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Tuesday, 5 November, 2024
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सबसे ताकतवर होने के बावजूद सबसे कमज़ोर क्यों हो गया है RSS

RSS चाहे चिर विद्रोही की भूमिका में रहा हो या सत्ता में, वह ‘अब्राहमवादी’ या साफ कहें तो मुस्लिम दुविधा से अभी तक उबर नहीं पाया है. क्या इस मामले में वह प्रगति कर सकता है? हम सरसंघचालक के अगले उद्बोधन या इंटरव्यू का इंतज़ार करेंगे.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के जितने भी सरसंघचालक हुए हैं वे संयमित जीवन जीने के लिए ही नहीं, बल्कि नियंत्रित सार्वजनिक बयान देने के लिए भी जाने जाते रहे हैं. इसीलिए, राजनीतिक माहौल पर नज़र रखने वाले लोग विजयादशमी के दिन उनके सालाना उद्बोधन का इंतज़ार करते हैं, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति के भाषण ‘स्टेट ऑफ द यूनियन स्पीच’ के जैसा माना जाता है.

वर्तमान सरसंघचालक मोहन मधुकर राव भागवत खामोशी की इस परंपरा को तोड़ते नज़र आते हैं. वे गाहे-बगाहे अटपटे बयान देते रहते हैं लेकिन शब्दों को तौलकर बोलते दिखाई देते हैं, खासकर तब जब उनकी तुलना उनके पूर्ववर्ती के.एस. हेगड़े से की जाती है जो सुर्खियों की तलाश करने वालों के चहेते थे. भागवत उनके जैसे तो नहीं हैं मगर वे भी सुर्खियों के लिए मसाला देते रहते हैं. इस हफ्ते आरएसएस के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ और ‘ऑर्गेनाइज़र’ को दिए अपने इंटरव्यू में भागवत ने यही किया था.

आखिरकार, कहा जा सकता है कि वे ऐसे माहौल में सरसंघचालक बने हैं जैसा आरएसएस के 100 साल के इतिहास में कभी नहीं आया था. आरएसएस की स्थापना 27 सितंबर 1925 को हुई थी. 2014 तक के 90 साल में आरएसएस हमेशा सुरक्षा घेरे में रहा, तत्कालीन सरकारों के साथ उसके संबंध टकराव वाले रहे, समाज में उसने स्वीकार किए जाने और राजनीति में अपनी प्रासंगिकता तलाशने की जद्दोजहद लगातार की है.

आज आरएसएस न केवल सत्ता का एक हिस्सा है, बल्कि उसका मूल आधार है. ‘पाञ्चजन्य’ को दिए इंटरव्यू के शुरू में ही भागवत ने इसे स्वीकार किया है. उन्होंने कहा है कि अतीत में आरएसएस के रास्ते में “कंटक” थे- बौद्धिक तथा राजनीतिक स्तरों पर अस्वीकारता और आलोचनाएं थीं. आज वह (राजनीतिक) माहौल बदल गया है.

इसके बाद भी वे नई चुनौतियों और मुश्किलों को गिनाते हैं, जिन पर हम यहां विस्तार से चर्चा करेंगे. उन्होंने इस दौरान क्या-क्या कहा है, अगर आप उसे विस्तार से जानना चाहते हैं तो ‘कट-द-क्लटर’ कार्यक्रम के इस एपिसोड को देखिए.

सरसंघचालक ने ठीक ही कहा है कि आज राजनीतिक माहौल बुनियादी रूप से बदल गया है, और वह आरएसएस के लिए बेहतर हुआ है. यही वजह है कि वर्तमान समय में आरएसएस अपने अब तक के इतिहास में सबसे शक्तिशाली स्थिति में है. लेकिन इसके साथ ही मैं यह भी कहूंगा कि आज जितना कमज़ोर वह पहले कभी नहीं था. इस विरोधाभास की क्या व्याख्या है?


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भागवत ने जिस नये, बदले हुए माहौल की बात की है उसने उनके संगठन के शिष्यों को सत्ता के प्रमुख पदों पर बिठा दिया है. आप चाहे बॉर्डर के जिस ओर हों, आप कुबूल करेंगे कि आरएसएस आज भारत पर राज कर रहा है.

नरेंद्र मोदी कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हैं जो अपनी क्लास से खुद को अलग दिखाने की कोशिश करेंगे या अपनी वैचारिक परवरिश को लेकर संकोची दिखेंगे. इसके अलावा, वाजपेयी के ज़माने में आरएसएस को अक्सर उनके साथ कभी-कभी तो खुले तौर पर भी नोक-झोंक करते देखा जाता था, लेकिन हमने मोदी के साथ ऐसा होते कभी नहीं देखा. जो कुछ देखा है, वह भरपूर प्रशंसा ही है.

