पंजाब में जगजीत सिंह डल्लेवाल के नेतृत्व में किसानों के लिए ‘एमएसपी’ की कानूनी गारंटी की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन में जो गतिरोध पैदा हुआ हुआ है वह वैसी सुर्खियां नहीं बटोर पाया है जैसी तीन साल पहले हुए किसान आंदोलन ने बटोरी थी.
पिछले आंदोलन में किसानों की भागीदारी विशाल पैमाने पर हुई थी, उसे लगभग सभी गैर-भाजपाई दलों का समर्थन मिला था. वह आंदोलन पंजाब-हरियाणा से भी आगे बढ़कर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश तक पहुंच गया था और उसकी धमक विदर्भ तक महसूस की जा रही थी.
इस लेख में एमएसपी के इतिहास, उसके महत्व की चर्चा के साथ इस पर भी विचार किया जा रहा है कि पहले की तरह आज यह मुद्दा उतनी प्रमुखता क्यों नहीं पा रहा है.
उपभोक्ता तक आपूर्ति
60 साल पहले 1965 में व्यवहार-कुशल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, स्पष्ट वक्ता कृषि व खाद्य मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम, ‘आईसीएआर’ के नवनियुक्त अध्यक्ष एम.एस. स्वामीनाथन और केंद्रीय कृषि सचिव बी. शिवरामन की मंडली ने हरित क्रांति की नींव डाली और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के साथ अनाज उगाही की व्यवस्था शुरू की. शिवरामन को खास तौर पर इसी काम के लिए नियुक्त किया गया था.
शास्त्री और सुब्रह्मण्यम ने इन सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी राजनीतिक तथा बजटीय समर्थन दिया. हालांकि, वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी और वित्तीय मामलों में काफी रूढ़िवादी मोरारजी देसाई सरीखे नेता इसके विरोध में थे, जिन्हें डर था कि इससे महंगाई बहुत बढ़ जाएगी. स्वामीनाथन ने कृषि अनुसंधान एवं विस्तार व्यवस्था में सुधार करके हरित क्रांति के लिए तकनीकी आधार तैयार किया. शिवरामन ने एमएसपी लागू करने के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) और कृषि मूल्य आयोग (एपीसी, जो अब सीएसीपी है) जैसी प्रशासनिक व्यवस्था तैयार करने के लिए कानून बनवाने में बड़ा योगदान दिया.
नई सहस्राब्दी वालों को यकीन नहीं होगा मगर यह हकीकत है कि 1960 के दशक के मध्य में हमारी खाद्य स्थिति आयात पर निर्भर बताई जाती थी. हमारी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था (पीडीएस) अमेरिका के ‘पब्लिक लॉ 480’ (पीएल 480) कानून के तहत अमेरिका से आयात किए जाने वाले अनाज पर निर्भर थी. पीएल 480 राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी की पहल से बना कानून था. केनेडी का कहना था कि “भोजन ताकत है, भोजन शांति है, भोजन आज़ादी है, भोजन दुनिया भर के उन लोगों की ओर बढ़ा सहायता का हमारा हाथ है जिनका सदभाव और दोस्ती हम चाहते हैं”.
यह वह दौर था जब प्रधानमंत्री शास्त्री ने हरेक भारतीय से आह्वान किया था कि वह देश की खाद्य स्थिति को बेहतर बनाने के लिए नवंबर 1965 से सप्ताह में एक शाम उपवास रखें. उस समय भारत की 48 करोड़ आबादी के लिए 9.5 करोड़ टन अनाज की ज़रूरत थी और उसे 1.2 करोड़ टन अनाज आयात करना पड़ता था.
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अभाव से बहुतायत तक
तब से लेकर आज तक के बीच भारत खाद्य पदार्थ की कमी वाले देश से अत्यधिक सरप्लस वाला देश बन गया है. पिछले साल अनाज का उत्पादन 33 करोड़ टन तक पहुंच गया. इससे भी अहम बात यह है कि हमारे भोजन में विविधता बढ़ी है; दूध, मुर्गी-अंडे, मछली, मांस जैसे मूल्यवान खाद्य पदार्थ हमारी थाली में प्रमुख जगह पा रहे हैं.
लेकिन कृषि लागत एवं कीमत आयोग (सीएसीपी) पिछले 60 साल से अपने वैधानिक फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करता रहा है.
सबसे पहले 1965 में गेहूं और धान के लिए एमएसपी की घोषणा की गई थी. उसके बाद से अब तक 23 फसलों को एमएसपी के दायरे में लाया जा चुका है. इनमें ज्वार, जौ, बाजरा, रागी, और मक्का जैसे अनाज; अरहर, चना, मूंग और मसूर जैसी दालें; मूंगफली, सरसों और सोयाबीन जैसी तेलहन शामिल हैं. तंबाकू, कपास, जूट, नारियल जैसी दूसरी कृषि जींसें भी इस दायरे में शामिल हैं. गन्ने के लिए ‘फेयर ऐंड रीम्यूनरेटिव प्राइस’ (एफआरपी) व्यवस्था लागू है. एफसीआई का मुख्य काम अनाजों की खरीद है, जबकि ‘नाफेड’ के जिम्मे दलहन और तेलहन हैं.
