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Friday, 3 May, 2024
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बीजेपी एनआरसी की अंतिम सूची से निराश क्यों है

बीजेपी का अनुमान था कि नागरिकता सिद्ध न कर पाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होगी और वह इसी आधार पर पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ेगी.

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राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची के प्रकाशन से सांप्रदायिक विचारधारा वाले दलों की राजनीति को ज़बर्दस्त झटका लगा है. अंतिम सूची के हिसाब से अब असम में केवल उन्नीस लाख लोग ही ऐसे हैं, जिनकी नागरिकता संदिग्ध है. ये संख्या उन दलों के दावों से बहुत कम है जो अभी तक बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण करते आ रहे थे. उनके हिसाब से ये संख्या चालीस लाख से लेकर सवा करोड़ तक होनी चाहिए थी. मगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में तैयार होने वाली सूची उनके दावों की पोल खोलती है. यही वजह है कि बीजेपी के नेता बौखलाए हुए हैं और इस लिस्ट को तैयार करने की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए बयान दे रहे हैं.

राज्य सरकार में वित्तमंत्री और बीजेपी के मुख्य रणनीतिकार हिमंत बिस्वा सरमा का बयान इसकी बानगी है. वे कह रहे हैं कि सूची में गड़बड़ी की गई है और इसमें बड़ी तादाद में विदेशी नागरिक शामिल कर दिए गए हैं. वे शायद ये भूल रहे है कि एनआरसी की पूरी प्रक्रिया को राज्य सरकार की मशीनरी के जरिए ही अंजाम दिया गया है. यानी वे अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यही नहीं, बीजेपी के एक विधायक ने तो यहां तक कह डाला कि लगता है कि एनआरसी के अधिकारी ने किसी इस्लामिक संगठन के दबाव में ये सूची बनाई है. बीजेपी अब चाहती हैं कि पूरे देश में एनआरसी लागू की जाए. इस बयान से ये ज़ाहिर होता है कि इस अंतिम सूची को भी सांप्रदायिक राजनीति का हथियार बनाने की पूरी तैयारी है.

असम का चुनावी मुद्दा है नागरिकता का सवाल

31 दिसंबर, 2017 को जब एनआरसी के तहत लिस्ट का पहला ड्राफ्ट जारी किया गया तो 1.9 करोड़ लोगों की नागरिकता के दावों की ही पुष्टि की गई. ये प्रक्रिया 2015 में शुरू हुई थी जब लोगों से नागरिकता साबित करने के दस्तावेज मांगे गए थे. इसके तहत 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन किया. एनआरसी की पहली लिस्ट में 1.39 करोड़ लोगों के नाम न होने से बीजेपी और उसके सहयोगी दल असम गण परिषद के हौसले बुलंद हो गए थे.

लेकिन इसके बाद 30 जुलाई, 2018 को आई अगली सूची में ही ये तादाद घटकर चालीस लाख के आसपास पहुंच गई. हालांकि इस संख्या से वे निराश हुए लेकिन राजनीति करने के लिए ये भी काफी थी. अमित शाह ने संसद से लेकर अपनी चुनावी रैलियों में चालीस लाख बांग्लादेशियों का ज़िक्र करते हुए उन्हें देश से बाहर निकालने की हुंकार भरी थी. ज़ाहिर है कि इस मुद्दे को भुनाने की चुनावी कोशिश रंग लाई थी और अपने सहयोगियों के साथ मिलकर उन्होंने असम में भारी चुनावी जीत हासिल की.

असम आंदोलन सवालों के घेरे में

ध्यान रहे कि 19 लाख भी अंतिम संख्या नहीं है, क्योंकि ऐसे बहुत सारे मामले सामने आ रहे हैं, जो बताते है कि सही प्रार्थियों के दावों को भी खारिज़ कर दिए गए हैं. आपत्ति दर्ज करने की 120 दिन की मियाद में संभव है कि इनमें से बहुतों की नागरिकता स्वीकार कर ली जाए. इसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी लोग जाएंगे ही और उनमें से कुछेक अपनी नागरिकता साबित करने में सफल भी होंगे. वैसे भी 19 लाख में वे 3-4 लाख ऐसे लोग शामिल हैं जिनके मामले ट्रायब्यूनल में लंबित हैं, मगर उनके नाम अंतिम सूची में डाल दिए गए हैं. यानी ये संख्या भी कम ही होगी.

