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Friday, 19 April, 2024
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भारतीय संविधान मुसलमानों को अल्पसंख्यक नहीं कहता, तो फिर किसने उन्हें अल्पसंख्यक बनाया?

संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ समूह की परिकल्पना धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा के उद्देश्य से की गई है.

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अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का प्रभार संभालने के तुरंत बाद 2014 में नजमा हेपतुल्ला ने मुसलमानों के अल्पसंख्यक दर्ज़े को लेकर एक ज़बरदस्त टिप्पणी की. उन्होंने कहा, ‘यह मुस्लिम मामलों का मंत्रालय नहीं है, यह अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय है … मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं हैं.’

हेपतुल्ला का दावा जायज़ है. संविधान अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं करता है. संख्या की दृष्टि से छोटे किसी समुदाय की विशिष्टता को अल्पसंख्यक दर्ज़े के कानूनी आधार के रूप में निश्चय ही मान्यता प्राप्त है. पर विशिष्टता को इस तरह नहीं निरूपित किया गया है जैसा कि हम इसे समझते हैं– ‘हिंदू बहुसंख्यक बनाम मुस्लिम अल्पसंख्यक’ के खांचे में.


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वास्तव में संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ समूह की परिकल्पना एक खुली श्रेणी के रूप में धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट विभिन्न वर्गों के हितों की रक्षा के उद्देश्य से की गई है. इसलिए, संविधान के संदर्भ में एक स्थाई अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में मुसलमानों की परिकल्पना की संभावना नहीं है.

पर हेपतुल्ला का बयान बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद के राजनीतिक विमर्श से उपजा है, जिसने दरअसल मुसलमानों को एक स्थाई और निर्दिष्ट राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में परिवर्तित कर दिया है.

एक निर्दिष्ट राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में मुसलमान

मंदिर की राजनीति ने जब बाबरी मस्जिद के ध्वंस का कारण बनने वाले एक बड़े आंदोलन के लिए ज़मीन तैयार कर दी, तो कांग्रेस की सरकार ‘अल्पसंख्यकों’ ख़ास कर मुसलमानों में पैठ बनाने के लिए एक पैकेज लेकर आई. शायद इनमें सबसे महत्वपूर्ण कदम था राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून (1992) का बनाया जाना. इसमें कतिपय धार्मिक समुदायों के दूसरों की अपेक्षा हाशिये पर पड़े होने के कारणों के मूल्यांकन की ज़रूरत पर बल दिया गया था. इस कानून के आधार पर मई 1993 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना हुई.

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पर 1992 के इस कानून में भी ‘धार्मिक अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं दी गई है. असल में, इस कानून के संदर्भ में कतिपय समुदायों को ‘अल्पसंख्यक’ के रूप में अधिसूचित करने का अधिकार केंद्र सरकार को दिया गया है.


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कानून के ज़रिए अधिकार मिलने के बाद कांग्रेस सरकार ने अक्टूबर 1993 में पांच धार्मिक समुदायों: मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को राष्ट्रीय धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में अधिसूचित किया. 2014 में एक संशोधन के ज़रिए जैन समुदाय को भी राष्ट्रीय अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दे दिया गया.

पर, यह सामान्य-सा प्रशासनिक कदम संवैधानिक सिद्धांतों के लिए एक बड़ा ख़तरा है, क्योंकि संविधान में जानबूझकर किसी धार्मिक या सांस्कृतिक वर्ग को ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक’ के रूप में मान्यता नहीं दी गई है.

पिछड़ापन और अल्पसंख्यक दर्ज़ा

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने अल्पसंख्यक वर्ग की संवैधानिक व्याख्या और सरकार की 1993 की अधिसूचना में कोई विरोधाभास नहीं पाया. गृह मंत्रालय को भेजे 30 जुलाई 1997 के एक नोट में इसने स्पष्ट किया:

राष्ट्रीय स्तर के किसी अल्पसंख्यक समुदाय को इसकी स्थानीय आबादी पर विचार किए बगैर पूरे देश में अल्पसंख्यक का दर्ज़ा प्राप्त होगा. ऐसा उस किसी राज्य, क्षेत्र या ज़िले में भी होगा जहां कि संख्या के आधार पर वह समुदाय वास्तव में अल्पसंख्यक नहीं है. किसी राज्य विशेष में वैसे धार्मिक समुदायों को क्षेत्रीय अल्पसंख्यक का दर्ज़ा दिया जा सकता है, जिन्हें कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून के तहत ये दर्ज़ा नहीं प्राप्त है (जैसे यहूदी और बहाई समुदाय). (ताहिर महमूद, 2016: माइनॉरिटीज़ कमीशन 1978-2015: माइनर रोल इन मेजर अफेयर्स, द्वितीय संस्करण, यूनिवर्सल, दिल्ली, पृ. 129-130)

समर्थनात्मक कदमों के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता का उल्लेख करते हुए आयोग के नोट में दलील दी गई कि धर्म आधारित अनुसूचित जातियों के समान धार्मिक अल्पसंख्यक भी विशिष्ट वर्ग के रूप में मान्यता और विशेष सरकारी संरक्षण के हकदार हैं. दूसरे शब्दों में, वर्ग विशेष को राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक के दर्ज़े के लिए विशिष्टता वाले सिद्धांत में एक और प्रभावी मानदंड जुड़ गया-पिछड़ेपन और हाशिये पर होने का.