इसलिए हमने उलटे यह कहा कि आरएसएस आज राजनीतिक रूप से सबसे शक्तिशाली भले हो लेकिन अपने प्रभाव के लिहाज़ से आज वह सबसे कमज़ोर स्थिति में है. इसकी वजह यह है कि उसकी राजनीतिक ताकत पूरी तरह मोदी की सरकार के बूते है. आरएसएस भले उनका गुरु हो लेकिन थोड़ी-सी आलोचना तो भूल ही जाइए, उन्हें सलाह या सुझाव का एक शब्द बोलने की भी हिमाकत कोई नहीं कर सकता. शिष्य जब इतना लोकप्रिय और दबंग हो जाए तब गुरु को किनारे खड़े होकर ताली बजानी ही पड़ती है.

इसका अर्थ यह हुआ कि आरएसएस आज ज्यादा सुर्खियों में नहीं रह सकता. वह सरकार पर सवाल उठाकर उसे परेशानी में नहीं डाल सकता. उसे कुछ पुराने, समाज को बांटने वाले, सामाजिक रूप से पिछड़े माने जाने वाले विचारों को किनारे रखना पड़ सकता है. उस पर सत्ता का एक भला साथी बनने की ज़िम्मेदारी आ गई है. सत्ता में नशा तो है, मगर मज़ा कम है.

सर्वशक्तिमान आरएसएस को आज उन मुद्दों पर समझौता करना पड़ रहा है, जो उसका वैचारिक आधार हैं- चाहे वह आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों का मुद्दा हो या सामूहिक नेतृत्व के बदले शक्तिशाली व्यक्ति की पूजा का या पश्चिमी देशों के साथ गठबंधन करने से लेकर महत्वपूर्ण इस्लामी देशों से संबंध बनाने का. बेशक, इससे आरएसएस और इसके सदस्यों, खासकर नेताओं को कई लाभ हासिल होते हैं. यहां पर हमें उन चुनौतियों और मुश्किलों की फिर से याद आती है जिनका जिक्र सरसंघचालक ने ‘पाञ्चजन्य’ को दिए इंटरव्यू में किया है.

पहली चुनौती है खबर देने वाला मीडिया. भागवत ने कहा है कि अब हम उस स्थिति में हैं कि मीडिया से बात कर सकें और हमें करनी भी चाहिए. यह हमें अच्छा लगता है लेकिन हमें उसके जुनून में नहीं फंसना और न ही उसका बंदी बनना. इसी तरह, जब हम रेलवे स्टेशन पर पहुंचते हैं तब लोग हमारा स्वागत करने आते हैं. यह अच्छा लगता है लेकिन हमें इसके मोह में नहीं पड़ना. हमारे लोग आज सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे हैं और कभी-कभी वे ऐसी बात कह सकते हैं या ऐसे काम कर सकते हैं जिससे हमारा संगठन बदनाम हो सकता है. इसका कुछ दोष हमें स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि ये लोग आखिर हमारे यहां से ही गए हैं. इतना तक तो चलता ही है.


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बावजूद इसके कुछ मुश्किलें सामने आती हैं. नौ दशकों तक विद्रोही के रूप में रहने के बाद आरएसएस के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती सत्तातंत्र के मूल आधार के रूप में अपनी नई भूमिका निभाने की है. औपचारिक सत्ता की बंदिशों में एक यह भी है कि आपको अपने प्रमुख वैचारिक मुद्दों पर अपनी आवाज़ को दबाना पड़ता है या अपने विचार को बहुत बारीकी से रखना पड़ता है, जैसा कि भागवत ने अपने इस इंटरव्यू में किया है. हालांकि, यह उतना आसान नहीं है जितना लगता है. अगर आपने इतने दशकों में एक चिर विद्रोही, हिंदुओं को प्रताड़ना से बचाने का बीड़ा उठाने वाले संगठन की भूमिका में अपना इतिहास, अपनी साख बनाई है, अपनी लोकप्रियता अर्जित की है तो आप इस सबसे खुद को अलग कैसे कर सकते हैं? और अलग होकर आप जाएंगे कहां?

मुसलमानों और ईसाइयों के बारे में विचारों जैसे अधिक गूढ़ मुद्दों की तुलना में दूसरे सामाजिक मुद्दों की टोह लेना आसान है. भागवत ने सामाजिक मुद्दों पर साफ नज़रिया पेश किया है. उदाहरण के लिए, ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों के मसले पर उन्होंने आरएसएस का नया रुख स्पष्ट किया है. उन्होंने इतिहास और परंपरा का हवाला देकर यह जताने की कोशिश की है कि हिंदू संस्कृति में इसे कभी एक समस्या नहीं माना गया, और यह कि इसकी आलोचना पश्चिम से प्रेरित है या ज्यादा संभावना यह है कि हमारे बौद्धिक वर्ग और मीडिया ने पश्चिमी नज़रिये को आंख मूंदकर अपना लिया है.

