भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कई पुरस्कार मिल चुके हैं. उन्हें अक्सर तब अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान मिलते हैं. जब भारत में कोई महत्वपूर्ण चुनाव होने वाला हो. इसलिए ये अचरज की बात है कि वह नोबेल शांति पुरस्कार की होड़ में शामिल नहीं होते. यदि वह सोल शांति पुरस्कार जीत सकते हैं, तो फिर नोबेल क्यों नहीं?
नोबेल शांति पुरस्कार या तो मुद्दा विशेष पर अभियान चलाने वालों या शांति स्थापित करने वालों को दिया जाता है. नरेंद्र मोदी दोनों ही श्रेणी में आते हैं. नोबेल शांति पुरस्कार हेतु अपने दावे को मजबूत करने के लिए मोदी 2019 के विजेता इथियोपियाई प्रधानमंत्री अबी अहमद से सीख सकते हैं.
नरेंद्र मोदी जब 2014 में तत्कालीन अलोकप्रिय सरकार को पराजित कर सत्ता में आए, तो उनसे बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. अबी अहमद भी अप्रैल 2018 में ऐसी परिस्थितियों में ही प्रधानमंत्री बने थे. उनसे लोगों की इतनी अधिक अपेक्षाएं थीं कि उस स्थिति को ‘अबीमैनिया’ कहा जाने लगा था. मोदी और अबी में एक और बड़ी समानता है- दोनों का अपनी अलग छाप छोड़ने पर यकीन है, खास कर कूटनीति में. दोनों ही अपने इर्द-गिर्द व्यक्ति-पूजक माहौल को बढ़ावा देने में भरोसा करते हैं.
दोनों के बीच समरूपता देखने का मतलब ये नहीं है कि दोनों की परिस्थितियां हूबहू एक जैसी हैं. इथियोपिया बेशक भारत नहीं है. भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी इथियोपिया के मुकाबले तीन गुना है.
इथियोपिया में संघर्ष, देश के भीतर विस्थापित लोगों की संख्या, राजनीतिक हिंसा और दमन तथा कैद या निर्वासन भुगत रहे पत्रकारों और राजनीतिक विरोधियों की संख्या आदि के स्तर की भारत में कल्पना नहीं की जा सकती है, पर ठीक से ये कहना भी मुश्किल है कि क्या भारत उसी रास्ते पर नहीं चल पड़ा है.
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यदि प्रधानमंत्री मोदी नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करना चाहते हैं तो उन्हें देखना चाहिए कि अबी कैसे इथियोपिया को अधिनायकवाद से लोकतंत्र, दमन से आज़ादी और संघर्ष से सुलह की ओर ले जा रहे हैं. अबी उस रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं, जिससे कि मोदी कदम खींच रहे हैं.
राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र
1993 में इरिट्रिया के अलग होने के कारण इथियोपिया का ‘बंटवारा’ हो गया था. विभाजन सुचारू ढंग से नहीं होने के कारण दोनों पक्षों में सीमा विवाद पर युद्ध हुआ और खास कर एक इलाके पर दावा जताते हुए वे 1998 से 2000 तक लड़ते रहे. युद्ध गतिरोध की स्थिति में समाप्त हुआ और छिटपुट झड़पों में लोग जान गंवाते रहे. ये कहानी भारत या पाकिस्तान के लोगों को जानी-पहचानी लग सकती है.
संयुक्त राष्ट्र ने पाया कि विवादित क्षेत्र इरिट्रिया को सौंपा जाना चाहिए, पर इथियोपिया इसके लिए राज़ी नहीं हुआ. ज़मीन के एक टुकड़े के लिए हुए संघर्ष में 80 हज़ार लोग मारे गए. अबी अहमद ने भी युद्ध में भाग लिया था, जो उस समय सेना में खुफिया अधिकारी थे.
