किसानों के धरने पर खींचतान, इंटरनेट शटडाउन, कांस्पिरेसी थ्योरी और गिरफ्तारियां, नए कानूनों का इस्तेमाल, पत्रकारों को हिरासत में लेना, धड़ाधड़ एफआईआर, विपक्ष की धार कुंद करना और एक्टिविस्ट और आलोचकों की निंदा और असंतोष को कुचलकर रख देना. स्वागत है आपका एक ऐसे भारत में जहां दिल्ली में बैठे तो पीएम हैं, लेकिन सरकार मानो को सीएम चला रहा हो
लंबे समय से जो तमाम भारतीय राज्यों में चल रहा था वह अब दिल्ली तक भी पहुंच गया है.
राज्यों में अक्सर अपनाए जाने वाले ऐसे पैंतरों से अनभिज्ञ और अमूमन अनिच्छुक रहे दिल्ली की सत्ता के गलियारे 2014 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से की गई इस शुरुआत से हैरान हैं. सवाल उठाते हैं, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा कैसे हो सकता है? ‘अतिसत्तावादी’ और ‘निष्ठुर’ जैसे शब्द अक्सर इस्तेमाल किए जाते हैं.
और भी प्रधानमंत्रियों ने कभी न कभी थोड़ी-बहुत इस तरह की कार्यशाली अपनाई है. लेकिन अब तक किसी भी सरकार ने इन सबको एक साथ, इतनी दृढ़ता से और लगातार नहीं आजमाया है. निश्चित रूप से यह सब दिल्ली के लिए नया है, इंदिरा गांधी का आपातकाल इसका अपवाद है.
मोदी और अब मंत्री अमित शाह ने राष्ट्रीय राजधानी में सिर्फ उन्हीं तौर-तरीकों को अपनाया है जो उन्हें भली भांति समझ आते हैं—’सीएम मॉडल ऑफ गवर्नेंस’ की जांची-परखी कार्यप्रणाली.
यह भी पढ़ें: क्यों प्रधानमंत्री मोदी को अपने इर्द-गिर्द जमा कागजी शेरों को लेकर चिंता होनी चाहिए
मुख्यमंत्री बतौर सूबेदार
यदि आपने भारतीय राज्यों को लंबे समय तक कवर किया हो, तो आपको पता होगा कि कई मुख्यमंत्री कैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों और सूबे के सरदारों के तौर पर शासन करते है.
जे. जयललिता के तमिलनाडु कीमुख्यमंत्री रहने दौरान कथित तौर पर उनकी पार्टी के गुंडों से एक आलोचक पर तेजाब फेंका और एक अखबार के दफ्तर में तोड़फोड़ की, उनकी सरकार ने एक्टिविस्ट पर राजद्रोह के मामले लगवाए और विभिन्न सरकारों के तहत राज्य के अधिकारियों ने नियमित रूप से बोर्ड के आंकड़ों में हेरफेर की ताकि राज्य शीर्ष पर नजर आए.पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के शासनकाल के दौरान व्यापक निगरानी और फोन टैपिंग सामने आई, ‘खालिस्तानी’ टैग की आड़ में कार्यकर्ताओं पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए लगाया गया और सरकार के पक्ष में खबरें दिखाने के लिए केबल डिस्ट्रूब्यूरों को न केवल धमकाया गया बल्कि इससे आनाकानी करने वालों को ब्लॉक कर दिया गया.
ओडिशा में नवीन पटनायक के शासन में आमतौर पर विरोध प्रदर्शनों को ‘नक्सलियों’ द्वारा संचालित बताया जाता है जिसके पीछे इरादा लोगों को लंबे समय तक बिना जमानत जेल में बंद रखना होता है. पश्चिम बंगाल में सीएम ममता बनर्जी ने मीडिया घरानों को धमकाया, एक प्रोफेसर को कार्टून ईमेल करने के लिए जेल में डलवा दिया और मीम साझा करने पर भारतीय जनता पार्टी के एक नेता को गिरफ्तार करा दिया. इससे पहले, बंगाल में तीन दशक के वामपंथी शासनकाल ने गांवों में जमीन जब्त करने वाले हिंसक कैडर देखे, लोगों को पड़ोसियों की जासूसी करते देखा, वहीं, वफादारों को ईनाम और रोजगार मिला. यहां तक कि महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण जैसे सीएम ने भी देशद्रोह की शिकायत पर कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को जेल भिजवाया.
