scorecardresearch
Saturday, 14 December, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टबीजेपी ने ‘डीप स्टेट’ का आरोप लगा कर भारत-अमेरिका रिश्ते में पेंच फंसाया

बीजेपी ने ‘डीप स्टेट’ का आरोप लगा कर भारत-अमेरिका रिश्ते में पेंच फंसाया

भाजपा ने केवल अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ पर हमला नहीं किया. विचारधारा के स्तर पर यह विचार कुछ अरसे से मजबूत हो रहा है, और डोनाल्ड ट्रंप ने भी इसे वैधता दी है.

Text Size:

हमारी राजनीतिक रणनीति के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना घट गई और हमने उस पर उतनी बहस नहीं की जितना करनी चाहिए थी. यह घटना डीप स्टेट पर भारतीय जनता पार्टी ही नहीं बल्कि अमेरिकी विदेश विभाग की ओर से भी हमले के रूप में घटी. सरकारी नीति को प्रभावित करने वाले अपरिभाषित, भयानक और रहस्यमय राष्ट्र स्तरीय गुप्त नेटवर्क को डीप स्टेट’ कहा जाता है.

भाजपा के सरकारी ट्वीटर (एलनम माफ करेंएक्स) हैंडल ने अमेरिकी डीप स्टेट पर हमला करते हुए 16 भागों वाला थ्रेड पोस्ट किया, क्योंकि इसने भारत और मोदी सरकार के खिलाफ जंग छेड़ दी थी. इस तरह के हमले पर आपकी सामान्य प्रतिक्रिया यह हो सकती थी कि कोई बात नहीं, अब ट्रंप राष्ट्रपति बन गए हैं और वे भी इस दानव पर हमला कर रहे हैं तो भाजपा भी उनके सुर में सुर मिला रही है. वह विजेता का साथ देती दिखना चाहती है’. लेकिन फर्क यह है कि भाजपा के 13 पोस्ट में डीप स्टेट को छोड़ अमेरिकी विदेश विभाग पर आरोप लगाया गया है कि वह इस षड्यंत्रकारी नेटवर्क की अगुआई कर रहा है.

पोस्ट की मुख्य बातें ये थीं : इस एजेंडा के पीछे हमेशा अमेरिकी विदेश विभाग का हाथ रहा है… डीप स्टेट का साफ मकसद प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाकर भारत में अस्थिरता फैलाना है. फ्रांसीसी खोजी मीडिया ग्रुप मीडियापार्ट ने उजागर कर दिया है कि “ओसीसीआरपी (ऑर्गनाइज्ड क्राइम ऐंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट) को अमेरिकी विदेश विभाग के यूएसएड से पैसे मिलते हैं… वास्तव में, ‘ओसीसीआरपी  की 50 फीसदी फंडिंग अमेरिकी विदेश विभाग से ही आती है.”    

पेगासस विवाद, अडानी समूह के बारे में कई खुलासों आदि का खास तौर से जिक्र किया गया है और डीप स्टेट के जॉर्ज सोरोस सरीखी हस्तियों का भी उल्लेख किया गया है. इसमें नई और बड़ी बात यह है कि भाजपा ने अमेरिकी विदेश विभाग पर सीधा और बेबाक हमला किया है.

याद रहे कि मीडियापार्ट’ वह धुर वामपंथी फ्रांसीसी मंच है जिसने भारत के राफेल सौदे की खोजी रिपोर्टिंग की थी और कांग्रेस पार्टी तथा मोदी-आलोचकों को उन पर हमला करने का काफी मसाला उपलब्ध कराया था. भाजपा अब तक तो इसे भारत और मोदी सरकार को बदनाम करने की किसी फ्रांसीसी वामपंथी चौकड़ी की चाल मानती रही होगी. लेकिन अब उसने एक विश्वसनीय सहयोगी को निशाना बनाया है. राजनीति की कठोर दुनिया में यह बात नहीं चलती कि इस तरह के विरोधाभास खुद अपनी मौत मर जाते हैं. इसमेंविरोधाभास विक्रम और बैताल’ के कथावाचक की तरह मर कर जी उठते हैं. 

अपने नए अवतार में बैताल मीडियापार्ट की कथा अमेरिकी सत्तातंत्र के लिए काफी नुकसानदेह थी. मीडियापार्ट का खुलासा यह बताता है कि अमेरिकी विदेश विभाग न केवल दुनियाभर में खोजी पत्रकारिता को पैसे दे रहा है (अघोषित रूप से) बल्कि प्रमुख पदों पर नियुक्तियों और मुद्दों पर वीटो भी लगा रहा है. इस खुलासे को न केवल जरूरत से ज्यादा चालाक बनने की कोशिश कहा जा सकता है बल्कि यह घोर द्वेषपूर्ण भी है. वैसे, सुपरपावर बनने के लिए दोषदर्शी होना भी बेहद जरूरी है.