कोई भी सैनिक अधिकारी से प्रधानमंत्री बने व्यक्ति को मोदी की तरह अतिराष्ट्रवादी होने की ही अपेक्षा करेगा, पर अबी ने कहा कि उनका देश 2000 में हुए शांति समझौते की शर्तों का अनुपालन करेगा. हिंसा और शत्रुता एक झटके में खत्म हो गई. अबी के इसी पहल के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया है.
इसके विपरीत, नरेंद्र मोदी के शासन में पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ा है. भारत की दलील हमेशा से यही रही है कि पाकिस्तानी सेना को स्थाई शत्रुता चाहिए और इसलिए वो आतंकवादियों का इस्तेमाल करता है, पर भारत कश्मीरियों के साथ सौहार्द स्थापित कर पाकिस्तानी आतंकवाद को बेअसर कर सकता है. कश्मीरियों की भारत से विरक्ति ने पाकिस्तानी आतंकवाद को सहारा देने का ही काम किया है.
पर, मोदी के कार्यों से श्रीनगर में भारत के प्रति बची-खुची सद्भावना भी जा चुकी है. जम्मू-कश्मीर राज्य को खत्म किए जाने और तोड़े जाने से पाकिस्तान के साथ तनाव और गहरा गया है. इसने आतंकवाद के खतरे को बढ़ा दिया है, जो कि आगे सैनिक कार्रवाई की वजह बनेगा. हिंसा का ये दुष्चक्र भारत को एक राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र में तब्दील कर सकता है.
असहमति किसे चाहिए?
पूर्व सैन्य अधिकारी अबी अहमद इथियोपिया को राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र नहीं बनाना चाहते हैं. वह शांति, स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पैरोकार हैं. उनके इरिट्रियाई समकक्ष को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला क्योंकि वह दमनकारी शासन चलाते हैं.
इथियोपिया में 1995 से ही चार दलों के एक गठबंधन का शासन है, जिसे इथियोपियन पीपुल्स रिवॉल्युशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (ईपीआरडीएफ) कहा जाता है. वहां का चुनाव मजाक प्रतीत होता है. 2015 के चुनाव में ईपीआरडीएफ को 547 में से 500 सीटों पर जीत मिल थी. प्रेस की स्वतंत्रता को खत्म कर दिया गया था, विपक्षी नेता जेल में थे और असंतुष्टों को निर्वासित कर दिया गया था. जब अबी 2018 में सत्तारूढ़ हुए तो उन्होंने हज़ारों राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया, निर्वासित असंतुष्टों को वापस बुलाया और अपने से असहमति रखने वालों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया.
इसी सिलसिले में एक पूर्व राजनीतिक कैदी और विपक्षी नेता को राष्ट्रीय चुनाव बोर्ड की कमान सौंपी गई. अबी 2020 के आमचुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष देखना चाहते हैं. इथियोपिया में पहले ही अभिव्यक्ति और बोलने की अभूपतपूर्व आजादी दी जा चुकी है. जबकि पहले वहां विरोधियों और असंतुष्टों को आतंकवादी करार दिया जाता था. इधर मोदी के भारत में, ऐसे लोगों को राष्ट्र-विरोधी, हिंदू-विरोधी और ‘शहरी नक्सली’- इसका जो भी मतलब हो- कहा जाने लगा है. अबी ने जहां राजनीतिक धरातल का विस्तार किया, वहीं मोदी इसे छोटा करते जा रहे हैं.
मोदी के भारत में, उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा स्थानीय पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने में दिखाई जा रही तत्परता के मद्देनज़र, जल्दी ही जेल पत्रकारों से भरने लगेंगे. जहां इथियोपिया अपने चुनावों की विश्वसनीयता सुनिश्चित करना चाहता है, वहीं नरेंद्र मोदी की सरकार असहमति जताने वाले चुनाव आयुक्त के पीछे पड़ उसके परिवार को आयकर के नोटिस भिजवा रही है. भारतीय चुनाव आयोग 2019 के लोकसभा चुनावों में उतना निष्पक्ष नहीं दिखा था. कश्मीर में संपूर्ण राजनीतिक वर्ग नज़रबंद है और पूरे भारत में एक विशेष तरह के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के तहत सिर्फ राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया जा रहा है. जहां प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में इथियोपिया का दर्जा बढ़ रहा है, वहीं भारत नीचे लुढ़क रहा है.
