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Thursday, 7 November, 2024
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MSME सेक्टर को सिर्फ कर्ज़ के रास्ते संकट से नहीं निकाला जा सकता, नए नज़रिए से करना होगा इलाज

भारत में एमएसएमई में नॉलेज मैनेजमेंट का स्तर लगभग शून्य है. इस देश में अगर एमएसएमई टिके हुए हैं तो सिर्फ इसलिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कंज्यूमर डिमांड का विस्तार अभी शुरुआती दौर में है.

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बिल्कुल छोटे, लघु और मझोले उद्योग यानि एमएसएमई सेक्टर की मैन्यूफैक्चरिंग में 45 फीसदी, निर्यात में 40 फीसदी और जीडीपी में 30 फीसदी हिस्सेदारी है. साथ ही ये सेक्टर 11 करोड़ लोगों को रोजगार देता है. जाहिर है भारत की अर्थव्यवस्था की बुनियाद दरअसल ये छोटे और मझौले उद्यम ही हैं. इसलिए जब कोरानावायरस और लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था पर आए संकट के बीच सरकार ने इस सेक्टर के लिए तीन लाख करोड़ रुपये का पैकेज दिया तो आम तौर पर इसे लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई.

लेकिन इस पैकेज से एमएसएमई सेक्टर की स्थिति बेहतर हो पाएगी, इसे लेकर संदेह जताया जा रहा है.


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एमएसएमई को संरक्षण की ‘लत’ लगाई गई

वर्षों तक समाजवादी विचारधारा से चिपका रहा इस देश का आर्थिक चिंतन हमेशा विराट की जगह लघु की पैरोकारी करता रहा. लेकिन इस लघु की परवरिश कैसे करनी है, यह नीति नियंताओं को कभी समझ नहीं आया. एमएसएमई सेक्टर की परवरिश की यही बड़ी गड़बड़ी आज इसके लिए नासूर बन गई है. इस कृत्रिम संरक्षण ने इसे इस लायक भी नहीं छोड़ा है कि वह अपना गुजारा कर सके.

जिस एमएसएमई सेक्टर का अक्सर यह कह कर महिमामंडन किया जाता है कि यह हमारी जीडीपी की रीढ़ की हड्डी है और सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है, उसकी हकीकत पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी है.

देश में 6.34 करोड़ एमएसएमई हैं. इनमें से 51 फीसदी गांवों में हैं. हर एमएसएमई यूनिट औसतन दो से भी कम लोगों को रोजगार दे रही है. देश में जितने एमएसएमई हैं, उनमें से 99.5 फीसदी हिस्सेदारी माइक्रो यानि अति सूक्ष्म एंटरप्राइजेज हैं. मीडियम और स्मॉल एंटरप्राइजेज 0.5 फीसदी है लेकिन 11 करोड़ में से पांच करोड़ लोगों को यही रोजगार देते हैं.

दरअसल इस देश में सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योग को इस तरह संरक्षण की आदत लगाई गई है कि अब यह अपनी क्षमताओं को बढ़ाने से जी चुराने लगा है. क्योंकि क्षमताएं बढ़ाते ही इसे बड़ी लीग में खेलना पड़ेगा और अब तक जो सहूलियतें मिल रही थीं वे खत्म हो जाएंगी. एमएसएई यूनिटों की कैपिसिटी बिल्डिंग तो कमजोर है ही ये पर्यावरण नियमों, श्रम नियमों और अपने कर्मचारियों के लिए बनाए गए सोशल सिक्योरिटी स्कीमों से जुड़े नियमों का भी धड़ल्ले से उल्लंघन करती हैं.

आईएएस और महाराष्ट्र सरकार में सचिव मीता राजीव लोचन लंबे समय से एमएसएमई सेक्टर का कामकाज देखती रही हैं. हाल में अपने एक लेख में उन्होंने इसकी कमजोरियों का जिक्र किया है. उन्होंने अपनी बात साबित करने के लिए 2015-16 के नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों का हवाला दिया है, जिनके मुताबिक उस साल गैर कृषि क्षेत्र के मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग ने प्रति श्रमिक 74,397 रुपये का वैल्यू एडिशन किया. यानि देश की जीडीपी में हर महीने के हिसाब से यह 6,198 रुपये बैठता है. इस सेक्टर के हर श्रमिक ने साल 2015-16 में जितना वैल्यू एडिशन किया वह उस साल संगठित मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में काम करने वाले एक श्रमिक के वैल्यू एडिशन का सिर्फ 8 फीसदी था.

एमएसएमई सेक्टर के श्रमिकों का सबसे ज्यादा योगदान दिल्ली में रहा, जहां उन्होंने सालाना 1,89,526 रुपये का वैल्यू एडिशन किया. लेकिन यह भी संगठित मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के ग्रॉस वैल्यू एडिशन यानि जीवीए का सिर्फ 19 फीसदी है.


