षण के उन तीन कारणों पर ले आता है जिन्हें मोदी प्रायः तीन ‘डी’ बताते हैं. आज जब वे 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद रणनीति के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण बैठकें कर रहे हैं, इन तीनों ‘डी’ पर अलग-अलग तरह से संकट दिख रहा है. जनसंख्या अब एक चुनौती बन गई है, क्योंकि बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है और जनसंख्या से जो फायदे हो सकते हैं वे नुकसान में बदल सकते है अगर उस पर रोक न लगाई गई तो.

मांग को हमारी आर्थिक स्थिति के कारण जद्दोजहद करनी पड़ रही है. सरकार भी इससे इनकार नहीं कर सकती. इसके लिए हम महामारी को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, मगर दुनिया इससे उबरने तक इंतजार करेगी.

और तीसरी ‘डी’ यानी डेमोक्रेसी यानि लोकतंत्र ऐसा मोर्चा है जिस पर मोदी के भारत को सबसे तीखी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है और यह सवालिया बन गया है. लेकिन यह लगभग पूरी तरह मोदी सरकार का और उनकी पार्टी की राजनीति का किया-धरा ही है.

अपनी बैठक से पहले मोदी और अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने मीडिया के सामने जो बयान दिए उन पर गौर कीजिए. वह सब कूटनीतिक शिष्टाचार और शुभकामनाओं से भरा था, लेकिन हैरिस के छोटे-से बयान में एक-दो बातें ऐसी थीं जो काबिले-गौर हैं. मसलन, उन्होंने कहा कि दुनियाभर में लोकतंत्र खतरे में है और ‘यह जरूरी है कि हम अपने देश में लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संथाओं की रक्षा करें…’

अरे! अमेरिकी उप-राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री को, जो प्रोटोकॉल के मुताबिक उनके बराबर नहीं हैं, उपदेश तो नहीं दे रही थीं?

और हैरिस ने संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी, ‘व्यक्तिगत अनुभवों से और अपने परिवार के जरिए मैं जानती हूं कि भारत के लोग लोकतंत्र में कितनी आस्था रखते हैं… जो कुछ करना है उसके प्रति कितनी प्रतिबद्धता रखते हैं, इसलिए हम यह सोचना शुरू कर सकते हैं कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थाओं के बारे में हमारी कल्पनाएं क्या हैं, और तब हम उन्हें अंततः हासिल कर सकते हैं.’

ट्रंप के दौर से यह दौर कितना अलग है, यह पर्याप्त तौर पर स्पष्ट हो गया है. हमें मालूम है कि इन मुद्दों पर अमेरिका की सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी के आग्रह रिपब्लिकन पार्टी के विचारों के मुकाबले कितने मजबूत हैं. यहां तक कि बराक ओबमा ने भी जनवरी 2015 में अपने भारत दौरे के दौरान एक सार्वजनिक भाषण में धार्मिक स्वतंत्रता के बारे में किस तरह ‘सलाह’ दी थी. वैसे, यह उनके दौरे के औपचारिक आयोजनों के खत्म होने के बाद का मामला था और मोदी के सामने यह नहीं कहा गया था.

बहरहाल, अमेरिका में मोदी को अगर हैरिस के बयान से झटका लगा होगा तो भी वे इतने तेज तो हैं ही कि अपने भावों को छिपा लें. ये मुद्दे इसके बाद बंद कमरे की बैठक में कितने उठाए गए होंगे, इसका अंदाजा हमें अगले दो दिनों में लग सकता है, जब ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’, पॉलिटिको’ जैसे संदिग्ध अंदरूनी खुलासे करेंगे.

हैरिस ने अपना संदेश मेपल के शर्बत की चुसकियों के बीच दिया लेकिन यह मोदी के लिए पहला मौका था जब किसी विदेशी वार्ताकार ने इस तरह सार्वजनिक तौर पर ऐसी बात कही हो. मोदी ने इस वार को चुपचाप झेल लिया और बिना खीज़ दिखाए आगे बढ़ गए, यह उनके कूटनीतिक कौशल को ही दर्शाता है. सवाल यह है कि क्या वह इस बात पर मंथन करेंगे कि उनकी सरकार और पार्टी के किन गलत कदमों ने उन्हें इस तरह बेनकाब किया?