ऐसा कोई साल नहीं बीता है जब एमएसपी न घोषित की गई हो और सरकारी खरीद न की गई हो. फिर भी, हर साल अपेक्षा पूरी न होने की बात उठती है. किसान हमेशा ‘सीएसीपी’ द्वारा घोषित कीमतों से ज्यादा कीमतों की मांग करते हैं.
लेकिन किसानों के सामने जो असली चुनौतियां हैं क्या एमसपी उन्हें दूर करता है?
एमसपी की सीमाएं
एमएसपी की घोषणा करने में ‘सीएसीपी’ कई तरह के मसलों पर विचार करता है. इनमें मांग-आपूर्ति का समीकरण, घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय कीमतों की दिशा, फसलों की कीमतें, कृषि तथा गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें, उपभोक्ताओं पर एमएसपी का प्रभाव और कुल अर्थव्यवस्था की स्थिति आदि शामिल हैं. ज़मीन और जल जैसे राष्ट्रीय संसाधनों के तार्किक उपयोग का भी ख्याल रखना पड़ता है, लेकिन 1990 के दशक से, अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले कृषि क्षेत्र के व्यापार में गिरावट आई और इस वजह से किसानों की आजीविका पिछड़ने लगी.
किसानों के असंतोष और आत्महत्याओं के मद्देनज़र यूपीए सरकार ने किसानों के मामलों के लिए 2004 में डॉ. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था. इस आयोग ने 2006 में जो सिफारिशें की उनमें एक यह था कि एमएसपी उत्पादन की औसत लागत से कम-से-कम 50 फीसदी ज्यादा होनी चाहिए. हालांकि, इस सिफारिश को किसानों के लिए यूपीए की राष्ट्रीय नीति में तो शामिल नहीं किया गया, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार ने इसे अपना लिया. सरकार ने आश्वस्त किया कि 2018-19 से खरीफ, रबी और नकदी फसलों के लिए एमएसपी उनकी उत्पादन लागत से 50 फीसदी ज्यादा दी जाएगी.
स्वामीनाथन आयोग ने एमएसपी के बारे में जो सिफारिश की थी वह पिछले छह साल से लागू थी. वास्तव में, 26 नवंबर 2020 से एक साल तक जो किसान आंदोलन चला वह 19 नवंबर 2021 को गुरुनानक जयंती के दिन खत्म हुआ मगर एमएसपी उसका मुख्य मुद्दा नहीं था. वह आंदोलन मुख्यतः तीन विवादास्पद कृषि कानूनों, ज़मीन के पट्टे, और एपीएमसी बाज़ारों के खिलाफ था. माना जा रहा था कि उन कानूनों को वापस लेने की प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सरकार और किसानों के बीच वार्ताएं होंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब सरकार और किसान एक-दूसरे पर वादाखिलाफी के आरोप लगा रहे हैं.
2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस गतिरोध को तोड़ने के लिए एक समिति का गठन किया, लेकिन किसानों ने समिति से बात करने से मना कर दिया. उनका कहना था कि समिति में ऐसे लोग शामिल हैं जो उन कृषि कानूनों का समर्थन कर चुके हैं. इसके बाद सरकार ने केंद्रीय कृषि सचिव संजय अग्रवाल की अध्यक्षता में दूसरी समिति बनाई, लेकिन किसान अड़ गए कि बातचीत में केंद्रीय कृषि मंत्री भी शामिल हों.
किसान नेता अजय वीर जाखड़ ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अपने लेख में लिखा कि इस सबमें जो एक तत्व गायब है वह है — भरोसा, पक्का भरोसा! किसान यह मानने को तैयार नहीं थे कि सरकार उनकी आमदनी दोगुनी करने की कोशिश कर रही है. कई किसानों को लगा कि जो कृषि कानून लाए गए थे वह कृषि में संस्थागत तथा कॉर्पोरेट निवेश को तेज़ी से बढ़ाने की दिशा में उठाया गया कदम था. जाखड़ का कहना था कि एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग मान भी ली गई तब भी यह किसानों की आय दोगुनी करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.
कृषि में वृद्धि गेहूं, धान, या नारियल के बूते नहीं बल्कि दूध, मुर्गी-अंडे, मछली के साथ-साथ नारंगी, केले, और स्ट्राबेरी जैसे ऊंचे मूल्य वाली फसलों से ही हो सकती है जिनकी कीमत बाज़ार तय करेगा.
वास्तव में, जैसा कि जाखड़ ने कहा शहरी उपभोक्ताओं के लिए टमाटर, प्याज, आलू आदि के बाज़ार में केंद्र और राज्य सरकार की दखलंदाजी से कृषि बाज़ार में गड़बड़ी पैदा होती है और शहरी उपभोक्ताओं को जितना लाभ नहीं मिलता उससे ज्यादा घाटा फसल उगाने वाले को हो जाता है.