इसी तरहअगर किसी राजनीतिक दल को लगता है कि अमेरिकी सरकार के फंड से चलने वाली किसी गतिविधि के कारण उसकी सरकार को नुकसान पहुंच रहा है तो उस पर सवाल उठाना उसका अधिकार है. वैसेमहत्वपूर्ण स्तर पर समस्याएं उभर जाया करती हैं. भारत की किसी सत्ताधारी पार्टी ने विदेशी हाथ या खासकर अमेरिका पर कोई पहली बार हमला नहीं किया है. इंदिरा गांधी के दौर में काँग्रेस पार्टी अक्सर यह करती रहती थी. 

1970 वाले दशक में जब इंदिरा गांधी पर विपक्ष का दबाव बढ़ने लगा था तब वे और उनकी पार्टी विपक्षी दलों को सीआईए के एजेंट घोषित किया करती थी. उसी दौरान, स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक सदस्य और राज्यसभा के सदस्य पीलू मोदी एक दिन मैं सीआइए एजेंट हूं का बिल्ला लगाकर सदन में पहुंच गए थे. आगे चलकर राजीव गांधी और पी.वी. नरसिंहराव भी जब दबाव में पड़ते थे तब अमेरिका पर हमला करने लगते थे. राजीव ने तो नानी याद करा देंगे” तक की चेतावनी दे डाली थी. और नरसिंहराव ने भी संसद में बहस के दौरान कुछ इसी तरह का बयान दिया था. बाद में विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी दूतावास को सफाई दी थी कि ऐसा जबान फिसलने के कारण हुआ. लेकिन अमेरिकी राजदूत विलियम क्लार्क जूनियर ने हम कुछ संपादकों के साथ बातचीत में गुस्से में कहा था कि “क्या राव की जबान 15 मिनट तक फिसलती रही?”

बहरहाल, वो कुछ अलग ही दौर था. वह भारत का अमेरिका विरोधी शीतयुद्ध था. आज हम अलग युग में हैं, जब भारत के लगातार तीन प्रधानमंत्री और अमेरिका के पांच राष्ट्रपति दोनों देशों की दोस्ती को 21वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण द्विपक्षीय संबंध बता चुके हैं.

भारत और अमेरिका खुद को अगर मित्र राष्ट्र नहीं कहते, तो रणनीतिक सहयोगी तो कहते ही हैं. मोदी  2023 में जब राजकीय दौरे पर वाशिंगटन गए थे तब जो बातें कही गई थीं उन्हें याद करना यहां प्रासंगिक होगा. मोदी ने कहा था, “हमने जो महत्वपूर्ण फैसले किए हैं उन्होंने हमारी विस्तृत एवं वैश्विक रणनीतिक साझीदारी में एक नया अध्याय जोड़ दिया है.” उधर राष्ट्रपति बाइडन ने इसे “दुनिया की सबसे अहम साझीदारियों में शुमार” बताया थाकि ऐसी “मजबूत, करीबी और अधिक गतिशील साझीदारी इतिहास में कभी हुई नहीं”. दोनों देशों के 6,500 शब्दों वाले संयुक्त बयान में दर्ज ये शब्द तो केक या कलाकंद पर रखी चेरी जैसे हैं: “महासागरों से लेकर आसमान तक मानवीय उपक्रम का कोई कोना हम दो महान देशों की इस साझीदारी से अछूता नहीं बचा है.”   

भाजपा आज अमेरिकी विदेश विभाग पर जो हमला कर रहा है उसे उपरोक्त संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए. वैसे दोनों पक्ष उच्च स्तरीय कूटनीति के तहत यह जरूर कह रहे हैं कि उनके रिश्ते में कोई समस्या नहीं पैदा हुई है.


यह भी पढ़ें: घरेलू सियासत और धर्म पर बेहिसाब जोर छोड़कर पड़ोसियों से बेहतर पेश आना होगा, अशांत पड़ोस भारत के लिए संदेश है


इसलिए सवाल यह है कि एक-दूसरे को बार-बार सबसे अहम रणनीतिक पार्टनर बताने वाली दो महाशक्तियां इस विरोधभास को किस तरह पचा रही हैं?

अब कांग्रेस पार्टी ने भी इसमें दखल देते हुए मोदी पर आरोप लगाया है कि वे अपने दोस्त अडानी को बचाने के लिए” एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संबंध को खराब कर रहे हैं. यह भी इस सीजन का एक विरोधाभास ही है, क्योंकि मनमोहन सिंह को अमेरिका के साथ ऐतिहासिक परमाणु समझौता करने के लिए अपनी पार्टी के पारंपरिक अमेरिका-विरोध से निबटना पड़ा था.

