वे उन्हें बिली चारकोल के नाम से पुकारते थे— गठीले, बड़ा कद-काठी और बिंदास, ऑस्ट्रेलियाई आदिवासी कूकू यालंजी 19वीं सदी के पामर नदी क्षेत्र में विचरण करते थे, और सोने की उनकी खानों को लूटने और उनके लोगों की जमीन हड़पने लिए वहां आ रहे प्रवाससियों से अकेले ही लोहा ले रहे थे. एक वाचिक इतिहास में नॉर्मन मिशेल ने याद करते हुए कहा, ‘उन छोटे-छोटे चीनियों को वे हाथों से पकड़कर ऊपर उठा लेते थे और उनके हाथ बांधकर पेड़ के ऊपर रख देते थे. इसके बाद उन्हें भाला भोंककर मार डालते थे और नीचे उतारकर पकाकर खा लेते थे.’
ईजी हीप रेकॉर्ड किया है कि स्थानीय अधिकारियों को आश्चर्य होता था कि पामर नदी क्षेत्र के आदिवासी चीनी दूकानदारों या बंटाई की खेती करने वाले चीनी किसानों से बदला लेने के लिए नरभक्षी तक क्यों बन जाते थे और श्वेत प्रवासियों को कुछ क्यों नहीं करते थे जबकि वे आदिवासी औरतों, बच्चों और पुरुषों की जमीन हड़पने के लिए उन्हें दरिंदगी के साथ बेदखल कर रहे थे.
इसका सीधा-सा जवाब था—स्वाद, चाहे यह विरोधभासी या और कुछ क्यों न लगे—’बहुत ज्यादा नमक, सुअर के सूखे हुए नमक मिले मांस वाला स्वाद. बीते सप्ताह पूरा भारत केरल के एक शांत गांव एलंथूर से आई एक खबर को लेकर हैरत में रहा. यह विचित्र खबर अंधविश्वास के तहत किए गए यौनाचार, नरभक्षण से संबंधित थी. लेकिन इससे जुड़ा एक बड़ा सवाल भी है, जिसकी पूरी पड़ताल बाकी है. हर साल इस तरह की घटनाओं की खबरें आती रहती हैं. लेकिन कम ही खबरों को नेटफ्लिक्स तो छोड़िए, अखबारों के भीतरी पन्नों पर जगह मिल पाती है, जैसे 2018 में दिल्ली के एक परिवार के 11 लोगों की सामूहिक आत्महत्या की खबर.
हमारे पास यह सवाल करने लायक इतने प्रमाण हैं कि क्या अंधविश्वास से प्रेरित हत्याएं कहीं भारतीय आपराधिक मनोवृत्ति की विशिष्टता तो नहीं है, जैसे कि अमेरिका में सीरियल किलिंग या मेक्सिको में नशाखोरी की संस्कृति है?
हर तरह की अनुष्ठानिक हत्याएं हमें संबंधित समाज के आंतरिक द्वंद्वों और न्युरोसिस के बारे में कुछ अहम सीख देती हैं. भारत में अंधविश्वास के तहत हत्याएं इन कारणों से की जाती हैं—वैवाहिक रिश्ते को लेकर चिंताओं, संतान प्राप्ति की चाहत, आर्थिक परेशानियों के कारण और अफसोस कि ये सारे कारण जाने-पहचाने हैं. अश्लीलताएं परोसने वाले की तरह, अंधविश्वास से प्रेरित मनोरोगी दबी पड़ी उन आंतरिक यातनाओं को उभारना चाहता है जिन्हें हम प्रायः गुप्त ही रखना चाहते हैं.
