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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतपाकिस्तान धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं देता, पर भारत के इस तरफ झुकने का ख़तरा है

पाकिस्तान धर्म के आधार पर नागरिकता नहीं देता, पर भारत के इस तरफ झुकने का ख़तरा है

जस्टिस एसआर सेन की टिप्पणी ने दक्षिण एशिया में मुसलमानों को लेकर देश के विभाजन के दौरान अधूरी रह गई एक बहस को फिर से शुरू कर दिया है.

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जस्टिस एसआर सेन का भड़काऊ बयान कि भारत को 1947 में एक हिंदू देश घोषित कर दिया जाना चाहिए था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए, ने एक बार फिर राष्ट्रवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता की शिथिल और रस्मी बहस को हवा दे दी है.

एक राजनीतिक धारणा बनी हुई है कि भारत के विभाजन से दक्षिण एशिया के मुसलमानों को फायदा पहुंचा था. उन्होंने एक मुस्लिम-बहुल इस्लामी राष्ट्र कायम किया और धर्मनिरपेक्ष भारत में विशेषाधिकार हासिल किए. दूसरी तरफ हिंदुओं को कोई हिंदू राष्ट्र नहीं मिला, तथा पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में उन्हें उत्पीड़ित किया गया. तो क्या भारत की नागरिकता के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान हिंदू हितों के विपरीत हैं?

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने जस्टिस एसआर सेन की टिप्पणी को राष्ट्रीय चिंता की अभिव्यक्ति करार दिया है.

धर्मनिरपेक्ष नागरिकता और हिंदू हित

हिंदुओं के भारतीय नागरिकता के ‘नैसर्गिक आधार’ का विषय 1947 से ही सर्वाधिक विवादास्पद राजनीतिक मुद्दों में शामिल रहा है.

धार्मिक आधार पर पाकिस्तान की स्थापना और उसके बाद विभिन्न समुदायों के सीमा के आरपार परस्पर पलायन ने भारत की संविधान सभा के कई सदस्यों को इस मांग के लिए प्रेरित किया कि हिंदुओं और सिखों को बिना शर्त भारतीय नागरिकता दी जाए. डॉ पीएस देशमुख की दलील थी:

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‘यदि मुसलमान पाकिस्तान नामक अपना एक विशिष्ट निवास स्थान चाहते हैं, तो फिर हिंदुओं और सिखों के लिए भारत अपना घर क्यों नहीं हो? हम किसी और को यहां की नागरिकता लेने से रोक नहीं रहे. हमारा मात्र ये कहना है कि नागरिकता के अधिकारों के लिए हमारे पास कोई और देश नहीं है… जब तक हम संबंधित धर्मों का पालन करते हों, भारत की नागरिकता हमारा अधिकार होना चाहिए …मैं नहीं समझता यह मांग किसी भी तरह अधर्मनिरपेक्ष या मज़हबी या सांप्रदायिक है.’

पर ऐसे तर्कों को महत्व नहीं मिला और संविधान सभा ने आखिरकार नागरिकता की एक धर्मनिरपेक्ष परिभाषा को अंगीकार किया. हिंदू, मुस्लिम और सिख जैसे शब्दों की जगह स्पष्टतया धर्मनिरपेक्ष प्रकृति की भाषा का इस्तेमाल किया गया. यहां तक कि बहुत ज़्यादा प्रचलित ‘हिंदू/सिख शरणार्थी’ जैसी अभिव्यक्तियों को भी संविधान के अंतिम प्रारूप में जानबूझकर जगह नहीं मिली और पाकिस्तान से आने वाले लोगों के लिए ‘आप्रवासी’ शब्द का उपयोग किया गया (अनुच्छेद 6, 7 और 8).

नागरिकता के ये धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत एक व्यक्ति को प्राप्त, और एक हद तक पक्की, धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान तथा नागरिक के रूप में राष्ट्र से उसके संबंध के बीच एक महत्वपूर्ण विभेद की परिकल्पना करते हैं. इस तरह, हिंदू/मुस्लिम विभेद पर आधारित एक स्थाई सांप्रदायिक बहुमत की जगह, बीआर आंबेडकर के शब्दों में, तार्किक धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों पर आधारित एक राजनीतिक बहुमत को मान्यता देने की कोशिश की गई.

इसका मतलब ये नहीं है कि नागरिकता की धर्मनिरपेक्ष अवधारणा में आप्रवासी समुदायों या 1947 के बाद भारत और पाकिस्तान में रह गए अल्पसंख्यों की दुर्दशा को नज़रअंदाज़ किया गया था. इसका एक उदाहरण है 1950 का प्रसिद्ध नेहरू-लियाक़त समझौता. इसके तहत दोनों सरकारें सभी समुदायों को नागरिकता देने और हर धर्म के अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने पर सहमत हुईं. भारत में धर्मनिरपेक्ष नागरिकता के इन सिद्धांतों को 1951 में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर शुरू करने के दौरान भी स्थान दिया गया.

जवाहरलाल नेहरू ने तथाकथित हिंदू हितों की पुनर्परिकल्पना की तथा आप्रवासी आबादी को राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया से जोड़ने के लिए एक सफल और व्यापक तथा स्पष्टतया धर्मनिरपेक्ष पुनर्वास कार्यक्रम की घोषणा की.

क्या मुसलमानों को पाकिस्तान मिला?

