लाल बहादुर शास्त्री जून 1964 में जब प्रधानमंत्री बने थे उस दौर में देश के विभिन्न भागों में लगातार फसलों के बेकार होने से खाद्य संकट पैदा हो गया था और कृषि मंत्रालय को ‘राजनीति की कब्र’ माना जाता था. कृषि उपज घटकर 6.2 करोड़ टन प्रति वर्ष पर पहुंच गई था और भारत अमेरिकी पीएल-480 कार्यक्रम के तहत आने वाली खाद्य सामग्री पर पूरी तरह निर्भर हो गया था. अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी तो खाद्य सहायता को मानवीय पहल मानते थे, लेकिन उनके बाद आए राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन रूखे दबंग नेता थे, जो सहायता पाने वाले देशों से यह अपेक्षा रखते थे कि वह उनकी राजनीतिक लाइन पर चलें.
शास्त्री के दो वरिष्ठ साथियों, जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह ने कृषि मंत्रालय लेने से मना कर दिया तो शास्त्री ने सी. सुब्रह्मण्यम को फोन किया. बताया जाता है कि सुब्रह्मण्यम ने पूछा, “मुझे क्यों?” इस पर शास्त्री ने जवाब दिया कि “क्योंकि कोई तैयार नहीं हो रहा है”. सुब्रह्मण्यम ने सोचने के लिए समय मांगा, वे इस्पात मंत्रालय में अच्छी तरह जमे हुए थे, लेकिन शास्त्री ने इस संकट और भारत को खाद्य सामग्री में आत्मनिर्भर बनाने की चुनौती का सामना करने में उन्हें पूरा राजनीतिक समर्थन देने का आश्वासन देकर उन्हें राज़ी कर लिया.
कृषि मंत्रालय संभालते ही सुब्रह्मण्यम ने इस्पात मंत्रालय के अपने अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय कृषि में ठहराव की मूल वजह यह है कि “किसानों को उनके प्रयासों का उचित और लाभकारी कीमत नहीं मिल रही थी”. वे यह देखकर हैरान थे कि सरकार अभी भी युद्धकाल वाली नीति चला रही है जिसके तहत कंट्रोल और राशनिंग जारी थी और फसल उगाही की ऐसी व्यवस्था लागू थी जो प्राथमिक उत्पादनकर्ता को घाटा पहुंचाती थी.
सुब्रह्मण्यम ने प्रधानमंत्री के सचिव एल.के. झा की अध्यक्षता में एक कमिटी नियुक्त की और उसे 1964-65 के फसल वर्ष के लिए धान और गेहूं की ‘उत्पादक कीमत’ तय करने का काम सौंपा. अक्टूबर 1964 में शास्त्री के पूर्ण समर्थन से तैयार पहले कैबिनेट नोट में सुब्रह्मण्यम ने रबी और खरीफ फसलों की कीमतों में 15 फीसदी की अभूतपूर्व वृद्धि का प्रस्ताव पेश किया. वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी इसका विरोध किया क्योंकि उन्हें लगा कि इससे महंगाई बढ़ जाएगी. गृह मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा ने औद्योगिक कामगारों में असंतोष भड़कने की आशंका जताई.
वैसे, 15 फीसदी की इस बड़ी वृद्धि से भी ज्यादा महत्वपूर्ण थी 1 जनवरी 1965 से कृषि मूल्य आयोग (एपीसी) की स्थापना. इसका काम धान और गेहूं ही नहीं बल्कि मोटे अनाजों, दालों, तेलहन, गन्ना, कपास और जूट की कीमतों की नीति के बारे में निरंतर सलाह देना तय किया गया. इतने वर्षों में उसका दायरा और बढ़ा दिया गया और ‘एपीसी’ (अब ‘सीएपीसी’) अब 23 जींसों के बारे में सलाह दे रहा है.
गांधीवादी अर्थशास्त्री एम.एल. दांतवाला को ‘एपीसी’ का पहला अध्यक्ष नियुक्त किया गया था. वे भारतीय कपास अर्थव्यवस्था के लिए काम कर चुके थे और किसानों के हितों और कपड़ा उद्योग के कामगारों के हितों के बीच संतुलन स्थापित करने की ज़रूरत को उन्होंने समझा. अपनी नई भूमिका में उन्हें किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन कीमतों (एमएसपी) की सिफारिश करनी थी ताकि वे नई टेक्नोलॉजी को अपना सकें, संसाधनों का अधिकतम उपयोग करें और उत्पादकता बढ़ाएं. तब तक यह स्पष्ट हो चुका था कि सामुदायिक विकास वाले रास्ते की अपनी सीमाएं हैं. ज़रूरत थी सार्वजनिक वितरण सेवा के लिए प्रत्यक्ष उगाही के जरिए, या तेलहन और दलहन को कीमतों के समर्थन के जरिए ऊंचे आर्थिक लाभ और फसल उगाही की सरकारी गारंटी की.
