भारत में कोविड-19 से मौत का आंकड़ा 13 अप्रैल की सुबह 331 का था. अब जबकि भारत में कुछ परिवर्तनों के साथ लॉकडाउन को दो सप्ताह के लिए बढ़ाया जा रहा है, हमें इस आंकड़े पर भी विचार करने की ज़रूरत है: लॉकडाउन के कारण 195 लोग जान गंवा चुके हैं.
अगर बेहतर ढंग से लॉकडाउन की योजना बनाई जाती और इस बारे में अधिक विवेकपूर्ण तरीके से सोचा जाता, तो इनमें से कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी.
इन 195 मौतों (संख्या बढ़ना जारी है) का डेटासेट शोधकर्ताओं तेजेश जीएन, कनिका शर्मा और अमन ने जुटाया है. संबंधित आंकड़े भारत भर की विश्वसनीय समाचार और सोशल मीडिया रिपोर्टों से एकत्र किए गए हैं, जिनमें से कई इस ट्विटर थ्रेड पर सूचीबद्ध हैं.
लॉकडाउन की मानवीय कीमत
इनमें से 53 मौतें थकावट, भूख, चिकित्सा सहायता की अनुपलब्धता अथवा भोजन या आजीविका के अभाव में आत्महत्या से हुई हैं.
हिंसक अपराधों में कम से कम सात लोग मारे गए– जैसे स्वयंभू निगरानी दस्ते की भूमिका निभा रहे लोगों द्वारा लॉकडाउन का पालन नहीं करने वालों पर हमले की घटनाओं में.
घर लौटने के लिए प्रयासरत प्रवासी मजदूरों को राजमार्गों पर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा था. और राजमार्गों के खाली होने की उम्मीद में वाहनों की तेज़ रफ्तार की वजह से हुई दुर्घटनाओं में कम से कम 35 प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई.
यह सर्वविदित है कि अचानक अल्कोहल मिलना बंद होने से जुड़ी मानसिक और शारीरिक प्रतिक्रियाओं के कारण शराबियों की मौत हो सकती है या वे आत्महत्या के लिए प्रेरित हो सकते हैं. भारत के लॉकडाउन में शराब की सारी दुकानें बंद हैं. इस कारण कम से कम 40 लोगों की मौत या आत्महत्या के मामले सामने आ चुके हैं, क्योंकि हम शराब को एक आवश्यक वस्तु नहीं मानते.
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इसी तरह लॉकडाउन के कारण फैली घबराहट के बीच 39 लोगों ने कोरोनावायरस संक्रमण होने की आशंका में, या अकेलेपन या क्वारेंटाइन किए जाने के कारण आत्महत्या कर ली. इसके अलावा 21 मौतें अन्य विविध कारणों से हुईं.
ये सब वैसी मौतें हैं जिनके बारे में खबरें सामने आ चुकी हैं, वरना असल संख्या के बहुत अधिक होने की आशंका है.
कोरोनावायरस से होने वाली मौतों से बचने के लिए मौतें
और इन सबके पीछे का बेतुकापन तो देखिए: इन भारतीयों की मौत उन उपायों की वजह से हुई जोकि उन्हें मरने से बचाने के लिए थे.
ये तो स्पष्ट है कि लॉकडाउन को बढ़ाया जा रहा है, लेकिन अच्छी बात ये है कि इसे अधिक सावधानीपूर्वक लागू किया जाएगा, तथा संक्रमण का केंद्र बनी जगहों और कोविड-19 के मामलों से रहित स्थानों के बीच विभेद रखा जाएगा. अर्थव्यवस्था को सीमित तौर पर खोले जाने की भी संभावना है. इन प्रयासों से जुड़े जोखिम अभी गए नहीं हैं, खासकर अभी भी संक्रमण की टेस्टिंग का उतना आक्रामक अभियान नहीं दिख रहा है.