पाकिस्तानी अधिकारियों ने बाद के वर्षों में भारत से मुस्लिम आप्रवासियों को लेने से मना कर दिया. विभाजन के तुरंत बाद लागू की गई ‘परमिट व्यवस्था’ ने धीरे-धीरे पासपोर्ट प्रणाली का रूप ले लिया. वास्तव में, पाकिस्तान ने दक्षिण एशिया के तमाम मुसलमानों को नागरिकता देने की वचनबद्धता व्यक्त नहीं की थी. सच तो ये है कि आप्रवासी मुस्लिम आबादी को वहां आर्थिक एवं सामाजिक बोझ के तौर पर देखा गया. (वज़ीरा ज़मींदार, 2007, दि लॉन्ग पार्टिशन एंड दि मेकिंग ऑफ साऊथ एशिया, लंदन: पेंग्विन/वाइकिंग, पृ. 82-85)

यह नीति 1956 में पाकिस्तान को आधिकारिक रूप से इस्लामी राष्ट्र घोषित किए जाने के बाद भी जारी रही. पाकिस्तान ने महज़ इस्लामी पहचान के आधार पर व्यक्ति विशेष को नागरिकता का अवसर नहीं दिया. बांग्लादेश ने भी नागरिकता के इसी तरह के सिद्धांतों को अपनाया. वह भी भारत के मुसलमानों को किसी तरह की प्राथमिकता नहीं देता.

भारत के मुस्लिम नागरिकों को भी पाकिस्तान या बांग्लादेश जाने के लिए वीज़ा की दरकार होती है. इन देशों में उनके अबाधित प्रवेश की कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं है. इसलिए पाकिस्तान/बांग्लादेश को ‘मुस्लिम पितृभूमि’ बताने वाले तर्क पूरी तरह भ्रामक हैं.

हिंदुओं के नैसर्गिक अधिकार

नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 ने मानो ‘भारतीय नागरिकता के हिंदुओं के नैसर्गिक अधिकार’ संबंधी बहस को फिर से ज़िंदा कर दिया है. इस विधेयक में अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के ग़ैरमुस्लिमों के लिए बिना शर्त भारतीय नागरिकता के प्रावधान हैं. हालांकि इस विधेयक में ‘हिंदू हितों’ की स्पष्ट चर्चा नहीं है, पर इसमें मुसलमानों का अव्यक्त ज़िक्र स्पष्ट है. लक्षित देश मुस्लिम-बहुल हैं; साथ ही, जिन समुदायों को ‘आप्रवासी’ माना गया है वो ग़ैरमुस्लिम हैं.

इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति में भेजा गया है, जिससे एक बेहद संवेदनशील सवाल पर विचार की अपेक्षा की जाती है: क्या भारत की नागरिकता के लिए व्यक्ति विशेष के धर्म को एक आधार माना जाना चाहिए?

पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान मुसलमानों की पितृभूमि नहीं हैं. यूरोपीय शैली के ये राष्ट्र-राज्य इस्लाम को अपने राष्ट्रीय धर्म के रूप में मान्यता देते हैं, पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों की जवाबदेही नहीं लेते.

विडंबना ही कही जाएगी कि यूरोपीय राष्ट्र-राज्य के मॉडल के विचार को गंभीर चुनौती पेश करने वाले भारत पर आज, ‘हिंदू हितों’ के नाम पर, नागरिकता की अपनी विशिष्ट धर्मनिरपेक्ष अवधारणा से भटकने का ख़तरा पैदा हो गया है.

(हिलाल अहमद सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ में राजनीतिक इस्लाम के विशेषज्ञ और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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2 टिप्पणी

  1. Bharat Hindu rasta banana chahiye,,,, jab duniya me islam bahul abaadi vaale desh khud ko islamic State ghosit kar sakte hai to bharat kyo nahin,,,,,,

  2. पाकिस्तान भारत के मुस्लिम नागरिको को नागरिकता नही देता ,क्योकि यहाँ का मुस्लिम पीड़ीत नही है ,लेकिन यदि वो भविष्य मे कानून बनाकर नागक़रिकता देगा तो वहाँ के लोग सपोर्ट नही करेंगे ये तुम पहले से कैसे जान सकते हो ,वो सपोर्ट करेगे, और बात भारत की तो भारत ने प्रताड़ना से बचाने के लिए उन लोगो को नागरिकता देने का फैसला किया ,वरना अगर वो लोग वहाँ सुख से रहते तो भारत मे क्यो आना चाहते और दुसरी बड़ी बात खुद सुखी लोग क्यो पारिस्तान से भारत आयेगे,जैसा की भारत के मुस्लिम भारत को छौड़कर मुस्लिम राष्ट्र मे नही जाना चाहते क्योकि वो सुखी है, और नेहरू लियाकत समझौते के तहत दोनो देश अपने यहाँ के अल्पसंख्यको पर अत्याचार नही होने देगी उन्हे न्याय देगी ,जिस कारण अल्पसंख्यक इस विश्वास वहाँ रहे ,भारत ने तो अपने यहाँ अल्पसंख्यको को सुरक्षा, न्याय, अधिकार , सब्सिडी रियायते सब दिया जिससे यहाँ अल्पसंख्यक बढ़े ,लेकिन वही पाकिस्तान मे हिन्दु 18% से 1.85% प्रतिशत तक कर दिया गया ,उन्हे यातनाऐ दी गई , हिन्दु बच्चीयो के साथ अपहरण , बलात्कार , जबरन धर्म परिवर्तन , हिन्दु परिवारो पर हमला यह सब होता आ रहा है, तो क्या समझौते के तहत भारत का कर्तव्य नही है क्या जिन्होने समझौते पर विश्वास किया, उन लोगो की रक्षा की जाऐं, और जिस भारत ने अल्पसंख्यको की हमेशा रक्षा की उस भारत को सिखाने की बजाय, जाके पाकिस्तान बांग्लादेश ,और अफगानिस्तान से सवाल करे कि वहाँ के अल्पसंख्यको का खात्मा कैसे होता जा रहा है……

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