सरकार के अंतर्विरोधों का फायदा उठाना तो विपक्ष का काम ही है. लेकिन देखना यह है कि सरकार जिसे मूल्यवान संबंध बताती है उसे दांव पर लगाए बिना वह इस विरोधाभास से किस तरह निबटती है. इसका सीधा सा जवाब यह नहीं हो सकता कि पार्टी का अपना नजरिया है और उसकी सरकार अपना काम करती रह सकती है. भारत और अमेरिका दोस्त जरूर बन गए हैं लेकिन अमेरिका-विरोध जनमत में हमेशा हावी रहा है.

हाल में ट्रंप अपने डीप स्टेट और उसकी कई साज़िशों की जिस तरह निंदा करते रहे हैं उसके कारण यह मुद्दा और तेजी से उभरा है. इसके साथ, विश्व व्यापार और वित्तीय लेन-देन को डॉलर मुक्त करने का नया विचार एक दिलचस्प आकर्षण के रूप में जुड़ गया है. वैसे, विदेश मंत्री एस. जयशंकर इस विचार को कई बार स्पष्ट रूप से खारिज कर चुके हैं.

अमेरिका-विरोध हमारे अंदर इतना पैठ चुका है कि कई स्मार्ट और प्रभावशाली लोग ब्रिक्स मुद्रा चलाने के विचार के प्रति सम्मोहित दिखते हैं, चाहे इसका अर्थ चीनी मुद्रा को नया नाम देना ही क्यों न हो. कहने की जरूरत नहीं कि दिखावे की खातिर अमेरिका-विरोध सबसे सुरक्षित और आकर्षक विचारधारा है.

करीबी रिश्तों के अंदर संदेह और विवाद तो उभरते ही हैं. बाइडन जबकि विदाई की तैयारी कर रहे हैंहर एक पक्ष यही सोच रहा है कि उसने दूसरे को रंगे हाथ पकड़ लिया है: अमेरिका ने पन्नुन प्रकरण को पकड़ा, तो भारत ने ओसीसीआरपी को लेकर जवाबी हमला बोला. दोनों एक-दूसरे से यही सवाल कर रहे हैं कि अपने दोस्त के साथ आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?  

क्या मोदी सरकार इस मामले को अलग तरीके से निबटा सकती थी? कमला हैरिस अगर जीत जातीं तो क्या वे अलग बोली बोलते? आप अटकलें ही लगा सकते हैं. मैं तो यह कहूंगा कि क्या अमेरिका ने इस मामले को कहीं बेहतर तरीके से निबटाया है? अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेट्टी के कुछ बयानों पर गौर कीजिए. भारत जब निज्जर-कनाडा मामले की तुलना में पन्नुन मामले पर अलग तरह से जवाब दे रहा था तब क्या इस मामले पर गार्सेट्टी को लक्ष्मण रेखा” की बात करना कूटनीतिक तौर पर या वास्तविक तौर पर जरूरी था?

या टाइम्स ऑफ इंडिया को दिया गया उनका यह बयान देखिए कि अमेरिका आतंकवाद के मसले पर कथनी और करनी में फर्क करता है. हमारी तरह उनके देश को भी मालूम है कि आतंकवाद किस तरह एक्शन में बदल जाता है. पिछले तीन दशकों में किसी अमेरिकी राजदूत ने इतनी असंवेदनशील बातें शायद ही की होगी. यह कॉलिन पॉवेल के उस बयान के जैसा है जिसमें उन्होंने श्रीनगर में विधानसभा भवन पर बमबारी को एक भारतीय “इमारत” पर हमला बताया था. दोस्त लोग आपको खुलकर शर्मसार किए बिना भी कड़ा संदेश दे देते हैं.

हम मानते हैं कि गार्सेट्टी मुंबईया फिल्मी गाने पर जस्टिन ट्रूडो के भांगड़ा से बेहतर डांस कर सकते हैं, भले ही दोनों के परिधान पालिका बाजार के एक ही दर्जी के द्वारा सिले हुए क्यों न दिखते हों. आज 21वीं सदी में आप फिल्मी संगीत या ढोलक पर डांस दिखाकर भारतीयों का दिल-दिमाग नहीं जीत सकते, खासकर तब जबकि आप आतंकवाद के मसले पर उन्हें कथनी और करनी का फर्क समझा रहे हों.

इसके लिए किसी एक व्यक्ति, संस्था या कार्रवाई को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. हकीकत यह है कि बाइडन शासन के आखिरी महीनों में यह रिश्ता दबाव में फंस गया. मेरा अनुमान है कि भाजपा जैसे को तैसा जवाब दे रही है लेकिन निश्चित ही वह अपनी सरकार से सलाह नहीं कर रही है. और वे ट्रंप के गद्दीनशीं होने का इंतजार कर रहे हैं.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार ‘3-C’ के जाल में फंस गई है, इससे बाहर निकलने के लिए उसे चौथे C ‘कन्सेंसस’ का सहारा लेना पड़ेगा


 

share & View comments