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Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतमोदी-शाह की भाजपा ने देश के युवाओं को नाउम्मीद तो किया ही, उससे लड़ने पर भी उतारू हो गई

मोदी-शाह की भाजपा ने देश के युवाओं को नाउम्मीद तो किया ही, उससे लड़ने पर भी उतारू हो गई

भारी बहुमत से सत्ता में आने के महज छह महीने बाद ही मोदी सरकार उन युवाओं से उलझ पड़ी है, जो कभी उनके घोर समर्थक थे मगर आज उससे निराश, नाउम्मीद और नाराज हैं

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प्रतिस्पर्धी खेलों में लीग, सीनियर, जूनियर आदि कई स्तर की प्रतिस्पर्धाएं होती हैं. खिलाड़ी का रुतबा इस बात से तय होता है कि वह किस स्तर की प्रतिस्पर्धा में खेलता है. जो नीचे उतरकर निचले स्तर की प्रतिस्पर्धा में ‘बच्चा’ खिलाड़ियों से मुक़ाबला करता है वह अपना रुतबा ही घटाता है. यहां हम इस कसौटी पर अपनी सियासत को कसेंगे, खासकर भाजपा की सरकार को, कि वह छात्रों के आंदोलन से किस तरह निबट रही है.

इसे समझने का एक सीधा-सा तरीका यह है कि हम अपने महान दिवंगत पहलवान-अभिनेता दारा सिंह को देखें कि वे मुक़ाबले में उतरे नये पहलवान से किस तरह कुश्ती लड़ते थे. वे उससे कहते थे कि पहले मेरे भाई रंधावा से लड़ो, उसे हराओ तभी चैंपियन से लड़ने के हकदार बनोगे. मैंने उनसे पूछा था कि आप ऐसा क्यों करते हैं, तो उनका जवाब था कि ‘हर लल्लू-पंजू यह हेकड़ी जताना चाहता है कि वह दारा सिंह से कुश्ती लड़ चुका है. उसे खुश करने के लिए मैं अपना रुतबा क्यों घटाऊं?’


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अब खालिस राजनीति की बात करें. ताकतवर भाजपा सरकार एक महीने से यही कर रही है. बड़े, ताकतवर लोग बच्चों से लड़ रहे हैं. उनकी नीतियों के कारण देशभर के कैम्पसों में आग लगी हुई है. और हर जगह, खासकर जहां भाजपा की सरकार है, वे इसका लगातार एक ही तरह से मुक़ाबला कर रहे हैं. सत्तातंत्र की पूरी ताकत झोंक दी, इंटरनेट और टेलिकॉम पर रोक लगा दी, और उत्तर प्रदेश में तो सामूहिक जुर्माना भी ठोक दिया.

अगर भारी बहुमत से चुनी गई सरकार अपने छात्रों की बात सुनने की जगह उससे लड़ने लगे तो इसके तीन नतीजे उभरते हैं—

सबसे पहले तो यह धारणा बनती है कि एक आततायी निरीह जमात पर जुल्म ढा रहा है.

दूसरे, इस टकराव की जो तस्वीरें सामने आती हैं उनसे ‘ब्रांड इंडिया’ की छवि दुनियाभर में खराब होती है. और इन तस्वीरों को ‘सामने आने’ से आप रोक नहीं सकते.

तीसरा, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इससे युवाओं में बच्चे बनाम अंकल/आंटी वाला मूड बनता है. इसे मैं स्पष्ट करना चाहूंगा.