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रोजाना के अंधविश्वास
राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड ब्यूरो अंधविश्वास से प्रेरित हत्याओं का कोई आंकड़ा नहीं रखता, उनकी गिनती दूसरी हत्याओं में ही करता है, हालांकि पिछले छह महीने में ऐसी हत्याओं की करीब एक दर्जन सनसनीखेज कहानियां सामने आई हैं. आगरा में तांत्रिक हुकुम सिंह ने अपनी तंत्र-शक्ति को बढ़ाने के लिए कथित रूप से दो साल के बच्चे की बलि चढ़ा दी. अमरोहा में, पुलिस के मुताबिक, सरोज देवी ने प्रजनन शक्ति बढ़ाने के तांत्रिक अनुष्ठान के तहत 18 महीने के अपने भतीजे की बलि चढ़ा दी. गुजरात में, कथित रूप से प्रेतग्रस्त एक किशोर को भूखा रखकर मार दिया गया.
अदालतों के आंकड़ों से भी साफ है कि तांत्रिक अनुष्ठानों के तहत हत्या भारतीय अपराध-न्याय जगत की आम बात है.
1973 में, राजस्थान हाईकोर्ट ने पांच साल के बच्चे नरेश पेरीवाल और उसकी चार साल की बहन सरिता की हत्या के लिए तांत्रिक सरदारा राम दकोट को फांसी की सज़ा सुनाई थी. अदालत के रेकॉर्ड के अनुसार दोनों बच्चों को देवी काली की प्रतिमा के सामने बलि दी गई और उनका खून उस स्थानीय महिला तुलसी राम के पेट पर मला गया, जो बच्चा पैदा करना चाहती थी.
2010 में सज़ा पाए एक तांत्रिक कठिरेसन सामियार ने घर बनाने की इच्छा रखने वाले एक परिवार को सलाह दी थी कि वह परिवार ‘अगली पूर्णिमा के दिन मानव बलि दे, वह भी छह से दस साल के बीच की उम्र के अपने सबसे बड़े बेटे की’. सलाह पर अमल किया गया.
ओड़ीशा हाइकोर्ट ने पिछले साल गणेश्वर पाताबांधा को दो साल के बच्चे अनिरुद्ध ढल की तांत्रिक बलि देने के आरोप से बरी कर दिया. बच्चे का शव एक कुएं से बरामद किया गया तो पाया गया था कि उसकी जीभ और एक अंगुली काट दी गई थी. लेकिन अदालत का कहना था कि गणेश्वर के खिलाफ एकमात्र सबूत ऐसा था जिसे कानूनन मान्य नहीं किया जा सकता था. गणेश्वर ने गांव की पंचायत के सामने कबूल किया था कि उसने “मां काली के सामने मानव बलि दी थी’.
फोरेंसिक जांचकर्ता यह नहीं सिद्ध कर पाए थे कि गणेश्वर के घर से मानव हड्डियां बरामद की गई थीं वे अनिरुद्ध की थीं, और कोई पोस्ट मार्टम नहीं किया गया था. उस मामले का निबटारा नहीं हुआ है.
हालांकि तांत्रिकों की हिंसा की खबरें निरंतर मिलती रहती हैं लेकिन उन्हें समुदायों के अंदर ही दबा दिया जाता है. दिल्ली में एक यौन अपराध के मामले के आरोपी तांत्रिक रघुनाथ ने बताया कि उसने एक दंपती को राजी किया था कि वे अपनी कुंवारी लड़की की शादी करना चाहते हैं तो उसे ‘यमुना नदी के किनारे श्मशान घाट पर रात के अंधेरे में पूजा करने के लिए भेजें’. राजस्थान में तांत्रिक गणपत लाल से जुड़ा बलात्कार का एक मामला भी इसी तरह संतान की चाहत का था जिसमें और अनुष्ठानों के अलावा एलोवेरा की मालिश भी शामिल थी, जिसकी व्यवस्था गर्भवती न हो पा रही महिला के पति ने की थी.
अकेले केरल में तांत्रिक से जुड़ी हत्याओं का सिलसिला देखा गया है, इसमें 2019 की एक घटना भी शामिल है. वहां के एक गांव में काला जादू करने वाले कृष्णकुट्टी और उसके परिवार की हत्या उसके एक चेले ने ही कर दी थी. ऐसी हत्याओं के बावजूद जादू-टोने से जुड़े मंदिर राज्य की दूसरी धार्मिक परंपराओं से जुड़ गए हैं और बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं को आकर्षित कर रहे हैं.