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मगर यदि ये मान भी लिया जाए कि लिस्ट में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होगा तो भी ये तो साबित होता ही है कि बांग्लादेशियों के नाम पर बेकार का हौआ ख़ड़ा किया जा रहा था. छह साल तक चला असम आंदोलन ही प्रश्नों के घेरे में खड़ा हो जाता है. इस आंदोलन ने असम में भूचाल ला दिया था. असम के मध्य और निम्न मध्य वर्ग के अंदर ये एहसास भर दिया गया था कि उनकी अस्मिता और संस्कृति ख़तरे में है. अखिल असम छात्र संघ ने इसकी अगुआई की थी. राज्य में अशांति, उपद्रव और हिंसा का दौर चल पड़ा था. हालांकि उसके निशाने पर मुसलमान नहीं थे. असम आंदोलन उन तमाम लोगों को राज्य से बाहर निकालना चाहता था, जो बांग्लादेश से आए थे. मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी ने इसे सांप्रदायिक रंग देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. इसी का नतीजा था कि नेल्ली में भीषण नरसंहार हुआ और तीन हजार से ज़्यादा लोग सिर्फ इस एक इलाके में मारे गए.

पहचान के नाम पर की जा रही इस राजनीति का फ़ायदा असम गण परिषद को हुआ और वह सत्ता में तीन बार काबिज़ भी हुई. मगर असली फ़ायदा उठाया बीजेपी ने. अब वह राज्य की मुख्य पार्टी बन चुकी है और असम गण परिषद हाशिए पर है, बीजेपी पर निर्भर है.

नागरिकता के मुद्दे का राष्ट्रीय राजनीति पर असर

दिलचस्प बात ये है कि बीजेपी को एनआरसी से बड़ी उम्मीदें थीं. वह इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना चुकी थी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए जमकर इस्तेमाल कर रही थी. असम में सत्ता संभालते ही उसने सीमा पर बाड़ लगाने, कथित घुसपैठियों को रोकने और आ चुके विदेशी नागरिकों को वापस भेजने के बड़बोले बयान देने शुरू कर दिए थे. नागरिकता अधिनियम में संशोधन के ज़रिए भी वह हिंदू मतदाताओं का दिल जीतना चाहती थी क्योंकि इसमें नागरिकता देने के मामले में धर्म के आधार पर भेदभाव किया गया है. इसमें प्रावधान है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी. बीजेपी को उम्मीद है कि ये ऐसा मुद्दा है जिसे वह अगले कई चुनाव तक भुना सकती है.

लेकिन बीजेपी के लिए ये मुद्दा केवल असम तक ही सीमित नहीं था, पश्चिम बंगाल में भी वह इसका फ़ायदा उठाने की फिराक़ में है. लेकिन एनआरसी के ये आंकड़े निश्चय ही उसके लिए समस्या पैदा करने वाले हैं. अगर नागरिकता सिद्ध न कर पाने वालों की संख्या 30-40 लाख के आसपास निकलती तो वह बंगाल के विधानसभा चुनाव का एजेंडा इसी पर सेट कर सकती थी, मगर अब वह इस काम को उस आक्रामकता के साथ शायद न कर पाए. दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियां अब पलटवार कर सकती हैं.

जहां तक असम की राजनीति का सवाल है तो ये विपक्षी दलों के लिए एक और मौका है, जब वे बांग्लादेशियों के नाम पर की जा रही राजनीति की पोल खोलकर वास्तविक मुद्दों की तरफ लोगों का ध्यान खींचें.

(लेखक पत्रकारिता के प्रोफेसर हैं और यह उनका निजी विचार है)

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