scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतक्या संघ परिवार मुसलमानों को यूपीएससी परीक्षा देने से रोकता है?

क्या संघ परिवार मुसलमानों को यूपीएससी परीक्षा देने से रोकता है?

भारी जनादेश वाली सरकार चलाते हुए भी कांग्रेस मुसलमानों को नहीं के बराबर टिकट देती थी. इसलिए भाजपा से इसकी उम्मीद करना मूर्खता होगी.

Text Size:

मैं मुसलमानों से कहना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार न हिंदुओं की है, न ही मुसलमानों की. मोदी लोकसभा चुनावों में भारी जनादेश हासिल करने के बाद मई में दिए अपने मंत्र ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ के प्रति पूरी तरह गंभीर हैं.

बहुत साल पहले, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. तो उन्होंने मुझसे कहा था कि यदि अहमदाबाद में 11 सड़कें बनाई जाती हैं और उनमें से 11 मुसलमानों के इलाके में नहीं हो, तब आप मुझे दोष देना. अहमदाबाद के मुस्लिम आबादी वाले सारे इलाके बीआरटी (बस रैपिड ट्रांजिट) प्रणाली के दायरे में हैं.

भाजपा चाहे जो कहे पर इस बात को समझना महत्वपूर्ण है कि सरकार के कामकाज़ का तरीका पार्टी से अलग है. हमें पार्टी पदाधिकारियों के बयानों पर अधिक ध्यान नहीं देते हुए, इस बात को देखना चाहिए कि सरकार ने मुसलमानों के लिए क्या किया है. निश्चय ही विकास कार्यो के मामले में कोई भेदभाव नहीं हुआ है.

मैंने अपने समुदाय से आग्रह किया है कि वे सोशल मीडिया पर मुसलमानों के लिए बकवास करने वालों को नज़रअंदाज़ करें क्योंकि ऐसे लोगों की कोई बिसात नहीं है.

गृहमंत्री अमित शाह ने भाजपा के बड़बोलों को अच्छे से नियंत्रित किया है. इसलिए गिरिराज सिंह और प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग अब खामोश पड़े हैं. इस सरकार को चार-पांच लोग ही चलाते हैं. नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह, रविशंकर प्रसाद और पीयूष गोयल और बाकी लोग अप्रासंगिक हैं. सबसे अहम व्यक्ति और कप्तान मोदी हैं, जिनकी नीयत साफ है.

मॉब लिंचिंग जैसी घटनाएं होंगी, पर हमें उनमें ही फंसे नहीं रहना चाहिए.

मुसलमानों का प्रतिनिधित्व

मेरी मुख्य दलील ये है कि मुसलमानों को असल के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए और सबसे अहम है शिक्षा. क्या आरएसएस या वीएचपी (विश्व हिंदू परिषद) ने आपको यूपीएससी परीक्षा में बैठने से रोका है? समस्या ये है कि खुद मुसलमान ही इन परीक्षाओं में नहीं बैठते. मुसलमान थोड़ा भी प्रयास करें तो उन्हें परिणाम दिखने लगेंगे.

2015-16 तक हर साल महज 38-39 मुसलमान ही यूपीएससी (सिविल सर्विसेज) परीक्षा में कामयाब हो रहे थे. मैं मुसलमानों को यूपीएससी परीक्षा की तैयारी करा रहे 8-10 संस्थानों में गया और उनमें से किसी ने भी आवेदकों की कुल संख्या को 10,000 से अधिक नहीं बताया.

यदि आप परीक्षा में बैठते ही नहीं तो फिर ये शिकायत क्यों कि केंद्रीय प्रशासन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व मात्र 2.5 प्रतिशत है?

इसी तरह, लाखों छात्र हर साल आईआईटी में दाखिले की परीक्षा देते हैं, उनमें से मुसलमान कितने हैं? कितने मुसलमान कैट परीक्षा में बैठते हैं? अब तो हर सरकारी नौकरी के लिए परीक्षा है, बात बैंक की हो या सशस्त्र सेनाओं की. जब चयन योग्यता के आधार पर होता हो, तो मुसलमानों को इन परीक्षाओं में बैठने से कौन रोक रहा है?

मुसलामनों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व तो आज़ादी के समय से ही कम है. 1952 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 2 प्रतिशत था, जो कि 1984 में 8 प्रतिशत के स्तर तक आया था. यहां तक कि जब कांग्रेस भारी जनादेश के साथ शासन करती थी, तब भी उसने मुसलमानों को नहीं के बराबर ही टिकट दिए थे. इसलिए, भाजपा से इसकी उम्मीद करना मूर्खता होगी. राजनीतिक प्रतिनिधित्व एवं प्रशासनिक प्रतिनिधित्व दो अलग-अलग बातें हैं और मुसलमानों को प्रशासनिक प्रतिनिधित्व हासिल करने पर ध्यान देना चाहिए.


यह भी पढ़ें : मुस्लिम युवा सत्ता में भागीदारी के लिए आईएएस,आईपीएस की तरफ कर रहे है रुख़


मुसलमानों को मेरी यही सलाह है कि वे नए सिरे से विचार करें. एक समुदाय के रूप में, हमें वास्तव में शिक्षा पर फोकस करने की आवश्यकता है. इस दिशा में अधिकतर प्रयास हमें ही करने हैं. सरकार की मदद हमें केवल आखिरी चरण में चाहिए होगी.

