उदारवादी दर्शन के एक सबसे प्रभावशाली चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने सुविख्यात निबंध ‘ऑन लिबर्टी’ में लिखा है, ‘किसी सभ्य समाज के किसी सदस्य के ऊपर शक्ति के उचित प्रयोग का एक ही मकसद हो सकता है और वह है उससे दूसरे को नुकसान न पहुंचने देना.’
नरेंद्र मोदी सरकार ने इस सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह किसी को कोविड का टीका उसकी सहमति के बिना जबरन लेने को मजबूर नहीं करेगी.
उधर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने रविवार को ट्वीट किया, ‘सहमति को हमारे समाज में सबसे कम महत्व दिया जाता है.’ उन्होंने यह ट्वीट वैवाहिक रिश्ते में बलात्कार के मसले पर किया था. फिलहाल इस मसले पर दिल्ली हाई कोर्ट में याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनमें मांग की गई है कि आईपीसी की धारा 375 में संशोधन किया जाए. यह धारा पति को पत्नी के साथ जबरन सेक्स की इजाजत देती है.
चलिए, एक बात पर तो राहुल और मोदी एकमत दिख रहे हैं. वह बात है- सहमति का विचार और उसका महत्व, बेशक अलग-अलग संदर्भ में.
उधर, ऑस्ट्रेलिया में टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच को ऑस्ट्रेलियाई ओपन टूर्नामेंट से बाहर करके देश से भी निष्कासित कर दिया गया क्योंकि वे कोविड के टीके के बारे में ऑस्ट्रेलियाई सरकार के आदेशों का पालन करने को राजी नहीं थे.
अलग-अलग नज़र आने वाले इन मामलों में एक साझा सूत्र जो है वह है सहमति और व्यक्तिगत स्वाधीनता का. टीका लेने के मामले में सहमति के मोदी सरकार के रुख या महिला की सहमति के मामले में राहुल के ट्वीट का अधिकतर ‘उदारवादी’ समर्थन ही करेंगे. लेकिन वही लोग टीका लेने के सवाल पर ऑस्ट्रेलियाई सरकार के साथ जोकोविच के टकराव को लेकर नाराजगी जाहिर कर रहे हैं.
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स्वाधीनता की पैरवी
टीकाकरण के लिए सहमति की जरूरत को लेकर मोदी सरकार का जो रुख है उस पर मिल के सिद्धांत को लागू करके देखें. तब यह निष्कर्ष निकलेगा कि मोदी सरकार का मानना है कि जिन लोगों ने टीका नहीं लगवाया है उनसे समाज में दूसरे लोगों को कोई खतरा नहीं है. क्योंकि, अगर उनसे खतरा है तो उनकी सहमति की जरूरत नहीं है और उन्हें जबरन टीका लगाया जा सकता है. इस बात की कम ही संभावना है कि सरकार अगर यह मानती है कि टीका न लगवाने वालों से दूसरों को खतरा है, फिर भी वह लोगों को यह छूट देगी कि टीका लगवाने या न लगवाने का फैसला खुद करें.
वैसे, कोई यह तर्क दे सकता है कि सरकार तकनीकी तौर पर तो यह दावा कर सकती है कि वह किसी को टीका लगवाने के लिए मजबूर नहीं कर रही है लेकिन स्कूल, दफ्तर, सार्वजनिक स्थानों पर जाने या यात्रा करने के लिए टीकाकरण का प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने के लिए कहना वास्तव में अंतर्निहित आदेश ही जारी करना है या, जैसा कि दार्शनिक जॉन लॉक ने कहा है, ‘मौन सहमति’ मांगना ही है.
विज्ञान मोदी सरकार के रुख का समर्थन करता है. इस कोविड-काल में कोई व्यक्ति दूसरे किसी को कोरोनावायरस से संक्रमित करके नुकसान पहुंचा सकता है. विज्ञान की संस्थाओं और विश्वविद्यालयों में हुए अनुसंधानों से, जो संबंधित प्रकाशनों में प्रकाशित हुए हैं, इस बात की पुष्टि हुई है कि टीका लगवा चुके लोग भी उतनी ही आसानी से संक्रमण फैला सकते हैं जितनी आसानी से वे फैला सकते हैं जिन्होंने टीका नहीं लगवाया है.
दूसरे शब्दों में, टीकाकरण लोगों को दूसरों को संक्रमित करने या उन्हें नुकसान पहुंचाने से नहीं रोकता. यह वैज्ञानिक रूप से स्थापित हो चुका है कि कोविड का टीका न तो संक्रमण को रोकता है और न वायरस को फैलाने से रोकता है. यह सिर्फ टीका लगवाने वाले में वायरस से लड़ने की ताकत पैदा करता है.
टीकाकरण निश्चित ही व्यक्ति के मौत के जोखिम को कम करता है और अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत को घटाता है. आप खुद को सुरक्षित करते हैं तो स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर दबाव को कम करके समाज को परोक्ष रूप से बड़ा फायदा पहुंचाते हैं. यह ठीक वैसा ही है जैसे आप इंसुलिन लेकर खुद को डाइबिटीज़ से बचाते हैं वरना आपकी मौत का जोखिम बढ़ता और आप सकल स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर बोझ भी बढ़ाते हैं. तो जब सरकार डाइबिटीज़ के मरीजों को जबरन इंसुलिन की सुई नहीं देती, तो इसी तरह कोविड का टीका अनिवार्य किया जाना किस तरह उचित हो सकता है?