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इनोवेशन और नॉलेज मैनेजमेंट के मामले में बेहद पिछड़े हैं एमएसएमई

एमएसएमई सेक्टर के संकट की जब भी बात होती है तो सिर्फ पूंजी की कमी की बात की जाती है. कहा जाता है कि बैंक और वित्तीय संस्थान इन्हें कर्ज़ देने से कतराते हैं. इन्हें फंड और कर्ज दिलाने के लिए सरकार को बैंकों पर दबाव डालना पड़ता है. इस सेक्टर की बेहतरी के उपायों का जिक्र होते ही इसे निर्यात में छूट देने, टैक्स सहूलियत देने और सरकारी खरीद में इनकी हिस्सेदारी बढ़ाने जैसे कदमों की तरफदारी की जाती है. लेकिन भारत में एमएसएमई सेक्टर अपने इनोवेशन में इतना पिछड़ा हुआ है कि निर्यात की भारी संभावनाओं के बावजूद वह इसका दोहन नहीं कर पाता.

एमएसएमई में टेक्नोलॉजी के ट्रेंड पर हुए नेशनल इनोवेशन सर्वे में कहा गया है कि इस सेक्टर में सिर्फ नई मशीनरी पर निवेश हो रहा है, प्रोडक्ट इनोवेशन पर नहीं.

दरअसल, एमएसएमई सेक्टर की परेशानियों पर सरकार का ध्यान तभी जाता है जब इकोनॉमी की रफ्तार धीमी पड़ती है. क्योंकि यह सेक्टर अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद जीडीपी में 30 फीसदी का योगदान करता है. लेकिन अभी भी बैंकों और वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेने में काफी पिछड़ा हुआ है.

बिजफंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ 16 फीसदी एमएसएमई को बैंकों या वित्तीय संस्थानों से कर्ज़ मिलता है. लगभग 80 फीसदी एमएसएमई के पास या तो पूंजी की कमी बनी रहती है या फिर ये अनौपचारिक स्रोतों से कर्ज लेते हैं, जो उन्हें महंगा पड़ता है. लिहाजा अधिकतर एमएसएमई कर्ज़ के बोझ से दबे रहते हैं.

सरकार भले ही एमएसएमई सेक्टर को कर्ज़ देने का ऐलान करे लेकिन देश के बैंकों और वित्तीय संस्थानों की इतनी क्षमता नहीं है कि वे इनकी पूंजी की जरूरतें पूरी कर सकें. एक बड़ी दिक्कत इनकी मैपिंग की है. पर्याप्त दस्तावेज और पहचान के बिना ज्यादातर एमएसएमई बैंकों की वित्तीय संस्थाओं की फंडिंग के दायरे से वैसे ही बाहर हो जाते हैं.


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सिर्फ कर्ज़ देने से एमएसएमई के हालात नहीं सुधरेंगे

साफ है कि सिर्फ कर्ज़ के रास्ते एमएसएमई को संकट से बाहर नहीं निकाला जा सकता. इस सेक्टर के उत्पादन, कौशल और इनोवेशन क्षमता को बढ़ाना जरूरी है. जर्मनी में एक से नौ कर्मचारियों वाले उद्योग को माइक्रो या सूक्ष्म उद्योग माना जाता है लेकिन इसकी प्रति कर्मचारी वैल्यू एडिशन की क्षमता 250 कर्मचारियों वाले उद्योगों के वैल्यू एडिशन क्षमता के 60 फीसदी से ज्यादा है. इसकी सबसे बड़ी वजह वहां एमएसएमई सेक्टर में इनोवेशन पर दिया जा रहा जोर है. लेकिन भारत में एमएसएमई में नॉलेज मैनेजमेंट का स्तर लगभग शून्य है.

इस देश में अगर एमएसएमई टिके हुए हैं तो सिर्फ इसलिए कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कंज्यूमर डिमांड का विस्तार अभी शुरुआती दौर में है. फिलहाल यहां कम कीमत के घटिया प्रोडक्ट्स को खपाने की पूरी जगह है. एमएसएमई सेक्टर के उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी विभाग खरीदते हैं, जहां गुणवत्ता पर शायद ही कोई ध्यान देता है.

साफ है कि सरकार एमएसएमई सेक्टर की बीमारी का गलत इलाज कर रही है. अब इस सेक्टर को नए नज़रिये से देखने की जरूरत है ताकि इसमें बेहतर टेक्नोलॉजी, इनोवेशन, नॉलेज मैनेजमेंट और स्किल डेवलपमेंट पर जोर दिया जा सके. सिर्फ कर्ज बांट कर इनका भला नहीं हो सकता.

(लेखक आर्थिक मामलों के पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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