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Sunday, 16 June, 2024
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मुलायम के दांव से बीएसपी का निकल सकता है दम

मुलायम सिंह जो कर रहे हैं, उससे सपा और बसपा की चुनावी संभावनाओं पर बुरा असर पड़ सकता है. इसका ज्यादा नुकसान बीएसपी को होगा, क्योंकि सपा में फैली उलझन के कारण सपा का वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं हो पाएगा.

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राजनीति में आने से पहले मुलायम सिंह अखाड़ों में पहलवानी करते थे. कुश्ती के कई दांव वे जानते हैं और कुछ साल पहले तक तो वे मिलने वालों को ये दांव सिखा भी दिया करते थे. राजनीति में आने के बाद भी दांव-पेंच की उनकी आदत छूटी नहीं है. दिलचस्प ये है कि इस बार वे अपने दांव किसी प्रतिद्वंद्वी पर नहीं, अपने ही बेटे अखिलेश और उनके गठबंधन पार्टनर मायावती पर आजमा रहे हैं.

मुलायम सिंह ने लखनऊ में गुरुवार को यानी 21 फरवरी को एक बार फिर वो किया, जिसके लिए वे ख्यात या कुख्यात रहे हैं. मुलायम सिंह उस दिन दोपहर को बिफर गए. दरअसल, उस दिन इससे कुछ ही समय पहले सपा और बसपा ने इस बात की घोषणा की थी कि कौन सी पार्टी किन सीटों पर लड़ेगी. इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं थी, क्योंकि ये पहले ही तय हो चुका था कि दोनों पार्टियां बराबर सीटों पर लड़ेंगी.


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लेकिन मुलायम सिंह को अचानक इससे दिक्कत हो गई और वे अखिलेश से कहने लगे कि बराबरी का समझौता क्यों किया. बसपा तो छोटी पार्टी है. उनका आरोप था कि इस तरह अखिलेश उस समाजवादी पार्टी को नष्ट कर देंगे, जिसे उन्होंने इतनी मेहनत से बनाया है.

इससे पहले लोकसभा के विदाई सत्र के आखिरी दिन मुलायम सिंह ने सबको चौंकाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफों के पुल बांध दिए. उन्होंने यहां तक कह दिया कि ‘नरेंद्र मोदी सबको साथ लेकर चलते हैं.’ नरेंद्र मोदी के बारे में ये बात बीजेपी भी नहीं कहती. मुलायम सिंह ने कहा कि ‘वे चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बनें.’

राजनीतिक शिष्टाचार के तहत नेता एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं, लेकिन जब चुनाव एक महीने बाद होने हों तो आपस में मुकाबला करने जा रहे नेता एक दूसरे की ऐसी प्रशंसा नहीं करते. वैसे भी लोकसभा में उस दिन विपक्षी दलों में ये ‘शिष्टाचार’ सिर्फ मुलायम सिंह ने निभाया.

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मुलायम सिंह ने लखनऊ में गठबंधन के खिलाफ जो बयान दिया है, उसने अखिलेश और उससे भी ज्यादा मायावती की चिंता बढ़ा दी होगी. इससे न सिर्फ गठबंधन दलों के कार्यकर्ताओं में भ्रम फैला होगा, बल्कि उनके बीच एक दूसरे के प्रति शक पैदा हुआ होगा. बीएसपी की तरफ से चूंकि ऐसी कोई हल्की बात नहीं की गई है, इसलिए बीएसपी का वोट तो फिर भी सपा को ट्रांसफर हो जाएगा, लेकिन क्या सपा का वोट पूरी तरह बीएसपी को ट्रांसफर हो पाएगा? सपा में जो लोग मुलायम सिंह के समर्थक हैं या जिन लोगों को मुलायम सिंह ने आगे बढ़ाया है, उनके लिए ये विचित्र स्थिति है. कुल मिलाकर पूरे गठबंधन को मुलायम सिंह के बयानों से नुकसान ही हुआ है.

सवाल उठता है कि मुलायम सिंह दरअसल कर क्या रहे हैं? वे ऐसे बयान क्यों दे रहे हैं जिससे सपा और बसपा गठबंधन का नुकसान होगा?