2014 और 2019 के चुनावों में हरेक एक्ज़िट तथा ओपिनियन पोल ने यही बताया था कि देश के युवाओं, खासकर इस सहस्राब्दी में जन्मे और पहली बार वोटर बने युवाओं ने नरेंद्र मोदी का भारी समर्थन किया था. 2019 के चुनाव अभियान के दौरान देशभर की अपनी यात्राओं में मैंने युवाओं से जो बातचीत की थी वे मेरे रेकॉर्ड में दर्ज़ हैं. उनमें जिस एक नेता का नाम उभरा था वे थे मोदी. उनमें से दो बातचीत की यहां चर्चा करूंगा. नयी दिल्ली में ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ द्वारा आयोजित परिचर्चा में मैंने मोदी की जोरदार जीत के कारणों की चर्चा की थी. खास तौर से इस बात को रेखांकित किया था कि युवाओं ने जाति, भाषा, स्थानीयता और कई जगह तो धर्म से जुड़ी अपनी पहचान को किस तरह परे रखकर मोदी को अपनाया था. उनकी आंखों में उम्मीद, जोश, और कथित ‘अच्छे दिन’ की आहट की चमक थी. वे अपने परिवार की राजनीतिक निष्ठाओं को इसलिए नहीं तोड़ रहे थे कि उन्हें किसी से नफरत थी या वे किसी से डर रहे थे. 2014 का चुनाव अगर बेहतर जीवन की उम्मीद का चुनाव था, तो 2019 का चुनाव उस वादे पर इस अपेक्षा के साथ दोबारा यकीन करने का चुनाव था कि उसे पूरा करने के लिए इतना समय तो देना ही चाहिए.


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लेकिन महज छह महीने में ही उन्हें लगने लगा कि उन्हें तो उस वादे का बिलकुल उलटा ही हासिल हो रहा है. अर्थव्यवस्था की एक लंबे समय से, इस तरह निरंतर बेलगाम गिरावट जारी है कि विकास और अच्छे दिन का वादा एक कपोलकल्पना जैसी दिखने लगी है. 1970 वाले दशक के मध्य में जो निराशावाद और नाउम्मीदी छा गई थी वही आज के युवाओं में फैल रही है. रोजगार के नये अवसर नहीं उभर रहे हैं. सभी तरह के रोजगार महत्वपूर्ण और सम्माननीय हैं लेकिन मानना पड़ेगा कि कॉलेज में पढ़ने वाला हर युवा स्वीगी या जोमाटो का डेलीवरी ब्वॉय या ओला-उबर का ड्राइवर बनने के सपने नहीं देखता.

मोदी ने उनसे यह वादा नहीं किया था. उनकी आकांक्षाएं और आवश्यकताएं साफ और तात्कालिक हैं, और वे पूरी नहीं हो रही हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि उनमें जो निराशा है वह इन बातों से दूर नहीं होने वाली है कि आप कश्मीर के ‘एकीकरण’ के लिए कितनी ‘सख्ती’ से कार्रवाई करते हैं या पाकिस्तान को किस तरह हर दिन सबक सिखाते हैं. न ही उनकी आवश्यकताएं इस बात से पूरी होंगी कि आप उन्हें मुसलमानों से कितना डर कर रहने या प्रवासी मुस्लिम ‘दीमकों’ से कितनी नफरत करने की सीख देते हैं. इन सबसे न तो उन्हें रोजगार मिलने वाला है, न आजीविका हासिल होने वाली है और न उनकी ज़िंदगी बेहतर होने वाली है, बशर्ते वे आपकी विचारधारा के पक्के अनुयायी न हों. कॉलेज में पढ़ने वाले युवाओं का मोदी-2 से तेजी से और गहरा मोहभंग हो चुका है.

किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि यह वाइरस केवल चंद वामपंथी, उदारपंथी, ‘अर्बन नक्सलों’ से भरे पड़े सरकारी विश्वविद्यालयों तक सीमित है. आक्रोश अब महंगे प्राइवेट कैम्पसों में भी फैल चुका है, जहां राजनीति, छात्रसंघ वगैरह की इजाजत नहीं है और जिनमें अपनी संतानों को पढ़ाने के लिए माता-पिता को अपनी बचत और संपत्ति तक को कुरबान करना पड़ता है. मैं देशभर में ऐसे कई परिसरों में व्याख्यान देता रहा हूं और मैंने वहां भी वही गुस्सा महसूस किया है जो आपको जेएनयू, जामिया या बीएचयू में दिख रहा है.