हर्ष दामोदरन के अनुसार, एपीसी का आइडिया फोर्ड फाउंडेशन द्वारा करवाए गई एक स्टडी में भी उभरा था, लेकिन उसे गौण बना दिया गया क्योंकि उन दिनों किसी भी ‘अमेरिकी’ चीज़ को संदेह की नज़र से देखा जाता था. विडंबना यह है कि इस बदलाव के पीछे जो तीन लोग थे — मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम, वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन, और कृषि सचिव बी. शिवरामन — उन पर आरोप लगाया गया कि वे अमेरिकी दबाव के आगे झुक गए हैं. सार यह है कि अमेरिकी पक्ष छोटी काश्त की वकालत कर रहा था, सोवियत संघ सामूहिकता और पेशागीरी को बढ़ावा दे रहा था, जबकि ये दोनों उपाय सोवियत संघ और चीन में पहले ही विफल हो चुके थे.
इस बीच, दांतवाला किसानों की सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा की खातिर ज्यादा दखल और कीमत को स्थिर करने की जो वकालत कर रहे थे उसे वी.एम. दांडेकर ने चुनौती दे दी. उनका कहना था कि इस तरह की नीतियों से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा और कृषि क्षेत्र का स्वाभाविक विकास बाधित होगा. यह बौद्धिक बहस ‘इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली’ पत्रिका में चली. दांडेकर और (सह-लेखक) का तर्क था कि हालांकि, गरीबी और कुपोषण एक-दूसरे से जुड़े हैं, वे अक्सर स्वतंत्र आंकड़े होते हैं और उनके लिए स्पष्ट, अलग नीतिगत पहल की ज़रूरत होती है.
जय जवान, जय किसान
फिर भी, एमएसपी लागू किए जाने के पांच साल के अंदर भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक खामोश बदलाव आया. 1947 में भारत की आज़ादी के बाद के 78 वर्षों में पांच वर्षों की जिस अवधि को सबसे परिवर्तनकारी मगर सबसे कमतर आंका गया वह 1965-66 से 1970-71 की अवधि मानी जाएगी.
इस अवधि में भारत में अनाज उत्पादन 10.8 करोड़ टन पर पहुंच गया, जिसने खुद अपना पेट भरने की इस देश की क्षमता पर सभी संदेहों को खारिज कर दिया. किसानों ने नतीजा दे दिया था और भारत खाद्य सामग्री के मामले में आत्मनिर्भर से ज्यादा सक्षम हो गया था, जबकि जवान इतना मजबूत हो गया था कि 1971 में पश्चिमी तथा पूर्वी, दोनों मोर्चों पर लड़ाई में निर्णायक जीत हासिल कर सकता था और बांग्लादेश की स्थापना करवा सकता था.
तब तक कृषि मंत्रालय सबसे चहेता विभाग बन गया था. 1970 के दशक के बाद से इसकी कमान जगजीवन राम, बलराम जाखड़, देवीलाल, नीतीश कुमार और शरद पवार जैसे दिग्गजों ने संभाली. आज इसे शिवराज सिंह चौहान संभाल रहे हैं, जो मध्य प्रदेश में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके हैं.
एमएसपी के अनुभव आधारित मानदंड
नीति के लिहाज़ से देखें तो बाद में जो लोग एपीसी के अध्यक्ष रहे — जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री अभिजीत सेन, टी. हक और अशोक गुलाटी उन सबने एमएसपी तय करने के लिए अनुभव आधारित मानदंड लागू किए. 1980 तक यह कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) में तब्दील हो गया, क्योंकि भारत सरप्लस खाद्य उत्पादन करने लगा.
लागत के मामले में किसानों के राजनीतिक शब्दकोश में तीन नये शब्द शामिल हो गए — A2, A2+FL और C2.
- A2 में बीज, खाद, रसायन, मशीन, सिंचाई और कार्यगत पूंजी, घिसाई और पट्टे की जमीन के किराए वगैरह पर पहले ही किए जा चुके खर्चे शामिल किए गए;
- A2+FL में परिवार के श्रम के रूप में आंकी गई कीमत को शामिल किया गया;
- C2 का विचार स्वामीनाथन दिया था, जब वे 2006 में राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष थे. इसमें A2+FL के अलावा अपनी ज़मीन के आंके गए किराये और दूसरी लागतों को शामिल किया गया.
A2+FL में 50 फीसदी की वृद्धि का अर्थ था कि किसान और उसके परिवार ने खेत पर जो श्रम किया उसका मूल्य मजदूरों पर किए जाने वाले खर्च से 50 फीसदी ज्यादा आंका गया. यानी इसमें किसान परिवारों के पसीने के रूप में लागत को मान्यता दी गई.
