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Saturday, 15 February, 2025
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‘डीप स्टेट’ और ‘नॉन-स्टेट एक्टर’ बहस का मुद्दा हो सकते हैं, मगर असली खेल ‘शैलो स्टेट’ खेलता है

तमाम लोकतांत्रिक देशों में ‘डीप स्टेट’ आज साजिश के आरोपों को जन्म दे रहा है. इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई और अब भारत भी इसमें तेजी से आगे बढ़ रहा है. कई यूरोपीय देश भी इस कारवां में शामिल हो रहे हैं.

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अभी साल 2025 के शुरुआती दिन ही हैं लेकिन ऐसा लगता है कि ‘डीप स्टेट’ नाम का मुहावरा ‘पूरे साल का सबसे प्रचलित शब्द’ का खिताब जीत जाएगा. कोई भी गलत काम हो उसे हम इस बदनाम मुहावरे ‘डीप स्टेट’ के खाते में डाल देते हैं.

वैसे, यह इतना रहस्यमय भी नहीं है. यह हम सबकी जिंदगी और शासन व्यवस्था का उतना ही हिस्सा है जितना ‘शैलो स्टेट’ या ‘नॉन स्टेट’ है. ‘शैलो स्टेट’ वह व्यवस्था है जो अनुभव, ज्ञान, साझा मूल्यों, परंपराओं जैसी किसी भी चीज को नहीं मानती. ‘नॉन स्टेट’ वह व्यवस्था है जो किसी संप्रभु राज्य-व्यवस्था से सीधे जुड़ी हुई नहीं होती. यहां हम इन परिभाषाओं की जांच करेंगे और देखेंगे कि ये किस तरह आपस में गुंथी हुई हैं.

सबसे पहले हम यह देखते हैं कि डिक्शनरी/विकीपेडिया ‘में डीप स्टेट’ की क्या परिभाषा दी गई है. इसमें कहा गया है : यह सत्ता का एक गुप्त और अनधिकृत नेटवर्क है जो अपना एजेंडा लागू करवाने या अपने मकसद पूरे करने के लिए देश के राजनीतिक नेतृत्व से अलग रहते हुए काम करता है. यह सब बेशक नकारात्मक और षड्यंत्रकारी है. इसके बाद हम तीन उदाहरणों वाला अपना फॉर्मूला लागू करते हैं और इन खास मसलों/घटनाओं का जिक्र करते हैं—

  • बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन. यह अचानक और नाटकीय रूप से सड़कों पर फूटी हिंसा, नेतृत्व विहीन आंदोलन के कारण हुआ. इसके लिए अमेरिकी ‘डीप स्टेट’ (डीएस) को व्यापक तौर पर दोषी बताया गया. इसे अमेरिकी ‘डीएस’ की कामयाबी भी बताया गया और यह भी तोहमत लगाई गई कि इस तरह की कार्रवाई भारत में भी करने की साजिश थी, क्योंकि बाइडन शासन और उसका डीएस नरेंद्र मोदी को पसंद नहीं करता था.

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  • इसके बाद, पिछले दो वर्षों में अडाणी समूह के खिलाफ किए गए खुलासों की सीरीज़. इनमें से कई खुलासे हिंडनबर्ग जैसी रहस्यमय संस्था ने किए और वे जिस तरह सामने आए थे उसी तरह हवा भी हो गए. इनके अलावा ‘ओसीसीआरपी’ (ऑर्गनाइज्ड क्राइम ऐंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट) की वित्तीय मदद से चलने वाले संगठनों की ओर से भी कई खबरें आईं. एक ‘आइसीआइजे’ (इंटरनेशनल कन्सोर्टियम ऑफ इनवेस्टिगेटिंग जर्नलिस्ट्स) भी है. इन दोनों को जॉर्ज सोरोस द्वारा बनाई गई ‘ओपन सोसाइटी फाउंडेशन्स’ से मदद मिलती है. सोरोस को वामपंथी झुकाव वाले ‘एनार्किस्ट’, अराजकतावादी (मैं उन्हें ‘लिबरल’, उदारवादी नहीं कहूंगा), और शेयर तथा मुद्रा बाजार के खिलाड़ी के रूप में जाना जाता है. उन्होंने 1992 में बैंक ऑफ इंग्लैंड और पाउंड को तोड़ा था और 1997 के वित्तीय संकट के दौरान पूर्वी एशिया के कई प्रमुख देशों को संकट में डाल दिया था. इन दोनों संगठनों ने अडाणी के खिलाफ खोजी खबरें जुटाने में मदद दी थी. साजिश का पेंच यह था कि इसका मकसद मोदी सरकार पर परोक्ष रूप से हमला करना था. वास्तव में, प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के चालू बजट सत्र के शुरू में ही टिप्पणी की थी कि कई वर्षों में पहली बार बजट सत्र ‘विदेश से की गई कारस्तानी’ के बिना शुरू हो रहा है.
  • और तीसरा उदाहरण: कनाडा और अमेरिका में सिख उग्रवादियों की कार्रवाइयों के कारण भारत का दो बार मुश्किल और शर्मनाक स्थितियों से सामना. हरेक मामले में अमेरिकी मीडिया ने खबरों को काफी विस्तार से और लंबे समय तक जारी रखा. अडाणी के मामले में ‘फाइनांशियल टाइम्स’ ने भी ऐसा ही किया. कहा जा रहा है कि इस सबको कोई संयोग नहीं माना जा सकता. यह सब जरूर ‘डीएस’ का ही काम होगा. कहा जा रहा है कि यह भी जान लीजिए कि डॉनल्ड ट्रंप, एलन मस्क और उनके सहायक सब भी जबकि कीचड़ की सफाई करने लगे हैं तब इसके खिलाफ शिकायत कर रहे हैं.