कमज़ोर आंदोलन
किसानों का अब जो आंदोलन चल रहा है उसका मकसद क्या है? और यह 2020-21 के आंदोलन से जिसने प्रधानमंत्री को तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने पर मजबूर कर दिया था, पैमाने और संभावना के लिहाज़ से कितना अलग है?
इस बार सरकार मजबूर होकर कुछ करना नहीं चाहती. किसानों की मांगें स्वदेशी जागरण मंच से लेकर ‘मनरेगा’ तथा आदिवासियों के अधिकारों के पक्षधरों तक के कई तरह के मांगपत्रों का मिश्रण नज़र आती हैं. इनमें से कई मसले राज्य सरकारों और कृषि मंत्रालय को छोड़ दूसरे मंत्रालयों के दायरे में आते हैं.
इन मांगों में ये सब शामिल हैं — किसानों के कर्जे़ माफ किए जाएं, उनकी ज़मीन के अधिग्रहण का मुआवजा चार गुना बढ़ाया जाए, 2020 के बिजली संशोधन बिल को रद्द किया जाए और डब्लूटीओ से बाहर निकला जाए. भूमिहीनों की खातिर ‘मनरेगा’ का संशोधन किया जाए, इसके तहत रोज़गार 100 दिन की जगह 200 दिन तक देने की व्यवस्था की जाए और न्यूनतम राष्ट्रीय दिहाड़ी 700 रुपये की जाए. दूसरी मांगें हैं — लखीमपुर खीरी हत्याकांड के मामले में फौजदारी कानून के तहत कार्रवाई की जाए, कृषि में काम आने वाले बीजों और खाद का फर्ज़ी उत्पादन और बिक्री करने वालों पर जुर्माना ठोका जाए और मिर्च तथा हल्दी के लिए एक बोर्ड का गठन किया जाए.
पिछले आंदोलन में वह व्यापारी भी किसानों के साथ थे जो एपीएमसी कानून से कुप्रभावित थे. इस बार वह उनके साथ नहीं हैं, जिसके कारण बड़ा फर्क पड़ा है. इसके अलावा किसान आंदोलन में दरार, किसी राजनीतिक दल से जुड़ने से इनकार, और हरियाणा, यूपी, एमपी तथा महाराष्ट्र के नेताओं के अलग-थलग रहने के कारण, आज डल्लेवाल के नेतृत्व में चल रहा आंदोलन 2020-21 के आंदोलन की छाया मात्र है. पिछले आंदोलन में किसानों की 950 ट्रौलियां शंभु बॉर्डर पर आकर खड़ी हो गई थीं; उस आंदोलन को छात्रों, अभिनेताओं, कवियों, सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ताओं और एपीएमसी कानून से प्रभावित बिचौलियों का समर्थन हासिल था.
इस बार पंजाब के दोआबा और माझा इलाकों में भी, जहां अर्थव्यवस्था मैनुफैक्चरिंग, सेवा क्षेत्र, और तीर्थ पर्यटन पर आधारित है, 30 दिसंबर के पंजाब बंद के आह्वान का वैसा असर नहीं दिखा. उदाहरण के लिए अमृतसर को लें: त्योहारों के सीज़न में करीब दो लाख पर्यटकों को कई तरह की सेवाएं नहीं मिल पाई, चाहे ढाबों पर खाना हो या टॅक्सी हो, या होटल, रेलवे, और विमान सेवाएं हों.
गुमनाम रखने का आग्रह करते हुए अमृतसर के एक व्यापार नेता ने कहा कि बांध के कारण अकेले अमृतसर शहर में 500 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था.
भारत में उगाओ, दुनिया को खिलाओ
एक और बात : बैलगाड़ी अब कृषि प्रधान भारत की पहचान नहीं रही.
इसके विपरीत, भारत के कृषि औज़ारों — ट्रैक्टर, ट्रेलर, हार्वेस्टर, बीज रोपाई के औज़ार, सिंचाई तथा फसल प्रोसेसिंग के औज़ार, छिड़काव के औज़ार, पुआल तथा चारा के औज़ार आदि — के बाज़ार दोगुनी वृद्धि दर्ज कर रहे हैं.
कृषि उत्पादन का तरीका जिस तरह बदल रहा है, विरोध तथा वार्ता के तरीकों में भी बदलाव आना चाहिए. किसानों के संगठनों को कृषि अनुसंधान, शिक्षण, विस्तार और इन्फ्रास्ट्रक्चर (ग्रेडिंग एवं सॉर्टिंग मशीन, कोल्ड चेन, गोदाम, कृषि उत्पादों तथा साजो-सामान व सेवाओं के विदेशी बाज़ारों में निर्यात की व्यवस्था) के विकास में बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश की मांग करनी चाहिए.
1960 के दशक में अमेरिका के पास इतना अनाज था कि वह अपने मित्र देशों को खिला सकता था. आज हमारा यह नारा होना चाहिए — ‘भारत में उगाओ, दुनिया को खिलाओ’.
(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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