तांत्रिक क्रियाओं से जुड़ी हत्याओं को अंधविश्वास और अशिक्षा से जोड़ना तो आसान लगता है लेकिन ऐसे मामलों से शिक्षित, मध्यवर्गीय परिवारों से जुड़े लोग भी शामिल पाए गए हैं. इसलिए इनका गहरा विश्लेषण करने की जरूरत है.
संप्रदाय और सभ्यता
समुद्रतल से 22 हजार फीट ऊपर, दक्षिण अमेरिका में एंडीस पर्वतों में 500 साल पहले बलि चढ़ाई गईं लुल्लीयाको मेडेन का शव बिलकुल सुरक्षित दबा पड़ा था. इस किशोरवय लड़की को दफनाने से पहले उसके के बाल बहुत करीने से गुंथे गए थे, चेहरा अनुष्ठानिक लाल रंग से रंगा गया था. उसे सोने, चांदी और सीप के खोलों से बनी तीन छोटी मूर्तियों के साथ दफनाया गया था. छह साल की ‘लाइटनिंग गर्ल’ को पास में ही दफन किया गया था. सात वर्षीय लुल्लीयाको ब्वाय को अन्य चीजों के अलावा अतिरिक्त चप्पलों के साथ दफन किया गया था.
दक्षिण अमेरिकी लोगों के लिए ‘कापाचुचा’ यानी बच्चा-बच्ची और सुंदर, पवित्र युवती की बलि को रक्त अनुबंध का प्राकृतिक वरदान माना जाता था. बच्चे आसानी से अपनी जान नहीं देते थे, उन्हें दफन करने से पहले बुरी तरह नशा दिया जाता था और सिर पर प्रहार करके मार डाला जाता था.
डेविड कार्रस्को ने लिखा है कि करीब सात-आठ सौ साल पहले मध्य मेक्सिको में पनपी एज़टेक सभ्यता में मारे गए दुश्मन योद्धा के दिल को ‘मूल्यवान ईगल कैक्टस फल” माना जाता था और उसे पवित्र करने के बाद बड़े सम्मान से खाया जाता था.
विद्वान पीटर व्हिट्ले ने लिखा है कि मनुष्य के सामाजिक विकास के साथ नरभक्षण को बुरा माना जाने लगा. मानवविज्ञानियों का कहना है कि मनुष्य की बलि ने कई पूर्व-आधुनिक समाजों में सामाजिक पदानुक्रम (हाइरार्की) को स्थापित करने में मदद की, जो एक लाख से ज्यादा की आबादी होने पर बिखर गया.
जादू-टोने में विश्वास उन समाजों में भी मजबूत हुआ जिनमें धार्मिक सत्ता उन्हें विधर्मिता मानती थी. इतिहासकार क्रिस्टोफर टायरमैन ने लिखा है कि मध्ययुग में एक धर्मयोद्धा जाक्वा डि मइल्ली के शॉ से उसका गुप्तांग काट कर रख लिया गया था ‘ताकि अगर दैवी कृपा हुई तो इससे उसके जैसा वीर योद्धा पैदा हो.’ मध्ययुग के बारे में जिज्ञासा रखने वाले एक व्यक्ति को यह प्रथा जादू-टोने जैसी लगी होगी.
18वीं और 19वीं सदी में अफ्रीका के कुछ हिस्सों, न्यू गिनी, सुमात्रा की जनजातियों, उत्तर और दक्षिण अमेरिका आदि के कुछ समाजों में मानव बलि और नरभक्षण की प्रथाओं को यूरोपीय साम्राज्यों ने अपनी औपनिवेशिक मंशाओं को वैध ठहराने के लिए अपना लिया. इतिहासकार क्रिस्पिन बेट्स ने एक गंभीर निबंध में बताया है कि गोंड आदिवासियों में मानव बलि के बेहद कमजोर प्रमाणों को औपनिवेशिक हुक्मरान और ईसाई मिशनरियों ने किस तरह अपना लिया था.