बिहार में नीतीश कुमार ने हाल ही में एक कानून पेश किया है जिसके तहत अपमानजनक सोशल मीडिया पोस्ट के लिए आपको सजा दी जा सकती है और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने पर सरकारी नौकरी नहीं मिल पाएगी; और उत्तराखंड सरकार आंदोलनों में हिस्सा लेने वालों के लिए नया पासपोर्ट बनवाना मुश्किल करने जा रही है.
राज्य की संस्थानों पर राजनीतिक पकड़ रखनाऔर इसमें नियंत्रण और संतुलन बनाए रखना सभी राज्यों में एक आम बात है. इस तरह से मुख्यमंत्री राज्य को अपनी जागीर बना लेते हैं.
दलबदल विरोधी कानून की ताकत
मोदी से पहले पांच और पूर्व मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं–मोरारजी देसाई, चरण सिंह,वी.पी.सिंह, पी.वी. नरसिम्हा राव और देवेगौड़ा.
लेकिन मोदी इन सबसे अलग हैं. अन्यलोगों में से किसी ने भी एकदलीय बहुमत वाली राष्ट्रीय सरकार का नेतृत्व नहीं किया और इनमें से किसी का भी केंद्र पर वैसा नियंत्रण नहीं रहा जैसा मोदी का है. और उनमें से किसी ने भी अपने राज्यों पर इतने लंबे समय तक शासन नहीं किया, जितना कि गुजरात में मोदी ने किया था. इस लिहाज से मोदी की शासन शैली ममता बनर्जी,बादल और जयललिता की तरह अधिक है, और मनमोहन सिंह या अटल बिहारी वाजपेयी जैसी कम.
लेखक त्रिपुरदमन सिंह कहते हैं कि पिछले तीन दशकों में भारत में जिस तरह के सशक्त अतिसत्तावादी मुख्यमंत्री हुए हैं,उसका बहुत कुछ लेना-देना 10वीं अनुसूची या दलबदल विरोधी कानून (1985 में पारित और 2002में पुन: लागू) से जुड़ा है. वह इसे ‘10वीं अनुसूची पूर्व’और ‘10वींअनुसूची’ बाद के मुख्यमंत्रियों की कार्यशैली करार देते हैं.
कानून ने विधायकों के लिए पार्टी आलाकमान और सीएम पर सवाल उठाना, पार्टी लाइन के खिलाफ वोट करना अथवा फ्लोर पर अलग-थलग रहना असंभव बना दिया है क्योंकि इस पर उन्हें निलंबन या निष्कासन का सामना करना पड़ सकता है. जब सभी विधायी मतदान इतनी कड़ाई से नियंत्रित हो गए तो क्षेत्रीय पार्टी आलाकमान असीम शक्तिशाली हो गया. इसने मुख्यमंत्रियों को उनके राज्यों का निर्विवाद ‘सर्वोच्च नेता’ बना दिया.
ऐसी असीम शक्ति ने भारत में क्षेत्रीय राजनेताओं की एक नई पौध तैयार की. और राज्य एक ऐसा मंच बन गए जहां सबसे पहले अतिसत्तावाद को ही जांचा-परखा और अपनाया गया. लेकिन दिल्ली के सत्ता केंद्र में बैठे कई लोगों ने इसे दूसरे नजरिये से देखना बेहतर समझा क्योंकि इसमें से बहुत कुछ केंद्र में खोखले गठबंधन वाले सालों के दौरान हो रहा था जब क्षेत्रीय नेताओं को संघवाद की सच्ची भावना की मिसाल के तौर पर सराहा गया, और हिंदुत्व की मजबूत काट माना गया.