हर जगह भावनाएं हतप्रभ हैं और आक्रोश बढ़ रहा है— ‘हमने इसके लिए तो वोट नहीं दिया था!’ मैं भी कुछ दावे के साथ कह सकता हूं कि इन युवाओं में से काफी बड़ी जमात ने मोदी के नाम पर वोट दिया था, और वे अपने जीवन में पहली बार वोट दे रहे थे. ‘दिप्रिंट’ महीने में एक बार एक प्रमुख कैंपस में ‘डेमोक्रेसी वाल’ नाम की एक मुक्त विचार सभा आयोजित करता है. इसमें दीवारनुमा एक विशाल बैनर लगाया जाता है जिस पर युवा अपने विचार खुल कर लिख सकते हैं और अपना नाम दर्ज़ कर सकते हैं. पिछले छह महीने में इसके तेवर में नाटकीय बदलाव आया है. और पिछले तीन महीने में तो जबरदस्त बदलाव आया है.

और यह बदलाव प्राइवेट या एलीट कहे जाने वाले विश्वविद्यालयों के कारण आया है. आक्रोश और निराशा की कुछ बानगी अंग्रेजी में लिखे इन चुटीले वाक्यों में मिलती है— ‘पी…के… द फोलिस’, ‘मेरा देश जल रहा है.. #सेव ऑस्ट्रेलिया’. लेकिन इनमें सबसे गौरतलब वाक्य यह है— ‘बुरे दिन वापस कर दो’. तीन महीने पहले तक थोड़ी-सी आलोचना हुआ करती थी, मगर अब तो तारीफ की एक भी लाइन या एक भी शब्द नहीं नज़र आता. पढ़े-लिखे युवाओं में इस तरह के समान आक्रोश की अनदेखी करके आप अपना ही नुकसान करेंगे.

राष्ट्रवाद, धर्म, और सर्वशक्तिशाली नेता की व्यक्तिपूजा के घालमेल से प्रायः आप एक चुनाव तो जीत सकते हैं लेकिन लगातार दो चुनाव नहीं जीत सकते. भारत में उम्मीदों की लहर पर सवार होकर दोबारा सत्ता में आने के छह महीने बाद ही हाल यह है कि उनके राज में बड़े पुलिस अधिकारी पत्रकार सम्मेलन करके (मुझे अफसोस के साथ सवाल उठाना पड़ रहा है कि इस देश में पुलिस के एक शब्द पर भी कौन यकीन करता है?) छात्रों को दंगाई और देशद्रोही घोषित कर रहे हैं, कैबिनेट मंत्री टीवी चैनलों पर युवाओं को सीख दे रहे हैं कि उन्हें किस तरह का आचरण करना चाहिए और देशभक्त बनना चाहिए. लेकिन आज के युवा स्मार्ट हैं. वे जवाब में तिरंगा लहरा कर, संविधान की प्रस्तावना का सार्वजनिक पाठ करके और राष्ट्रगान गा कर उन्हें निरुत्तर किए दे रहे हैं.


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महज छह महीने पहले बॉलीवुड के आला कलाकार चापलूसी में मोदी के साथ सेल्फी ले रहे थे. आज उनमें से कई बड़े स्टार, केवल कला फिल्मों वाले नहीं, विरोध प्रदर्शनों को समर्थन दे रहे हैं. उनमें से कई खामोश भी हैं लेकिन गिनती में शुमार किसी स्टार ने सरकार का समर्थन नहीं किया है. अगर आपको संदेह है तो ‘सीएए’ के समर्थन में केंद्रीय मंत्रियों ने मुंबई में जो डिनर आयोजित किया था उसमें आए ‘स्टारों’ की लिस्ट देख लीजिए. उनमें से कुछ तो ऐसे मिलेंगे जिनका परिचय जानने के लिए आपको गूगल में सर्च करना पड़ेगा. और, इन सबके बीच स्मृति ईरानी जैसी कैबिनेट मंत्री को दीपिका पादुकोने पर तंज़ कसने का जिम्मा सौंप दिया जाता है. आपको याद होगा, मैंने कहा था कि आप जिस लीग के खिलाड़ी है उसी से आपका रुतबा जाहिर हो जाता है. भारत के युवाओं का समर्थन गंवाने का कोई और प्रभावी तरीका हो तो मुझे भी बताइएगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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