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‘उदारवादी’ अतिशयोक्ति ठीक नहीं
जोकोविच के मामले में टीके को लेकर दो आदेश थे- एक तो ऑस्ट्रेलियाई ओपन टूर्नामेंट की तरफ से था और दूसरा विदेशी यात्रियों के लिए ऑस्ट्रेलियाई सरकार की तरफ से था. बेशक, दोनों महकमों को अपने नियम बनाने के और उनके संपर्क में आने वाले लोगों से यह अपेक्षा करने के अधिकार हासिल हैं और वे इन नियमों का पालन करेंगे.
लगता है कि जोकोविच को ऑस्ट्रेलियाई ओपन टूर्नामेंट के आयोजकों से यह जायज छूट मिल गई थी कि वे बिना टीका लगवाए भी टूर्नामेंट में भाग ले सकते थे. ऐसा लगता है कि उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई सरकार की तरफ से जारी आदेश से बचने की कई तरह की कोशिश की ताकि वे वीजा हासिल करके वहां पहुंच सकें और अपना खिताब बचाए रख सकें. अगर उन्होंने इस कोशिश में आधा झूठ या पूरा झूठ बोला तो वे निश्चित ही निंदा और सज़ा के हकदार हैं.
लेकिन उदारवादी टीकाकार और प्रकाशन टीका न लगवाने के जोकोविच के फैसले की जो आलोचना कर रहे हैं वह न तो जायज है और न उदारवादी है. इस खिलाड़ी को पूरा अधिकार है कि वह अपने शरीर को कोविड से संक्रमित होने से न बचाए और उसका कोई नतीजा हो तो उसे भुगतने के लिए तैयार रहे. अब जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि वैक्सीन से केवल व्यक्ति की ही सुरक्षा होती है और इसे न लेने से व्यक्ति दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचा सकता, तब टीका न लेने के जोकोविच के फैसले की किस दार्शनिक आधार पर इतनी घोर निंदा की जा सकती है?
माना कि नैतिकता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती होने के नाते वे दूसरों को टीका न लेने के लिए प्रोत्साहित करने की जगह टीकाकरण के पक्ष में एक मिसाल पेश कर सकते थे. लेकिन इसके लिए हम उन पर धौंस जमाने या उन्हें उपदेश देने की बजाय उनसे समाज की तरफ से अनुरोध ही कर सकते थे. यह तर्क भी पूरी तरह जायज है कि जोकोविच को भी उन सबके बराबर माना जाए, जो ऑस्ट्रेलिया में कदम रख रहे है. लेकिन टीका न लगवाने का उनका फैसला उनका अधिकार और उनकी पसंद है.
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उदारता की कसौटी पर विफल ऑस्ट्रेलिया
ऐसा क्यों है कि जोकोविच को तो टीका न लेने के अपने फैसले के लिए सूली पर चढ़ाया जा रहा है मगर ऑस्ट्रेलियाई सरकार को ज़ोर-जबरदस्ती करने और व्यक्तिगत स्वाधीनता के खिलाफ राज्यतंत्र की ताकत का प्रयोग करने की खुली छूट दी जा रही है?
इसमें शक नहीं कि वह उदारवाद के मामले में मिल की इस कसौटी पर खरी नहीं उतरी है कि किसी व्यक्ति के फैसले के खिलाफ राज्यतंत्र की ताकत का प्रयोग तभी किया जाए जब उसके कारण दूसरों को नुकसान पहुंच रहा हो. जोकोविच प्रकरण नैतिकता के उस दर्शन की दिलचस्प वास्तविक दुविधा को उजागर करती है जिसे, मेरा अनुमान है कि दर्शनशास्त्र के भावी पाठ्यक्रम में एक उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाएगा.
आप यह न सोच लें कि मैं टीके का घोर विरोधी हूं, इसलिए आपको बता दूं कि मैं दो टीके ले चुका हूं, विज्ञान में पूरी आस्था रखने वाला उदारवादी हूं. मैं तो जोकोविच का ‘फैन’ भी नहीं हूं. पहले मैं रोजर फेडरर का जबरदस्त ‘फैन’ था, अब अलेक्ज़ेंडर जेवरेव को पसंद करता हूं. पानी के शुद्धीकरण के बारे में जोकोविच के बयान मुझे विचित्र और बेतुके लगते हैं. लेकिन टीका न लगवाने के उनके फैसले का मैं समर्थन करता हूं.
उदारवाद के व्यापक हक में यह बात महत्वपूर्ण है कि सहमति, स्वाधीनता और निजी पसंद के बारे में उदारवादियों की कसौटी सबके ऊपर समान रूप से लागू हो, न कि भेदभाव के साथ.
(प्रवीण चक्रवर्ती राजनीतिक अर्थशास्त्री हैं और कांग्रेस पार्टी के ‘डेटा एनालिटिक्स’ विभाग के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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