हमेशा धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यक के रूप में देखे जाने वाले भारत के मुसलमानों की परिकल्पना राष्ट्रीय स्तर पर एक पिछड़े समुदाय के रूप में की जाती है. सच्चर आयोग की रिपोर्ट ने इस प्रशासनिक-नीतिगत परिकल्पना को और सशक्त करने का काम किया, जो कि 2006 में गठित अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का निर्देशक सिद्धांत बन गया है.

मुसलमानों को अल्पसंख्यक दर्ज़ा और भाजपा

हालांकि पिछड़ेपन/हाशिये पर होने के आधार पर मुसलमानों को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दिए जाने के विरोध में भी ज़ोरदार राजनीतिक प्रतिक्रिया देखने को मिली. लालकृष्ण आडवाणी ने 1992 में संसद में अपने भाषण में कुछ राजनीतिक चिंताओं पर रोशनी डाली. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग विधेयक 1992 का विरोध करते हुए आडवाणी ने कहा:

….इस तरह का विधेयक सिर्फ कहने को ईसाई, पारसी, सिख आदि को संबोधित होता है, पर असल में इसका वास्ता केवल एक वर्ग से होता है… आप इस विधेयक को पारित कर ऐसी ही भारी और ऐतिहासिक गलती करने जा रहे हैं.
(ताहिर महमूद, 2016: माइनॉरिटीज़ कमीशन 1978-2015: माइनर रोल इन मेजर अफेयर्स, द्वितीय संस्करण, यूनिवर्सल, दिल्ली, पृ. 71-72)

विधेयक पर आडवाणी का स्पष्ट विरोध मुस्लिम तुष्टिकरण पर भाजपा की घोषित नीति के अनुरूप था. पार्टी राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का विरोध उस स्थिति को हासिल करने के लिए करती रही है जिसे कि आडवाणी ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ कहते हैं.


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इस तरह की दलील भाजपा के 1990 के दशक के घोषणा पत्रों (ख़ास कर 1996 और 1998 में) में ज़ोरदार ढंग से रखी गई थी. यह कहा जाता है कि पार्टी ‘अल्पसंख्यक आयोग को ख़त्म कर इसकी ज़िम्मेदारियां राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपने’ के लिए प्रतिबद्ध है.

हालांकि जब भाजपा ने 1998 में सरकार बनाई तो उसे मुसलमानों को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मानने में कोई परेशानी नहीं हुई. इसी तरह कांग्रेस द्वारा गठित दूसरे राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भी ख़त्म नहीं किया गया. सच तो ये है कि आडवाणी ने, जो तब गृह मंत्री थे, जनवरी 2000 में नए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पुनर्गठन में अहम भूमिका निभाई थी.
(ताहिर महमूद, 2016: माइनॉरिटीज़ कमीशन 1978-2015: माइनर रोल इन मेजर अफेयर्स, द्वितीय संस्करण, यूनिवर्सल, दिल्ली, पृ. 71-72)

भाजपा ने 2004 के बाद से मुसलमानों को अल्पसंख्यक दर्ज़े के मुद्दे पर बिल्कुल अलग रवैया अपनाया है. पार्टी औपरचारिक तौर पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के महत्वपूर्ण योगदान को स्वीकार करती है, और मुस्लिम सशक्तिकरण में इसकी प्रभावी भूमिका पर ज़ोर भी देती है.

भाजपा के 2014 के घोषणा पत्र में कहा गया है कि ‘आज़ादी के इतने दशकों बाद भी अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, निर्धनता में जकड़ा हुआ है.’

क्या इसका अर्थ यह है कि भाजपा ने मुस्लिम तुष्टिकरण पर अपने रुख़ को छोड़ दिया है?

वास्तव में मुसलमानों का अल्पसंख्यक दर्ज़ा सामाजिक न्याय की भाजपा की सुविचारित राजनीति में सटीक बैठता है. यह पार्टी को समावेश और निषेध के स्थापित ढांचे के भीतर काम करने का अवसर उपलब्ध कराता है. और साथ ही, यह एक पीड़ित राष्ट्रीय धार्मिक बहुसंख्यक की छवि प्रस्तुत करने में उसकी सहायता करता है.

आखिरकार संघ का नया मंत्र है- ‘मुसलमानों के बिना हिंदुत्व अप्रासंगिक है.’

(हिलाल अहमद सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ में राजनीतिक इस्लाम के विशेषज्ञ और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

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