भागवत ने कहा कि भारतीय समाज किन्नरों को हमेशा स्वीकार करता रहा. उनके अपने अलग देवी-देवता रहे हैं. ट्रांसजेंडर्स के बारे में भागवत ने ‘महाभारत’ का हवाला देते हुए कहा कि जरासंध की सेना में हंस और डिंभक नाम के दो सेनापति ट्रांसजेंडर थे. भागवत ने कहा कि खुद पशुओं का एक डॉक्टर होने के नाते उन्होंने पशुओं में भी इस प्रवृत्ति को देखा है. यानी यह एक शारीरिक अवस्था है.

बेहद धार्मिक और रूढ़िवादी संगठन का नेतृत्व कर रहे व्यक्ति का यह सब कहना प्रगति की निशानी है. इस तरह के विचार आप किसी मुस्लिम या ईसाई धार्मिक नेता से आमतौर पर नहीं सुनेंगे. आपको प्रायः यही विचार सुनने को मिलेगा कि यह एक ‘मानसिक बीमारी’ है जिसका इलाज बेहतर धार्मिक शिक्षण के जरिए किया जा सकता है. इसी तरह, जनसंख्या वृद्धि के बारे में भागवत ने इस मांग को अस्वीकार किया कि परिवार का आकार सीमित करने के लिए कानून बनाया जाए. उन्होंने कहा कि ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं, बेहतर शिक्षा से ही काम बनेगा. यह बयान भी प्रगति की निशानी है. इसके बाद कुछ दुविधाएं उन पर हावी हो जाती हैं.

जैसी कि आप उम्मीद कर सकते हैं, मुसलमानों के मसले पर आरएसएस की दुविधाएं हावी हो जाती हैं. बावजूद इसके कि वह ऐसी सत्ता में हैं, भागवत ने कहा कि आबादी जन्मदर के कारण नहीं बढ़ रही है. जो भी हो, “जनसंख्या असंतुलन” बड़ी समस्या है. एक बार फिर उन्होंने दक्षिण सूडान, पाकिस्तान और पूर्वी तिमोर का उदाहरण देते हुए कहा कि ये देश इसलिए बने क्योंकि किसी एक आस्था के लोगों (सूडान और पाकिस्तान में मुसलमानों, और पूर्वी तिमोर में ईसाइयों) की आबादी बहुत बढ़ गई. विजयादशमी पर दिए अपने भाषण में उन्होंने सूडान और पूर्वी तिमोर के साथ कोसोवो का नाम भी लिया था. यानी, समस्या आबादी नहीं बल्कि असंतुलन है. इस असंतुलन के लिए कौन ज़िम्मेदार है?

भागवत ने कहा कि समस्या जन्मदर नहीं बल्कि धर्म परिवर्तन और घुसपैठ है. इसका अर्थ यह है कि समस्या ईसाई और मुसलमान हैं. इसके बाद उन्होंने कहा कि ईसाई पूरी दुनिया को ईसाई बनाना चाहते हैं, और मुस्लिम खुद को सबसे महान मानते हैं लेकिन हिंदुओं में कभी ऐसी कोई धारणा नहीं रही. इसके बाद मुसलमानों के लिए उपदेश, जो सुर्खियां बना और जिस पर टीवी के प्राइम टाइम पर गरमा-गरम बहसें चलाई गईं. खासकर इसलिए कि इसे उनके इस विचार से जोड़ा गया कि भारत (हिंदू) 1000 साल से लड़ता आ रहा है. यह काल तब का है जब मुसलमानों ने बड़े आक्रमण शुरू किए थे. भागवत ने कहा कि अब हम इतने ताकतवर हो गए हैं कि उसकी चिंता नहीं रही लेकिन यह तभी मुमकिन है जब हम हिंदू-बहुल राष्ट्र बने रहेंगे.

क्योंकि, उनके विचार से केवल हिंदू ही उदारता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं. यह हमें वापस वहीं ला खड़ा करता है, जहां से हमने शुरुआत की थी. आरएसएस चाहे चिर विद्रोही की भूमिका में रहा हो या सत्ता में, वह ‘अब्राहमवादी’ या साफ कहें तो मुस्लिम दुविधा से अभी तक उबर नहीं पाया है. क्या इस मामले में वह कुछ प्रगति कर सकता है? हम सरसंघचालक के अगले उद्बोधन या इंटरव्यू का इंतज़ार करेंगे.

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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