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Sunday, 22 December, 2024
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वो 7 कारण जिसकी वजह से मोदी सरकार ने कृषि सुधार कानूनों से हाथ खींचे

कृषि सुधार मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की बड़ी उपलब्धि बन सकते थे मगर समझदारी तथा धैर्य की कमी और अतीत के प्रति नफरत ने इसे एक संकट में बदल दिया है.

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बहानेबाजी, मिशन रद्द, झिझक, रणनीतिक कदम-वापसी, गतिरोध— कृषि सुधार क़ानूनों पर मोदी सरकार की दुविधा को आप इन्हीं शब्दों में बयान कर सकते हैं. इसे पराजय या आत्मसमर्पण न कहें, फिर भी यह एक झटका तो है ही. यह दुखद भी है, क्योंकि ये कानून सुधारवादी हैं, साहसिक हैं और किसानों का नुकसान करने की बजाय कुल मिलाकर उनकी मदद ही करेंगे. लेकिन, सभी सुधारों की राजनीतिक मार्केटिंग करनी पड़ती है. गुपचुप धीरे-धीरे सुधार लाने के दिन गए. सुधारों के बगीचे में कोई फल इतना नीचे नहीं लटक रहा कि आप आसानी से तोड़ लें. इसलिए जरूरी है कि हम यह समझ लें कि इस मामले में गड़बड़ क्या हुई है, क्योंकि कोई भी विचार उतना ही अच्छा या बुरा होता है, जितना उससे प्रभावित होने वाले उसे मानते हैं.


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हमारे विचार से, मोदी-शाह की जोड़ी किसानों को कायल करने में निम्नलिखित सात मुख्य वजहों से विफल रही.

– वे यह नहीं कबूल कर सकते कि उत्तर भारत में एक ऐसा गैर-मुस्लिम राज्य है जिसके जनमत पर नरेंद्र मोदी की वैसा असर नहीं है जैसा हिंदी पट्टी पर है.

-वे इसे कबूल नहीं करते, उन्हें स्थानीय सहयोगी की जरूरत कभी महसूस नहीं हुई. यही वजह है कि उन्होंने अकालियों से कुट्टी कर ली. पंजाब के सिख असम के हिंदू जैसे नहीं हैं जो मोदी को तब भी वोट देंगे जब वे उनके प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी की उपेक्षा करेंगे और उसके नेताओं को चुरा लेंगे.

– हम इस स्तम्भ में पहले भी कह चुके हैं कि वे सिखों को नहीं समझ पाए. वे उन्हें मूलतः हिंदू ही मानते हैं, बेशक उनकी वेश-भूषा अलग है. तथ्य यह है कि ऐसा है भी और ऐसा नहीं भी है. मगर बारीकियों की समझ से मोदी-शाह की भाजपा का रिश्ता दूर का ही है.

-पंजाब के किसान 20वीं सदी के शुरू में ही भगत सिंह से भी पहले से वामपंथी प्रभाव में आ गए थे, जिसे भाजपा कभी समझ नहीं पाई. सिख धर्म और गुरुद्वारों में सामुदायिक कार्रवाई की अनूठी परंपरा रही है. इसमें वामपंथ के संगठन कौशल और राजनीतिक विवेक को भी जोड़ दीजिए. केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पीयूष गोयल को वार्ता-दर-वार्ता इसी का सामना करना पड़ रहा है.

-इन सारे कारणों की वजह से मोदी सरकार ने इन कृषि सुधारों को शुरू में प्रचारित नहीं किया. आपने हरित क्रांति वाले राज्यों के किसानों को यह नहीं बताया कि जिस व्यवस्था की बदौलत वे समृद्ध हुए हैं वह अब टूट चुकी है इसलिए ये तीन कानून बनाए गए हैं.

-आप सिखों पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती नहीं कर सकते. अधिक रूखे ढंग से कहें, तो आप उनके साथ वैसा बर्ताव नहीं कर सकते जैसा मुसलमानों के साथ कर सकते हैं. और आप उनकी देशभक्ति पर संदेह नहीं कर सकते. आप वैसा बर्ताव कीजिएगा तो सारा देश विरोध करेगा. आप उन पर संदेह करेंगे तो सिख और पूरा देश आप पर हंसेगा कि आपको हो क्या गया है. यह संकट आपको अपने सामान्य हथियारों का इस्तेमाल करने से रोकता है, चाहे वह बल प्रयोग हो या सरकारी एजेंसियां, प्रोपेगेंडा हो या उग्र राष्ट्रवाद, आदि-आदि.

