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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतस्वीडन की रानी के गंगा प्रेम पर निहाल सरकार पद्मावती से नजरें चुरा रही है

स्वीडन की रानी के गंगा प्रेम पर निहाल सरकार पद्मावती से नजरें चुरा रही है

मातृशक्ति को कमतर आंकने के आदी सरकारी बाबू पद्मावती से आंखे चुरा रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे बिल्ली दूध पीते समय आंख बंद कर लेती है और सोचती है कि उसे कोई नहीं देख रहा.

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स्वीडन की रानी सिल्विया रिनेट को खबरिया चैनलों की भाषा में ‘विजुअली रिच’ कहा जा सकता है. रानी सिल्विया ने गंगा देखने की इच्छा जताई तो राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के अधिकारी उन्हे लेकर ऋषिकेश चले गए. आखिर ऋषिकेश- हरिद्वार यही एक-दो जगह हैं जहां गंगा खूबसूरत नजर आतीं हैं.

नमामि गंगे परियोजना का उद्देश्य भी यही है कि जो पवित्र है उसे खूबसूरत बना दिया जाए, पवित्रता की मेन्टेनेंस वेल्यू ज्यादा है और खूबसूरती एक अच्छा रेवेन्यू मॉडल है. सरकार के लिए भी यह गुडी – गुडी सिचुएशन है. रानी गंगा को निहार रही है, मंत्रोचार के बीच गंगा पूजा हो रही है. देशी-विदेशी मीडिया हर-हर गंगे कर रहा है. कुलमिलाकर गंगा एक्ट संसद के पटल पर रखे जाने की पूर्व स्थिती इससे बढ़िया नहीं हो सकती.

अब थोड़ा पद्मावती को भी जान लीजिए और विश्वास मानिए आने वाले समय में आप यह नाम बार – बार सुनने वाले हैं.


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पद्मावती हरिद्वार के मातृ सदन में रहती है और ब्रह्मचारिणी हैं. उनकी उम्र मात्र 23 साल है. नालंदा विश्वविद्यालय से दर्शन और इतिहास में स्नातक पद्मावती ने प्रधानमंत्री को एक चिट्ठी लिखी. जिसमें उन्होने कहा कि गंगा पर आपके द्वारा किए गए एक भी वादे- इरादे पूरे नहीं किए गए . इसलिए उन्होने 15 दिसंबर से अनशन पर जाने की घोषणा की है. 15 दिसंबर बेहद अहम है. क्योंकि 14 दिसंबर को प्रधानमंत्री कानपुर में गंगा सफाई की समीक्षा करने वाले हैं. और इसी के एक दो दिन आगे पीछे गंगा बिल ड्राफ्ट भी सदन के पटल पर रखा जाना है. लेकिन सिर्फ यही नहीं है इस कहानी को थोड़ा समझिए.

जीडी अग्रवाल के मृत्यु के तुरंत बाद आनन -फानन में सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी किया था, इस नोटिफिकेशन में गंगा में पर्यावरणीय बहाव, यानी ई फ्लो यानी गंगा में कम से कम इतना पानी हो, सुनिश्चित करने के लिए कहा गया था. जो अलग- अलग मौसम के हिसाब से दस,बीस या तीस प्रतिशत था. (आईआईटी कंसोर्टियम ने ई-फ्लो 50 फीसद रखने के लिए कहा है जिसे सरकार ने नहीं माना) इसी गैर वैज्ञानिक तरीके से तय किए गए ई- फ्लो को लागू करने की तारीख भी 15 दिसंबर है. लेकिन यह नियम लागू हो उससे पहले ही उत्तराखंड में अलकनंदा नदी पर बने श्रीनगर बांध की ‘मालकिन’ जीवेके कंपनी कोर्ट चली गई.

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अदालत में उसने कहा कि बीस-तीस फीसद पानी तो छोड़िए , हम बमुश्किल गंगा को उसका 5 फीसद जल दे सकते हैं. सच्चाई यह भी है कि बांध कंपनी राज्य सरकार की शह पाकर ही न्यायालय की शरण में गई है ताकि ई-फ्लो का मुद्दा अदालती कार्यवाई में उलझ जाए. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कई मंचों से कह चुके है कि उन्हे गंगा पर ढेरों बांध चाहिए क्योंकि रोजगार उसी से आएगा.

इसे यूं समझिए – जीडी अग्रवाल ने अपने अनशन के दौरान चार मांगे रखी थी. जिनमें से दो मांगों को अंशत: माना गया और जब लागू करने की बारी आई तो उसे अदालती पचड़े में फंसा दिया.

जो बिल सदन के पटल पर रखने के लिए तैयार किया गया है उसमें अग्रवाल की एक भी मांग का समावेश नहीं किया गया. उल्टे वही बिल लाया जा रहा है जिसे उन्होने अपने अनशन के दौरान ही नकार दिया था. दिखावे के लिए एक जमावड़ा दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘इंडिया वाटर इंपेक्ट समिट’ के नाम पर लगाया गया है. लेकिन इसमें हो रही चर्चा में ज्यादातर खुद के गाल बजाने वाली संस्थाएं और व्यक्ति शामिल है. वैसे भी समिट में हो रही चर्चा कोई बिल ड्राफ्ट का हिस्सा बनने नहीं जा रही है. वैसे भी गंगा एक्ट उन बिरले कानूनों में से है जिसे जनता के बीच चर्चा किए बिना लाया जा रहा है.


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मातृ सदन गंगा आंदोलन की राह में सन्यासी विद्रोह का गढ़ बना हुआ है. आश्रम से जुड़े तीन संत अब तक गंगा के लिए अपनी जान दे चुके हैं. इसी साल युवा संत आत्मबोधानंद ने 194 दिन के अनशन के बाद प्रधानमंत्री के आश्वासन पर अनशन को विराम दिया था. अब इतना समय बीत जाने के बाद आश्रम और गंगा आंदोलन से जुड़े लोग खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं.

मातृशक्ति को कमतर आंकने के आदी सरकारी बाबू पद्मावती से आंखे चुरा रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे बिल्ली दूध पीते समय आंख बंद कर लेती है और सोचती है कि उसे कोई नहीं देख रहा.

इस बीच स्वीडन की रानी ने गंगा को ‘ब्यूटिफुल रिवर’ बताते हुए नमामि गंगे के अधिकारियों की भूरि- भूरि तारीफ की है. सभी खुश है, एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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