हमारे भीतर का हत्यारा
सिग्मंड फ्रायड से अवचेतन में ही सही, मगर गहरे रूप से प्रभावित संस्कृति में जीते हुए, केरल में जादू-टोने के कारण की जाने वाली हत्याओं और सामूहिक सेक्स तथा वीर्यपान की रस्मों के बारे में आसानी से कहा जा सकता है कि यह सब यौन विचलन का मामला है. हो सकता है, क्योंकि सेक्स इस कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा है. फ़्रेडरिख हार्टमैन— हैनोवर का वह सीरियल किलर, जिसे कई दर्जन समलैंगिक पुरुषों की हत्या करने और उनका अंगभंग करने और उन अंगों का मांस के रूप में भक्षण करने के लिए बेचने के लिए 1925 में मौत की सज़ा दी गई थी— के बारे में ईव बिसकोफ़्स ने जो लिखा है उससे पता चलता है कि उसने जेल में अपने साथ हुए बर्बर बलात्कार का बदला लेने के लिए हत्याएं की थी.
आदिवासियों और चीनियों की लड़ाई के बारे में नॉर्मन मिशेल ने लिखा है कि उसमें यौन प्रतिद्वंद्विता और चिंता का पहलू भी शामिल था. क्वांटंग से आए प्रवासियों ने आदिवासी औरतों को हासिल करने के लिए अपनी दौलत और अफीम तथा रम का भी इस्तेमाल किया था. मिशेल ने बताया है कि बदले के लिए नरभक्षी बने बिली चारकोल की बीवी ने एक चीनी व्यापारी से छह बच्चे पैदा किए थे. मिशेल का दावा है कि इन रिश्तों के कारण यौन रोग ‘जंगल में आग की तरह फैल गए थे’.
लेकिन यह सिर्फ यौन संबंधों को लेकर चिंता और यौन अक्षमता का मामला नहीं था. बिली की कहानी में प्रतिशोध और उपनिवेशवाद का पहलू भी शामिल था. अपराध मनोविज्ञानी कैथरीन राम्सलैंड ने बताया है कि सीरियल किलरों के बारे में कोई एक बात नहीं काही जा सकता. वे अपमान, आक्रोश, परपीड़ा, मुनाफा, अपनी ख़्वाहिश बताने और विचलन के लिए सजा देने जैसे तमाम कारणों से प्रेरित हो सकते हैं. ये सब मानवीय गहरे मानवीय आवेग हैं, जो केवल हत्यारों में ही नहीं पैदा होते.
दार्शनिक हान्नो सौएर का अनुमान है कि हमें सीरियल किलर से जो चीज अलग करती है वह है—समानुभूति. वे कहते हैं, ‘बाहरी दुनिया के मामले में नैतिक निर्णय लेने में भावनाएं जो भूमिका अदा करती हैं वही भूमिका आम निर्णय करने में धारणाएं अदा करती हैं.’ सीरियल किलर में वह भावना नहीं होती जो बाकी हम सब में है, इसलिए वे धार्मिक मान्यताओं या नैतिकताओं के आधार पर बेलाग काम कर बैठते हैं.
मीडिया में जो सनसनीखेज कहानियां आती हैं वे रंग-बिरंगे मगर बेमानी ब्योरे देती हैं—सीरियल किलर ने कहां से खरीदारी की, नरभक्षी क्या-क्या खा रहा था. ये ब्योरे हत्यारे को समझने के लिए हमारे ज्ञान में कोई वृद्धि नहीं करते. भारत के जादू-टोना वाले हत्यारों के बारे में गहन अध्ययन—जैसे एफबीआई ने ऐसे हत्यारों के बारे में विस्तृत परिचय इकट्ठा करने की कोशिश की है—अपराध का पता लगाने और उसके लिए प्रभावी सज़ा दिलाने में बेहतर मदद कर सकते हैं. लेकिन इनका एक अप्रत्याशित नतीजा भी मिल सकता है—यह हमें खुद को बेहतर रूप से समझने में मददगार भी हो सकता है.
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लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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