नोबेल शांति पुरस्कार हासिल करने के लिए मोदी को एक और क्षेत्र में अबी अहमद से सीख लेनी होगी. सरकारी कंपनियों का निजीकरण करते हुए अबी सचमुच में इथियोपिया की अर्थव्यवस्था में सुधार कर रहे हैं और इस तरह आर्थिक विकास को गति दे रहे हैं. भारत को जहां आर्थिक सुस्ती का सामना करना पड़ रहा है, वहीं इथियोपिया की विकास दर दो अंकों को छू रही है (और कोई अबी पर आंकड़ों से छेड़छाड़ करने का आरोप भी नहीं लगा रहा).
अनेकता में एकता
उपरोक्त बातों में से किसी का मकसद ये साबित करना नहीं है कि इथियोपिया में सबकुछ बढ़िया ही चल रहा है, पर मोदी के विपरीत अबी ऐसा दावा भी नहीं करते. बढ़ी राजनीतिक आज़ादी के कारण इथियोपिया में जातीय संघर्ष की समस्या वापस आती दिखती है. जहां एक ओर इथियोपियाई राष्ट्रवाद बनाम जातीय राष्ट्रवाद की बहस जोरों पर है, वहीं आंतरिक विस्थापन के शिकार 29 लाख लोगों का भविष्य अधर में झूल रहा है.
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अबी संघवाद और राष्ट्रवाद में संतुलन साधने का प्रयास कर रहे हैं. मोदी ने जिस तरह राज्यवासियों की सहमति हासिल किए बिना जम्मू -कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांटने का फैसला किया, उसे देखते हुए ये कहना मुश्किल है कि क्या अबी को भारतीय संघवाद से प्रेरणा लेनी चाहिए. मोदी सरकार देश पर एक भाषा, एक धर्म, एक चुनाव और एक पार्टी थोपने का संकेत देती है, जबकि अबी नेहरू शैली की ‘अनेकता में एकता’ का मॉडल ढूंढ रहे हैं.
उन्होंने देश के जातीय संघर्ष को खत्म करने के लिए सत्य और सुलह आयोग का गठन किया है. दूसरी ओर मोदी लाखों मुसलमानों को हिरासत केंद्रों में बंद करने और उन्हें नागरिकता से वंचित करने की राह पर चल सकते हैं. भारत में मुसलमानों की लिंचिंग के मामले रुक नहीं रहे, पर सरकार लिंचिंग के खिलाफ एक नया कानून बनाने की सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर कदम उठाने को तैयार नहीं है.
इथियोपिया के लिए अबी का स्लोगन है – ‘मेडीमेर’, जिसका मतलब है ‘साथ जोड़ना’ जो कि मोदी के ‘सबका साथ’ के नारे जैसा ही है. अबी अहमद ने अपने नारे पर अमल किया, और वह नोबेल शांति पुरस्कार जीत गए. मोदी को उनसे कुछ सीख लेने के लिए शीघ्र ही उनके साथ ‘अनौपचारिक शिखर सम्मेलन’ आयोजित करना चाहिए.
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(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
लेखक के इन विचारों से मैं कतई सहमत नहीं हूं, लेखक की लेखनी भेद-भाव से ग्रसित है, आबि अहमद अगर बहतर में होते या यहां भी कोई मुहम्मदन PM होता तो भारत पाकिस्तान के अधिपत्व में चला जाता,
जो tedrass कर रहे हैं वह मानसिकता यही दर्शाती है,
उन्होंने विश्व को शायद लालच में आ कर कोरोना संकट में डाल दिया है,