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ट्रंप-पेंस से लेकर बाइडन-हैरिस तक अमेरिका कई तरह से बदल गया है और नहीं भी बदला है. जो भी हुआ हो, बाइडन सरकार चीन की चुनौती के बारे में खुल कर बोल रही है. और बेमानी ट्वीट करने की जगह ठोस बातें कर रही है. इसका प्रमाण यह है कि उसने ‘ऑकस’ जैसी संधि पर मुहर लगाने में देर नहीं की, जो साफ तौर पर चीन-केंद्रित सैन्य संधि है. लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के प्रति व्यवहारों के मामलों में अपने विचार के कारण वह अलग है.

इसे इस तरह देखें. सभी नेता अपनी राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से काम करते हैं. ट्रंप मुसलमानों की चिंता इसलिए नहीं कर सकते थे कि वे उन्हें वोट नहीं देते थे और न कभी देने वाले थे. बाइडन-हैरिस उनकी फिक्र इसलिए करते हैं कि वे उनको वोट देते हैं और ये दोनों चाहते हैं कि वे आगे भी उन्हें वोट देते रहे. जिस तरह बड़े देश मुख्यतः अपने हित के लिए काम करते हैं, राजनीतिक नेता भी वैसा ही करते हैं. अगर दोनों के हित समान हो गए तो यह उनके लिए ज्यादा बेहतर है.

इसलिए सीधी-सी बात है कि यह सच से सामना करने की वह घड़ी है जब मोदी को अपनी घरेलू, चुनावी राजनीति पर विचार करना है. क्या वह भारत के व्यापक रणनीतिक हित के विपरीत है? अफगानिस्तान में उथल-पुथल और उसके बाद की घटनाएं यही दर्शाती हैं कि हम दुनिया के जिस हिस्से से जुड़े हैं वह इस्लामी आतंकवाद से दूर हो चुका है. चीन ने इस्लामी आतंकवाद को दुनिया के लिए खतरा मानना छोड़ दिया है.

अमेरिकी चिंतक फ्रांसिस फुकुयामा इसके बारे में कुछ समय से चेतावनी दे रहे थे कि अब दुनिया के लिए नया रणनीतिक खतरा है चीन, न कि इस्लामी आतंकवाद. इसलिए, अफसोस की बात है कि तालिबान अफगानियों के साथ जो कर रहे हैं उसकी किसी को परवाह नहीं है. ‘ऑफ द कफ’ कार्यक्रम में मैंने फुकुयामा से जो बातचीत की थी उसे आप देख सकते हैं.

और आप पूछेंगे कि पाकिस्तान जब ‘अप्लाई, अप्लाई, नो-रिप्लाई’ का युद्धनृत्य कर रहा है तो बाइडन इमरान खान को फोन क्यों नहीं कर रहे? तो इसकी वजह यह है कि पाकिस्तान अहमियत नहीं रखता. अगर अफगानिस्तान को अपनी किस्मत के भरोसे छोड़ा जा सकता है, तो इसका अर्थ है कि पाकिस्तान अपना रणनीतिक महत्व खो चुका है. वह चीन के मातहत के रूप में अलग-थलग पड़कर काबुल में जीत पर खुश होता रह सकता है.

इसके विपरीत, भारत की अहमियत और बढ़ गई है, इसलिए नहीं कि वह इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ जंग में एक सहयोगी है. बल्कि इसलिए कि वह विशाल और ताकतवर देश है, फौजी दृष्टि से मजबूत और चीन का सामना करने को तैयार. उसने अपनी रणनीतिक हिचक भी तोड़ दी है.

‘फ्रीडम हाउस’ नमक संस्था को आप चाहे जो कह लें, अमेरिकी सत्तातंत्र का पिछलग्गू या इससे भी बुरा. लेकिन यह अगर भारत को ‘आंशिक रूप से स्वाधीन’ का दर्जा देता है, तो यह भारत के तीन ‘डी’ में सबसे अहम ‘डेमोक्रेसी’ को नुकसान पहुंचाता है, तब पांच दशकों में सबसे ताकतवर माने जा रहे भारतीय प्रधानमंत्री को भी अमेरिकी उप-राष्ट्रपति से आहिस्ते से ही सही सार्वजनिक झिड़की सुननी पड़ती है.

मोदी के लिए ऐतिहासिक मौका है कि वे अपने देश को एक नये, अधिक सुरक्षित रणनीतिक स्थिति में पहुंचा दें. यह वे पूर्ण लोकतांत्रिक देश के रूप में ही ऐसा कर सकते हैं. वे इस मौके का फायदा उठा सकते हैं या घरेलू राजनीति के आकर्षणों में पड़कर इसे गंवा सकते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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