संतुलन लाने में जुटा ‘सीएसीपी’
‘सीएसीपी’ का काम आसान नहीं है. हर एक फसल में कई तरह के दावेदार होते हैं. उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल, असम, बिहार के जूट किसान ऊंची एमएसपी की मांग कर रहे हैं, लेकिन पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे अनाज उत्पादक राज्य और केंद्रीय कृषि मंत्रालय इसका विरोध करता है. इनका कहना है कि जूट की कीमत बढ़ाने से गेहूं उगाही के लिए बोरे महंगे हो जाएंगे. उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय को महंगाई की चिंता है. कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय किसानों की आमदनी दोगुनी करने की कोशिश में जुटा है. इन प्रतियोगी मांगों के बीच संतुलन लाना एक नाजुक मामला है. पेंच यह है कि किसानों की आमदनी बढ़नी चाहिए, लेकिन खाद्य सामग्री की कीमतें नहीं बढ़नी चाहिए.
वक्त के साथ बदलाव
उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में कृषि सचिव और केंद्र में संयुक्त सचिव के अलावा ‘नाफेड’ के एमडी के पदों पर रहते हुए मैं अलघ, सेन, हक, और गुलाटी से खुली बातचीत कर चुका हूं. दांतवाला की तरह अलघ, सेन और हक भी कृषि की अर्थव्यवस्था में राज्यों की भूमिका को सबसे प्रमुख मानते थे.
लेकिन, आर्थिक उदारीकरण के बाद भारतीय कृषि का प्रारूप बदल गया है. अब यह अभावों वाली अर्थव्यवस्था नहीं रही. इसने उपभोक्ताओं की मांगों और बाज़ार में आए बदलावों को प्रतिबिंबित करना शुरू कर दिया है. गुलाटी के कार्यकाल में यह बदलाव आया. वर्ष 2000 के साथ ‘टायर 1’ और ‘टायर 2’ वाले शहरों के आसपास के किसान अनाजों की जगह डेरी, मवेशी, मछलीपालन, बागवानी आदि कमाऊ कृषि से ज्यादा आमदनी करने लगे.
2015 तक, बागवानी के उत्पादों का उत्पादन अनाजों के मुकाबले आकार, वजन और कीमत के मामले में काफी बढ़ गया. दांतवाला-दांडेकर की तरह स्वामीनाथन भी उदार निर्यात नीति को लेकर संशय में थे, जबकि गुलाटी का कहना था कि कृषि उत्पादों के व्यापार पर सरकारी प्रतिबंधों के कारण किसानों को बेहतर कीमत नहीं मिल सकती और उनकी आमदनी नहीं बढ़ सकती. मुक्त व्यापार और विदेश व्यापार से किसानों को लाभ होगा.
चावल और गेहूं समेत कई कृषि उत्पादों के निर्यात पर रोक लगी थी. इसका अर्थ यह था कि भारतीय किसान कीमतों में वैश्विक उछाल का लाभ नहीं उठा सकते थे. गुलाटी का मानना था कि निजी उगाही में वृद्धि और मंडी टैक्सों को खत्म करने से थोक और खुदरा कीमतों के बीच अंतर कम होगा. उन्होंने इस विचार को खारिज कर दिया कि एमएसपी में वृद्धि से खाद्य सामग्री की महंगाई बढ़ेगी. उनका कहना था कि एमएसपी से मुक्त सब्जी, फल, मांस, मछली जैसी चीज़ें महंगाई बढ़ाती हैं.
आगे का रास्ता
‘सीएसीपी’ के वर्तमान अध्यक्ष विजय पॉल शर्मा इस पद पर अपने दूसरे कार्यकाल में हैं. आईआईएम-अहमदाबाद में प्रोफेसर भी हैं. उन्होंने कृषि-मूल्य चेन में प्रबंधन कौशल को भी दाखिल किया है. उनके कार्यकाल में किसानों ने ‘सीएसीपी’ और ‘एमएसपी’ को वैधानिक आधार दिए जाने की मांग को लेकर कई प्रदर्शन किए हैं.
केंद्र और राज्यों की सरकारों में काम करने के बाद मेरा मानना है कि ‘सीएसीपी’ या ‘एमएसपी’ को वैधानिक आधार दिए जाने पर ज़ोर देने से ज्यादा इन्फ्रास्ट्रक्चर (भंडारण, बाजार से जुड़ाव, कृषि औजारों के केंद्र, उधार की व्यवस्था, मूल्य संवर्द्धन, कीमतों में पारदर्शिता आदि) को मजबूत बनाने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.
भारतीय कृषि ने शास्त्री के जमाने से आगे लंबी यात्रा तय की है. उन्होंने जिन संस्थाओं की स्थापना की उन्हें समय के मुताबिक, विकास करना चाहिए. किसानों को सबसे अच्छी कीमतें मिलें, इस तरह के सिद्धांतों को जरूर आगे बढ़ाया जाए, लेकिन इसके साथ आधुनिक वास्तविकताओं के अनुरूप रणनीति और व्यवहार भी लागू किए जाएं.
(यह लाल बहादुर शास्त्री और उनके द्वारा बनाए गए संस्थानों पर आधारित लेखों की सीरीज की दूसरी कड़ी है.)
(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के महोत्सव निदेशक हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. चोपड़ा लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल (एलबीएस म्यूज़ियम) के ट्रस्टी भी हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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