मोदी सुप्रा-सीएम हैं
देखा जाए तो कई मायने में मोदी और शाह भारत पर ऐसे शासन कर रहे हैं जैसी सरकार उन्होंने गुजरात में चलाई थी, और कई अन्य मुख्यमंत्री भी ऐसा करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने सक्रिय तौर पर ऐसी सत्ता संरचना कायम करने की कोशिश की है, जैसी उन्हें बतौर मुख्यमंत्री हासिल थी. वह कई मायनों में आज एक सुप्रा-सीएम हैं.
लेकिन क्या यह देश के लिए एक उपयुक्त मॉडल है? पीएम और सीएम की भूमिकाओं में खासा अंतर होता है.
मुख्यमंत्री मूल रूप से प्रोजेक्ट मैनेजर या सीईओ होते हैं, जो कोई काम सीधे तौर पर कराने के लिए अधिकृत होते हैं. जबकि प्रधानमंत्री एक कार्यकारी अध्यक्ष की तरह होता है. उसमें ठहराव होता है. आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन.टी. राम राव ने तो भारत राज्यों द्वारा शासित होता है, के अपने दावे को मजबूत आधार देने के लिए केंद्र को एक ‘वैचारिक मिथक’ करार दे दिया था. प्रशासनिक और शासन कीवास्तविक शक्तियां राज्यों में ही निहित हैं. यहां तक कि जमीनी स्तर पर लोगों का जीवन सार्थक बनाने और उसमें पूर्णतया बदलाव लाने में एक विधायक की भूमिका सांसद की तुलना में असीम शक्तिशाली होती है.
यही कारण है कि मोदी जैसे ‘भारी बहुमत पाने वाले प्रधानमंत्री’—इससे पहले इंदिरा गांधी और राजीव गांधी—केंद्र-राज्य विधायी अंतराल का फायदा उठाकर वास्तविक सत्ता शक्तियों पर कब्जे की कोशिश करते रहे हैं. मोदी के नए कृषि कानून इसी का एक उदाहरण हैं.
क्या भारत को वास्तव में एक ‘सशक्त पीएम’ चाहिए ?
आखिरी में यहां आकर थोड़ी विडंबना सामने आती है.
2012 से ही मोदी और उनकी टीम के पूरे प्रचार अभियान का दारोमदार दो थीम पर टिका हुआ है: ये कि वह एक सशक्त सीएम थे जिनके नेतृत्व में गुजरात फला-फूला और मनमोहन सिंह भारत के लिए एक कमजोर प्रधानमंत्री थे.
विडंबना यह है कि मोदी के नेतृत्व में गुजरात उन्हीं सालों में पनपा और विकास की राह पर आगे बढ़ा, जब भारत की कमान एक ‘कमजोर, अक्षम’ पीएम के हाथ में थी. ऐसे में तो यही कह सकते हैं कि समृद्ध राज्यों के लिए वास्तव में एक सशक्त पीएम की जरूरत नहीं है.
लेकिन एक ‘सशक्त पीएम’ होना पौराणिक जरूरत के तौर पर स्थापित करने के लिए मोदी को ‘सीएम मॉडल ऑफ गवर्नेंस’ की ताकत और पूर्णतया नियंत्रण वाली कार्यशैली को दिल्ली में भी आजमाने के सिवाये कुछ खास नहीं करना था.
एक और विडंबना यह है कि मोदी अब ‘कमजोरपार्टी सीएम-मजबूत पीएम’ वाले इंदिरा गांधी मॉडल की राह लौट चुके हैं. यहां तक कि अपने गृह राज्य गुजरात में भी.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
व्यक्त विचार निजी हैं.
यह भी पढ़ें: लोकतांत्रिक सूचकांक में भारत का फिसलना चिंताजनक, क्या लोकतंत्र सच में कल्पना में रह गया है