-और अंत में, मोदी-शाह की खासियत— अतीत के प्रति नफरत का भाव. इसकी वजह यह है कि आप तो यह मान कर चलते हैं कि इस गणतंत्र का इतिहास तो 2014 की गर्मियों से ही शुरू होता है और उसके पहले जो कुछ हुआ वह सब विनाशकारी था, जिसमें सीखने लायक कुछ भी नहीं है.

इस 7वीं बात पर जरा विस्तार से विचार करें. भाजपा के नेता अगर 2014 के बाद सत्ता और अपनी महिमा के गान से इतने सम्मोहित न होते तो वे शायद किसी से कहते कि वह उन्हें अतीत के अनुभवों के बारे में कुछ बताए, बेशक इसमें जवाहरलाल नेहरू की उन कथित भूलों का जिक्र न होता जिनके बारे में उन्हें संघ की बौद्धिक कक्षाओं में ‘पढ़ाया’ गया है. तब उन्हें पता लगता कि बेहद शक्तिशाली नेता को अपनी लोकप्रियता के शिखर पर गलत कदम उठाने के बाद किस तरह कदम वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

तब, नरेंद्र मोदी को पता चलता कि इंदिरा गांधी ने 1973 में देश के पूरे अनाज व्यापार का राष्ट्रीयकरण करके किस तरह गलती की थी. तब वे उनका समाजवादी जुनून शिखर पर था और बांग्लादेश विजय के बाद वे दुर्गा की अवतार बताई जा रही थीं. माना जा रहा था कि वे कोई गलत कदम नहीं उठा सकतीं लेकिन उसी दौरान अर्थव्यवस्था युद्ध की मार, उनके तानाशाही समाजवाद और योम कीप्पुर युद्ध के कारण तेल की कीमतों में वृद्धि से परेशान थी. मुद्रास्फीति 33 प्रतिशत पर जा पहुंची थी. उस दौर की कहानी इतिहासकार श्रीनाथ राघवन द्वारा लिखित और रामचंद्र गुहा द्वारा संपादित पुस्तक ‘बिल्डर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया’ में विस्तार से बताई गई है.


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यह वह दौर भी था जब इंदिरा गांधी ने सोवियत शैली वाले अपने समाजवादी कल्पनालोक में प्रवेश कर लिया था, जिसमें कार समेत तमाम चीजों के दाम निश्चित कर दिए गए थे. ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ के एडिटोरियल चेयरमैन टी.एन. नायनन ने 2014 के अपने एक लेख में उस दौर का विवरण दिया है और अनाज व्यापार के राष्ट्रीयकरण को श्रीमती गांधी की सबसे बड़ी भूल बताया है. इस कहानी का संक्षिप्त रूप यह है कि उनके वामपंथी झुकाव वाले सलाहकारों, और मुख्य सलाहकार तथा योजना आयोग के उपाध्यक्ष पी.एन. हक्सर ने उन्हें समझाया कि कीमतों को काबू में रखने का सबसे बढ़िया उपाय यह है कि अनाज के व्यापार को बाज़ार के दखल से मुक्त करके उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए. इसके पक्ष में जनमत को तैयार करने की कोई कोशिश नहीं की गई. यही सब फालतू चीजें करनी पड़ीं, तो एक ताकतवर और सबसे लोकप्रिय नेता होने का मतलब क्या रहा?

इसके बाद पहाड़ टूट पड़ा. किसान, व्यापारी, उपभोक्ता, सबका गुस्सा फूट पड़ा. यही नहीं, कीमतें चढ़ गईं, अनाज की कमी फिर पैदा हो गई, किसान और बदहाल होने लगे. इंदिरा गांधी की ‘सिस्टम’ में एक शख्स ने आसन्न संकट को भांप लिया और उन्हें सावधान करने की कोशिश की. ये शख्स थे जाने-माने अर्थशास्त्री, पंजाब के बी.एस. (बगीचा सिंह) मिन्हास—पंजाब विश्वविद्यालय के अमृतसर के खालसा कॉलेज के ग्रेजुएट और स्टैनफोर्ड से पीएचडी. वे कृषि व्यापार और किसानों के मन को अच्छी तरह समझते थे. लेकिन उनकी चेतावनी खारिज कर दी गई.