लिंचिंग कोई नई बात नहीं है

जनता की यादाश्त कच्ची होती है और मॉब लिंचिंग (उन्मादी भीड़ के हमले) या दंगे की कोई घटना खबरों में मात्र 2-3 दिनों तक ही रह पाती है.

अखलाक़ हत्याकांड की खबर आते ही, मैं दादरी गया था. हमले में उनके छोटे बेटे को भी बुरी तरह पीटा गया था और उसकी खोपड़ी फूट गई थी. पर लोगों को ये नहीं पता कि उस लड़के का इलाज भाजपा सांसद महेश शर्मा के अस्पताल में हुआ था. यहां तक कि शर्मा ने उसके इलाज के लिए स्विटज़रलैंड से एक विशेषज्ञ चिकित्सक को भी बुलवाया था. मृतक का बड़ा बेटा, जो भारतीय वायुसेना में है, चेन्नई से दिल्ली स्थानांतरण चाहता था. मैंने अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया और आठ घंटे के भीतर उसका तबादला हो गया.

मैं ये पूछना चाहता हूं कि क्या पीड़ितों के अधिकारों की दुहाई देने वालों में से एक भी अखलाक़ के परिवार से मिलने गया था?

हम लिंचिंग की घटनाओं से इनकार नहीं कर सकते. पिछले पांच वर्षों में लिंचिंग की करीब 100 घटनाएं दर्ज हुई हैं, पर ये कहना गलत होगा कि ऐसी घटनाएं बेलगाम हो चुकी हैं.

इसके अलावा, लिंचिंग की ये छिटपुट घटनाएं नरेंद्र मोदी के कार्यकाल तक ही सीमित नहीं हैं. आज़ादी के वक्त से ऐसी घटनाएं होती रही हैं.

जिसे हम आज लिंचिंग कहते है वही पहले छुरेबाज़ी कही जाती थी और तब इसका सांप्रदायिकरण नहीं हुआ था. इन घटनाओं को लिंचिंग बताना खतरनाक है. यदि लिंचिंग उतनी ज़्यादा हो रही होती, तो मुसलमान बिना जान गंवाए ट्रेनों और बसों में यात्रा नहीं कर रहे होते.

घृणा की जगह प्रेम की विचारधारा के प्रसार से लिंचिंग की घटनाएं रुक जाएंगी. जब पहले से ही एक समस्या है तो उस पर प्रतिक्रिया कर हम एक और समस्या खड़ी करने का काम करते हैं. इसकी बजाय, मैं चाहता हूं कि मस्जिदों में मुसलमानों को भारत के संविधान के प्रावधानों की शिक्षा दी जाए.

सर्वाधिक ज़ालिम गृहमंत्री

जहां तक मुसलमानों के उत्पीड़न की बात है तो कठोर कानून बनाने वाली पार्टी की चर्चा कोई क्यों नहीं करता? टाडा कानून कौन लेकर आया था? कांग्रेस के कार्यकाल में अनेक निर्दोष मुसलमानों को आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (टाडा) के तहत तंग किया गया था.

इतिहास में पी. चिदंबरम को भारत के सर्वाधिक ज़ालिम गृहमंत्री के रूप में याद किया जाएगा. संसद में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन विधेयक, 2011 लेकर कौन आया था, जो कि बाद में कानून बना? ये चिदंबरम की अगुआई वाला गृह मंत्रालय ही था जिसने शत्रु संपत्ति अधिनियम, 1968 में संशोधनों का प्रस्ताव किया.


यह भी पढ़ें : भारतीय संविधान मुसलमानों को अल्पसंख्यक नहीं कहता, तो फिर किसने उन्हें अल्पसंख्यक बनाया?


मैं अमित शाह को तब से देख रहा हूं, जब वह गुजरात के गृहमंत्री थे. उनके कार्यकाल में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई थी. सब धारणा की बात है. इशरत जहां का मामला एक अलग-थलग घटना थी, पर यदि आप पूरे गुजरात के स्तर पर देखें तो उनके गृहमंत्री रहने के दौरान ना तो कोई दंगा हुआ, ना ही एक भी दिन का कर्फ्यू लगा. हमें इस बात को स्वीकार करने की ज़रूरत है.

अमित शाह के पास व्यापारिक बुद्धि है. मुसलमानों से उन्हें कोई घृणा नहीं है और उन्होंने मुस्लिम बहुल इलाकों से चुनाव जीते हैं.

भाजपा को एक सांप्रदायिक पार्टी और कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष ताकत के रूप में दिखाया जाना बहुत ही ख़तरनाक है. कांग्रेस जब सत्ता में होती है, तो वह सत्ताच्युत भाजपा से बदतर होती है और सत्ता से हटते ही उसे अचानक मुसलमान याद आने लगते हैं और वह उनका बड़ा भाई होने के नाटक की कोशिश करती है.

कुछ मुसलमान ज़रूर खुद को अलग-थलग या पीड़ित मानते हैं, पर ये एक छोटा-सा तबका है. अपने तमाम कार्यक्रमों के ज़रिए मैं उन्हें पीड़ित वाली इस मानसिकता से छुटकारे के लिए प्रेरित करने का प्रयास करता हूं.

हत्यारी मानसिकता वाले हर व्यक्ति के विरुद्ध 10 हिंदू हमारी मदद के लिए मौजूद हैं. भारत हमारा भी है.

(रेवती कृष्णन से बातचीत पर आधारित)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ज़फ़र सरेशवाला मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

share & View comments