यहां तक तो सब ठीक है, अब हम हर मामले की विस्तार से जांच करते हैं. बांग्लादेश के मामले में क्या हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि वहां तख्तापलट अमेरिकी सरकार की निगरानी में काम कर रहे किसी ‘गुप्त और अनधिकृत’ समूह की करतूत थी? अगर आपने ऐसी तस्वीरें देखी हों कि सोरोस का बेटा पिछले महीने बांग्लादेश के ‘चीफ एड्वाइजर’ मुहम्मद यूनुस से मुलाक़ात करने के लिए ढाका पहुंचा, तब आपका संदेह पक्का हो जाएगा. इसके साथ यह प्रतीकात्मक (अगर यह विशेषण मुझे सिर्फ एक बार प्रयोग करने की इजाजत दी जाए, क्योंकि किसी मूर्ति के सिवा किसी और चीज के लिए इसका प्रयोग करने की इजाजत मैं अपने न्यूज़रूम को नहीं देता) तस्वीर भी देखिए जिसमें बाइडन बड़े स्नेह से यूनुस के कंधे पर हाथ रखे हुए दिखते हैं.

अगर शेख हसीना के पतन की साजिश सचमुच अमेरिकियों ने की, तो क्या किसी ‘डीएस’ ने इसे अपने तईं अंजाम दिया या बाइडन शासन के मेल से? साजिश का सिद्धांत पेश करने वाले ‘डीएस’ की जो परिभाषा देते हैं उस पर यह खरा नहीं उतरेगा.

ऐसे रहस्यमय, अनियत, अपरिभाषित किस्म के संगठन होते हैं जो किसी सामान्य, खुली राज्यसत्ता के लिए काम करते हैं. तब यह पेचीदा सवाल उभरता है कि आप लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद के बारे में क्या कहेंगे? पाकिस्तानियों की तरह क्या आप उन्हें राज्यसत्ता से अलग संगठन कहेंगे? या ‘डीप स्टेट’ कहेंगे? दोनों परिभाषाएं पाकिस्तानी राज्यसत्ता को खंडन करने का आसान बहाना देंगी. लेकिन वे राज्यसत्ता के हिस्से हैं और भारत के लिए बहुत खतरनाक हैं.

अडाणी का मामला कुछ ज्यादा पेचीदा हो सकता है क्योंकि हिंडनबर्ग और ‘ओसीसीआरपी’ की खबरों में अमेरिकी सरकार का हाथ होने के साफ संकेत नहीं मिलते. तब क्या ‘डीएस’ सक्रिय था? लेकिन यहां तो अमेरिका के न्याय विभाग और सिक्यूरिटीज ऐंड एक्सचेंज कमीशन ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के मुक़ाबले कहीं ज्यादा मजबूत और खतरनाक अभियोग लगाए हैं. अब यह बताइए कि हिंडनबर्ग और ‘ओसीसीआरपी’ सरकार से अलग काम कर रहे थे या मिलकर? या इसका उलटा हो रहा था?

और अंत में, भारत को निज्जर और पन्नुन के मामलों में कनाडा और अमेरिका में हुई परेशानी की बात. इसे ‘डीएस’ का काम मुख्यतः इसलिए माना गया क्योंकि अमेरिका और कनाडा की मीडिया इन मामलों को लेकर खास तौर से सक्रिय थी. उनकी सारी खबरें उनके ही खुफिया अधिकारियों द्वारा दी गई जानकारियों पर आधारित थीं.