यदि नरेंद्र मोदी सरकार ने बड़ी संख्या में टेस्टिंग की थोड़ी पहले तैयारी की होती, फरवरी में आरंभ करते हुए, स्वदेशी टेस्टिंग किटों का इंतजाम किया होता, देश में मौजूद पीपीई सुरक्षा उपकरणों के निर्यात के बजाय इनका युद्धस्तर पर उत्पादन किया गया होता, तो हमें इस अविवेकपूर्ण लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं पड़ती.
दुनिया के सबसे कठोर लॉकडाउन के तहत सार्वजनिक परिवहन, ट्रेनों और उड़ानों को बंद कर दिया गया, लोग आपातकालीन परिस्थितियों में भी यात्रा नहीं कर सकते हैं, और लोगों के लिए खुद का पेट भरना भी मुश्किल हो गया है- इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट से निपटने का मानवीय तरीका नहीं कहा जा सकता.
आखिर जीने का क्या मतलब है?
लॉकडाउन का उद्देश्य है कोरोनावायरस से हमारी ज़िंदगियों को बचाना. लेकिन बहुतों के लिए इसने ज़िंदगी इतनी मुश्किल बना दी कि उनके लिए वायरस से जान बचाने का कोई मतलब नहीं रह गया. उन्होंने स्वयं मौत को गले लगा लिया.
ऐसे ही लोगों में से एक थे उत्तर प्रदेश में बांदा के 52 वर्षीय रामभवन शुक्ला जिन्होंने एक पेड़ से फंदा लगाकर जान दे दी क्योंकि अपनी गेहूं की फसल की कटाई के लिए वो मज़दूर नहीं जुटा पाए. अगले साल भर वित्तीय बदहाली से जूझने के बजाय उन्हें जान देने का विकल्प चुनने को विवश होना पड़ा.
एक और उदाहरण एल्ड्रिन लिंगदोह का है. मेघालय के इस युवक को आगरा के एक रेस्तरां के उसके नियोक्ता ने नौकरी से निकाल दिया था. अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा कि शांति फूड सेंटर नामक रेस्तरां के मालिक को विश्वास है कि वह कुछ भी करके बच निकलेगा क्योंकि उसका एक रिश्तेदार उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री है.
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लिंगदोह को इसलिए आत्महत्या करने पर विवश होना पड़ा क्योंकि वह अनाथ था. ना तो उसकी देखभाल करने वाला कोई था, और ना ही कोई ठौर-ठिकाना. यदि मेघालय में उसकी मदद करने वाला कोई होता भी तो लॉकडाउन के कारण उसके लिए वहां तक पहुंचना संभव नहीं होता.
वायरस आपको मारे, उसके पहले पुलिस भी तो है
महामारी से बचाने के लिए ये कैसा लॉकडाउन लगाया गया है कि लोग चिकित्सकीय सहायता भी नहीं पा सकते? हिंसा से गुरेज नहीं करने वाली पुलिस द्वारा लाठी के ज़ोर पर लागू क्रूर लॉकडाउन में कई जगह एंबुलेंसों तक की आवाजाही बाधित हुई, और इसी वजह से मैंगलुरु में दो लोगों की मौत हो गई.
महाराष्ट्र में, पुलिस ने एक एंबुलेंस चालक को इस संदेह में पीटा कि वह मरीजों के बजाय आम यात्रियों को ढो रहा था. इतना ही नहीं, पुलिस वालों ने रिश्वत लेने के बाद ही उस ड्राइवर को अपनी चोट के इलाज के लिए अस्पताल जाने दिया. अंतत: ड्राइवर ने दम तोड़ दिया. उसके सिर पर लाठी का तगड़ा प्रहार किया गया था.
मंटो के कथानकों से मिलते-जुलते इन प्रकरणों को देखकर आश्चर्य होता है कि लॉकडाउन ज़िंदगियां बचाने के लिए है या मात्र असहाय नागरिकों पर राज्यसत्ता का ज़ोर दिखाने के लिए?
गुरुग्राम से एक 29 वर्षीय दलित युवक उत्तर प्रदेश में अपने गांव लौटता है. उसका आरोप था कि लौटने पर कोविड-19 के लिए उसकी जांच किए जाने और रिपोर्ट निगेटिव आने के बावजूद उसे पुलिस के एक कांस्टेबल ने अपमानित किया और बुरी तरह पीटा. उसने आत्महत्या कर ली. मौत के लिए कोरोनावायरस की क्या ज़रूरत है?