यह एकमात्र बड़ा फैसला था जिसे श्रीमती गांधी को वापस लेना पड़ा, वह भी तब जब उनके सामने कोई राजनीतिक चुनौती नहीं थी. एक बार जब वे कमजोर पड़ीं, विपक्ष का हौंसला बढ़ गया और जयप्रकाश नारायण का आंदोलन तेज हो गया. हम मानते हैं कि दोनों स्थितियों में अंतर है. श्रीमती गांधी ने किसानों से निजी बाज़ार छीनने की कोशिश की और हार गईं. मोदी किसानों के लिए और बाज़ार उपलब्ध कराना चाहते हैं मगर किसानों को यह मंजूर नहीं है. अर्थव्यवस्था की वैचारिक दिशा के मामले में दोनों स्थितियां एक-दूसरे के विपरीत हैं. लेकिन उनमें कोई राजनीतिक भेद नहीं है. दोनों मामलों में, अजेय, परम शक्तिशाली और लोकप्रिय नेता अपनी सीमाओं को समझने में भूल कर बैठे. श्रीमती गांधी को तब लोकसभा में 352 सीटें हासिल थीं, तो मोदी को आज 303 सीटों की ताकत हासिल है.

यहां तक कि आज के चीन और रूस की तरह की ठेठ तानाशाही व्यवस्था में भी नेता के अधिकारों की एक सीमा होती है. भारत उस जमात में तो कहीं नहीं है लेकिन बहुलतावादी लोकतंत्र में भी नेता की लोकप्रियता की एक सीमा होती है. यह वजह है कि नेताओं को समझाने-बुझाने की कला में पारंगत होना जरूरी माना जाता है. मोदी इसमें पारंगत हैं. यही वजह है कि उनकी सरकार टहोका मारने वाली अर्थनीति की बात करती है. या सटीक ढंग से कहें तो राजनीतिक अर्थनीति में टहोका लगाने वाला तरीका अपनाती है. जहां यह आसान था वहां मोदी ने यह किया, जैसे कि रसोई गैस सिलेंडर को ‘सरेंडर’ करने का अभियान, जिसमें उनके समर्थकों समेत बड़ी आबादी शामिल हुई लेकिन उन्हें पंजाब में न तो वह लोकप्रियता हासिल है और न उस तरह का संपूर्ण भरोसा हासिल है जैसा गुजरात या हिंदी पट्टी में हासिल है. अगर वे पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे, अगर उनके राजनीतिक सलाहकार और नौकरशाही की ओर से चेतावनी और सलाह के संकेत थे, तो उन्हें समझ जाना चाहिए था कि इस मामले में हालात भिन्न हैं. इसलिए समझाने- बुझाने, टहोका देने, जमीन तैयार करने की जरूरत थी. अगर आपका लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतना है, तो चाणक्य नीति से काम चल सकता है लेकिन शासन के लिए चाणक्य नीति भी चाहिए और रामराज्य वाली मर्यादा भी (दूसरों की सुनें और कुछ उनके मन की करें, कुछ अपने मन की). आप किसानों की पिटाई करके उन्हें राजी नहीं कर सकते, न ही उन्हें ‘खालिस्तानी’ कह के खारिज कर सकते हैं.

धैर्य की इस कमी, पंजाब में अपनी लोकप्रियता की सीमाओं को लेकर नासमझी के कारण ही हम कृषि क़ानूनों के मामले में इस बड़े संकट से रू-ब-रू हैं. यह उपरोक्त छह वजहों को स्पष्ट करता है. यह मोदी के दूसरे कार्यकाल का सबसे सुधारवादी कदम साबित हो सकता था, जबकि पहले कार्यकाल में उन्होंने अर्थव्यवस्था के साथ घालमेल कर डाला था. लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं, लोकतंत्र में अर्थनीति अगर राजनीति का ही दूसरा रूप नहीं है तो और क्या है?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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2 टिप्पणी

  1. आपकी विचारधारा में अतिवाद के आलवा कुछ नही दिखता।

  2. Bhai kya? Khna kya chahte ho. ?kuch pta b h kya likhne ke liye soch ke baitha tha? Teri to vo halat h jaise koi aurat khana bnane ka saman tyari krte hue jab pyaj kat rhi ho or use koi puch le bhenji kya hua. Fir dekho na paida hone se leke aaj tak ki sab khani pyaj wale aansuo me nipta deti h……… Bhai kam dham krle koi dhang ka kyo chugliyo me lga h

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