एक नजरिए से ‘डीएस’ में नौकरशाही, सरकारी सेवाओं, पुलिस, सेना, न्यायपालिका, रेगुलेटरों, चुनाव आयोग, और उन संगठनों को शामिल किया जा सकता है जो विभिन्न सरकारों के कार्यकालों के दौरान बने रहते हैं. वे नियमों का पालन करते हैं, निरंतरता बनाए रखते हैं और थाती की रक्षा करते हैं. 1996 से 1999 के बीच भारत में छह प्रधानमंत्री हुए. सरकारी अधिकारियों, सेना अधिकारियों, परमाणु वैज्ञानिकों के शानदार समूह ने हमारे रणनीतिक कार्यक्रमों की निरंतरता बनाए रखी, उनकी सुरक्षा की और एक शब्द भी लीक नहीं होने दिया.

यह व्यवस्था से अलग तरह से भी काम कर सकती है. तमाम दशकों तक उन्होंने हमारे परमाणु प्रतिष्ठानों की गोपनीयता बनाए रखी और वे उन्हें ‘शांतिपूर्ण’ बताते रहे लेकिन 1998 में उन्होंने उन सबका खुलासा कर दिया और उन्हें सैन्य प्रतिष्ठान बता दिया. ऐसा उन्होंने क्यों किया?

क्योंकि वाजपेयी सरकार ने उन्हें ऐसा करने के लिए कहा. यह ‘डीएस’, जो निरंतरता बनाता है और व्यापक नीतियों तथा राष्ट्र की प्रतिबद्धताओं को लेकर दिए गए आश्वासनों को कायम रखने का काम करता है वह राजनीतिक नेताओं, जिन्हें हम ‘शैलो स्टेट’ का हिस्सा मानते हैं, के निर्देश पर बदल भी जाता है.

वे ‘शैलो’ यानी उथले इसलिए नहीं हैं कि वे कमजोर हैं, बल्कि इसलिए हैं कि वे अस्थायी होते हैं. वास्तव में असली ताकत उनके ही हाथ में होती है. इसका इस्तेमाल सिर्फ इसलिए किया जाता है ताकि राजनीतिक नेतृत्व कहीं ज्यादा गहरे ‘डीप स्टेट’ को अपने काबू में रख सके. ‘शैलो स्टेट’ जब कमजोर पड़ता है तभी ‘डीप स्टेट’ अपना एजेंडा चलाता है. यह हमने तब देखा था जब मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर दस्तखत किया था. इस संधि का अधिकतर विरोध उनके ही कार्यालय और उनके विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा लीक की गई जानकारियों पर आधारित था, जिसके पीछे कुछ तो अमेरिका-विरोधी भावनाओं का भी हाथ था, और कुछ तो यह कि कुछ लोगों को यह परिवर्तन कुछ ज्यादा ही तीखा लग रहा था.

इसलिए परमाणु जवाबदेही कानून को इतना सख्त बना दिया गया कि पूरी संधि ही बेमानी हो गई. मोदी सरकार ने इस बार के बजट में इसे ही बदलने का वादा किया, जिसका मोदी-ट्रंप के संयुक्त बयान में जिक्र भी किया गया है.

और अंत में, ‘नॉन स्टेट’ का क्या? प्राचीन काल से संप्रभुता संपन्न देश अपना मकसद पूरा करने के लिए ‘नॉन स्टेट’ यानी राज्यसता से असंबद्ध किरदारों का इस्तेमाल करते रहे हैं. ई.पू. तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक के भिक्षुओं से लेकर मध्ययुग के सूफियों, और आज के ऑक्सफैम, ओमिड्यार और सोरोस तक तमाम ऐसे किरदारों ने जब वास्तविक राज्यसत्ता के साथ मिलकर काम किया तब ताकतवर रहे. उदाहरण के लिए, ‘यूएसएड’ क्या है? यह ‘डीएस’ नहीं हो सकता क्योंकि यह अमेरिक राज्यसत्ता का ही एक अंग है. इस हद तक कि मार्को रूबिओ ने इसकी कमान संभाल ली है और इसे विदेश मंत्रालय में शामिल कर दिया है. ट्रंप के खेमे की आपत्ति यह है कि वामपंथी विचारकों ने इसे ‘हाइजैक’ कर लिया था और इसका इस्तेमाल अमेरिका के हितों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि अपनी मनमानी करने के लिए कर रहे थे.

इस सहस्राब्दी के भारत में आइए और सवाल उठाइए कि आरएसएस क्या है? भाजपा कहेगी कि यह संगठन सत्ता से जुड़ा नहीं है. कांग्रेस से पूछेंगे तो वह कहेगी कि आरएसएस भाजपा का ‘डीप स्टेट’ है. यही समीकरण भाजपा और कांग्रेस यूपीए सरकार के अधीन सोनिया गांधी की ‘एनएसी’ (राष्ट्रीय सलाहकार कमिटी) के बारे में पूछे जाने पर प्रस्तुत करेंगी. एक ‘शैलो स्टेट’ के मुखिया का ‘डीप स्टेट’ दूसरे ‘शैलो स्टेट’ के मुखिया के लिए राज्यसत्ता से असंबद्ध संगठन हो जाता है.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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