इसकी चार व्याख्याएं हो सकती हैं

1- पहला कारण ये हो सकता है कि मुलायम सिंह की उम्र हो चुकी है. वे 79 साल के हैं और उनकी सेहत भी ठीक नहीं रहती. उन्हें जानने वाले कई लोग कहते हैं कि उन्हें अब ठीक से याद भी नहीं रहता. इसलिए वे जो बयान दे रहे हैं, उन्हें गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है. हो सकता है कि ये एक हद तक सही हो, लेकिन ऐसी हालत में उन्हें कुछ बयान गठबंधन की जीत की संभावना के बारे में भी देने चाहिए. अब तक उनका ऐसा कोई बयान आया नहीं है. जाहिर है कि मुलायम सिंह के बयानों को ऐसे उम्रदराज बुजुर्ग का बयान कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, जिसे अब ठीक से याद नहीं रहता.

2- दूसरा कारण ये हो सकता है कि मुलायम सिंह को सपा और बसपा का करीब आना पसंद न आ रहा हो. 1995 के बाद से सपा और बसपा ने बहुत वफादारी के साथ 22 साल तक आपसी कड़वाहट निभाई है. इस दौरान सपा ने बीजेपी से ज्यादा नफरत बसपा से की और बसपा भी इसमें पीछे नहीं रही. इस दौरान एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने की दोनों दलों ने बेशुमार कोशिशें कीं. गेस्ट हाउस कांड हुआ, जब सपा कार्यकर्ताओं ने मायावती को घेर लिया था और उन्हें कमरे में बंद होकर जान बचानी पड़ी थी. इसी दौरान बसपा को तोड़ने की कोशिश हुई तो सपा के कार्यकर्ताओं के खिलाफ सरकार ने कार्रवाई भी की. ये कड़वाहट हाल में ही कम हुई जब 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद सपा और बसपा दोनों को समझ में आया कि साथ आए बिना वजूद बच नहीं पाएगा. अखिलेश और मायावती तो पुराने अतीत को भुलाकर साथ राजनीति करने के लिए तैयार हैं. लेकिन मुलायम सिंह को शायद ये पच नहीं रहा है. गठबंधन को लेकर खटास को वे छिपा नहीं पा रहे हैं. तो क्या इसी वजह से मुलायम सिंह सपा-बसपा को लेकर बयानबाजी कर रहे हैं?

3- तीसरा कारण ये हो सकता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति को अब भी सीबीआई और ईडी जैसे केंद्रीय जांच एजेंसियां संचालित कर रही हैं. विभिन्न केसों में केंद्रीय एजेंसियां सपा और बसपा के शीर्ष नेताओं और उनके परिजनों के खिलाफ जांच कर रही हैं. यादव सिंह केस से लेकर गोमती रिवर फ्रंट केस में सपा की सरकारें और नेता जांच के दायरे में हैं. ऐसा संभव है कि मुलायम सिंह इन एजेंसियों के दबाव में हैं और इनकी जांच से परिवार को बचाने के लिए वे वह सब कर रहे हैं, जो बीजेपी उनसे कराना चाहती हैं.

4- चौथा कारण ये हो सकता है कि मुलायम सिंह दरअसल ऐसे ही हैं. वे कब क्या कर जाएं, किसी को नहीं मालूम. उन्होंने चरण सिंह के साथ शुरुआती राजनीति की और चरण सिंह की मौत के बाद उनके बेटे अजित सिंह को किनारे लगा दिया. अजित सिंह को किनारे लगाने के लिए उन्होंने वीपी सिंह की मदद ली और काम पूरा होते ही वीपी सिंह से दूर खिसक लिए और चंद्रशेखर के साथ हो लिए. फिर चंद्रशेखर की पार्टी समाजवादी जनता पार्टी को तोड़कर समाजवादी पार्टी का गठन कर लिया. 2003 में बीएसपी की सरकार गिरने के बाद उन्होंने बीजेपी के विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी और राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री की मदद से बीएसपी में टूट कराई और अपना कार्यकाल पूरा किया. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय में वे वामपंथी दलों के साथ थे. लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में वे बीजेपी के साथ हो गए और एपीजे अब्दुल कलाम की उम्मीदवारी का समर्थन कर दिया. मनमोहन सिंह की सरकार में न्यूक्लियर डील के सवाल पर उन्होंने लेफ्ट पार्टियों को फिर से झटका दिया और कांग्रेस के साथ मिलकर डील के पक्ष में मतदान किया. मुलायम सिंह सीधे रास्ते से सफर करने वाले नेता नहीं है. वे दांव-पेच की पेचीदा गलियों से अपना सफर तय करते हैं.


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इस बार अलग ये है कि उनके दांव उनके अपने बेटे अखिलेश को नुकसान पहुंचा सकते हैं. क्या अखिलेश के पास ऐसा कोई तरीका है, जिससे वे मुलायम सिंह को ये सब करने से रोक सकें?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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