अन्य बीमारियों के मरीज मरने के लिए छोड़े गए
जब स्वास्थ्य सेवाओं को कोविड-19 से लोगों की जान बचाने के लिए तैयार किया जा रहा हो, तो चिकित्सा सुविधा पाने या क्रूर लॉकडाउन के अवरोधों से पार पाने में नाकाम मरीज कृपा कर घरों को लौट जाएं और मौत का इंतजार करें.
महामारी के दौर में बिना स्वास्थ्य मंत्री वाले राज्य मध्य प्रदेश में भोपाल गैस आपदा के पीड़ितों को उन्हीं के लिए निर्मित अस्पताल से निकाल दिया गया. अस्पताल को कोविड-19 के मरीजों के लिए तैयार रखा जाना था. ऐसे में 68 वर्षीया मुन्नी बी ने इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया. किसी और अस्पताल ने उनका इलाज नहीं किया.
ऐसा लगता है कि भारत दुखद विकल्पों को अपनाना शुरू भी कर चुका है कि किसे बचाना है और किसे मरने देना है. मौत की कौन सी वजह सुर्खियों को राजनीतिक प्रतिष्ठान के लिए कम असहज बनाएगी? किन आंकड़ों को बढ़ने दिया जा सकता है?
लॉकडाउन का भोजन
शर्म की बात है कि खाद्यान्नों की अधिकता वाले हमारे देश में भुखमरी से लोगों को मरने दिया जाता है. कर्नाटक के बेल्लारी में दो लोग, बिहार के भोजपुर में एक 11 वर्षीय दलित लड़का और साइबराबाद का वह दिहाड़ी मज़दूर जिसकी लाश पुलिस ने बरामद की– इन सबकी भुखमरी से मौत हो गई.
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हालांकि बहुतों ने जान गंवाने के लिए भुखमरी का इंतजार तक नहीं किया, ओडिशा के सागर देवगढ़िया ने अपनी पीड़ा कम करते हुए आत्महत्या कर ली. बेशक, सरकार अभी ‘इस घटना की विस्तृत पड़ताल’ कर रही है.
लॉकडाउन के कारण दिहाड़ी मज़दूरों के पास कोई काम नहीं रह गया, और इस कारण खाने को भी कुछ नहीं. इसलिए वे घर वापस आ गए जहां खाना मिलना शायद आसान होता. कुछ की तो घर पहुंचने के प्रयासों में ही मौत हो गई. जैसे, जम्मू-कश्मीर में प्रवासी मजदूरों का एक समूह ठंड की भेंट चढ़ गया, उनके शव पांच फीट बर्फ के नीचे दबे मिले. लॉकडाउन के कारण उन्हें घर वापसी के लिए एक खतरनाक पहाड़ी रास्ता चुनना पड़ा था.
इतिहास के फुटनोट
यदि मौजूदा स्वरूप में ही लॉकडाउन जारी रहता है, तो ये अभी और मौतों की वजह बनेगा– भुखमरी, बेरोज़गारी, कलंक, सरकारी उदासीनता और पुलिस की बर्बरता के कारण.
लेकिन सरकार को अधिक चिंता करने की ज़रूरत नहीं है- ये गरीब और बेज़ुबान लोग हैं, जिनकी मौत छिटपुट घटनाओं के रूप में पेश की जाएंगी. किसी को भी उनके सम्मान में दीया जलाने या बर्तन बजाने की ज़रूरत नहीं महसूस होगी. कोरोनावायरस के खिलाफ जंग में वे आनुषंगिक नुकसान भर माने जाएंगे.
वे कोरोनावायरस के खिलाफ भारत के प्रयासों के इतिहास में फुटनोट तक नहीं बनेंगे. कोई मुस्लिम विरोधी पहलू मिलने तक, ये ज़िंदगियां प्राइम टाइम टीवी पर आक्रोश के काम भी नहीं आती हैं.
(लेखक दिप्रिंट के कंट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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