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Wednesday, 24 April, 2024
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डॉ. भीमराव आंबेडकर को क्यों मिलना चाहिए था नोबल प्राइज

डॉ. आंबेडकर ने साउथबोरो कमेटी से लेकर साइमन कमीशन, गोलमेज सम्मेलन और फिर संविधान सभा में दलितों के प्रतिनिधित्व का मामला रखा था.

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डॉ. मार्टिन लूथर किंग और डॉ. भीमराव आंबेडकर ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने-अपने ही देश में वंचित-पीड़ित समुदाय में पैदा हुए, भेदभाव का शिकार हुए और उस भेदभाव को समाप्त करने के लिए आजीवन संघर्ष किया. इन दोनों का विश्वास लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व में था. इन दोनों महान व्यक्तियों के आंदोलन पूर्णतः अहिंसा पर आधारित थे. इनका मानना था कि शांतिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन से ऐसे आमानवीय भेदभाव को दूर किया जा सकता है.

इस लेख का उद्देश्य ये समझने की कोशिश करना है कि इन दोनों महानायकों ने अपने-अपने देश में असमानता और अन्याय के खिलाफ किस तरह से संघर्ष किया और उनके योगदान को किस तरह से देखा जाना चाहिए.

अमेरिका में नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष

अमेरिका में अफ्रीकन-अमेरिकन (काले) लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा तो 19वीं सदी में समाप्त हो गई थी, लेकिन भेदभाव बनाए रखने वाले कई नियम और कानून (जिम क्रो लॉ) 1960 के दशक तक लागू थे. काले लोगों को सार्वजनिक स्थल से दूर रखा जाता था. गोरों का मानना था कि ये निचले दर्जे के मनुष्य हैं. इसलिए लम्बे समय तक उनको दास बनाकर रखा गया. तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अमेरिकी गृह युद्ध के बाद 1865 में ही दास प्रथा का कानूनी रूप से अंत कर दिया था, लेकिन भेदभाव वाले कानूनों के कारण काले लोग अलगाव का शिकार बनते रहे.

मार्टिन लूथर किंग काले लोगों को समानता का अधिकार दिलाने के आंदोलन से 1950 के दशक में जुड़ गए. उन्होंने बताया कि सभी मनुष्य बराबर हैं, त्वचा के रंग के आधार पर भेदभाव अमानवीय है. उस समय कानून गोरों के पक्ष में थे. इसके खिलाफ एक बड़ा प्रतीकात्मक विद्रोह 1955 में रोजा पार्क ने किया. रोजा पार्क अफ्रीकन-अमरीकन महिला थी, अलाबामा राज्य के मोंटगोमरी में बस में गोरों के लिए आरक्षित सीट पर बैठ गई थीं. उनको उस सीट से उठने को कहा गया. रोजा पार्क ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. इस आंदोलन में काले लोगों ने बसों का सामूहिक रूप से बहिष्कार शुरू कर दिया.


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अमेरिका के उस समय गोरों के लिए बने रेस्तरां में काले लोगों को खाना नहीं परोसा जाता था. इसके खिलाफ काले लोगों ने रेस्तरां में बैठने के लिए आंदोलन चलाया. इसके लिए वे रेस्तरां में जाते थे और कुछ खाते नहीं थे, बल्कि खाली बैठते थे और रेस्तरां के मालिक को बैठने का भुगतान करते थे. इसके द्वारा उन्होंने समाज को यह बताया कि हमें भी बाकी लोगों की तरह रेस्तरां में जाने और बैठने का पूरा अधिकार है. ऐसे ही कई आंदोलनों से समाज में जागरूकता आई. इसकी परिणिति प्रसिद्ध वाशिंगटन मार्च में हुई, जिसमें लाखों लोगों ने हिस्सा लिया.

28 अगस्त 1963 में हुए वाशिंगटन मार्च में ही मार्टिन लूथर किंग ने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था – I have a dream. इस भाषण को दुनिया के सबसे लोकप्रिय और ज्यादा सुने गए भाषणों में एक माना जाता है. इस भाषण में उन्होंने कहा था कि एक दिन आएगा जब किसी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके रंग के आधार पर नहीं, बल्कि उसके कार्य के आधार पर किया जायेगा और सभी अमेरिकी बच्चे रंग और नस्ल की परवाह किए बगैर हाथों में हाथ डालकर चलेंगे.

भारत में छुआछूत के खिलाफ आंदोलन

अमेरिका में जैसा व्यवहार काले लोगों के साथ हुआ, वैसा ही अमानवीय व्यवहार भारत में दलितों के साथ होता चला आया है. उनको अछूत घोषित कर समाज से बाहर कर दिया गया. डॉ. आंबेडकर इसकी वजह ये बताते हैं कि वे बौद्ध धर्म को मानते थे और गाय का मांस खाते थे. भारतीय समाज में मनुस्मृति के नियम थे, जिनके तहत निचली जातियों और महिलों के साथ अमानवीय व्यहार किया जाता था. इन नियमों को कानून की मान्यता नहीं थी, लेकिन धार्मिक और सामाजिक मान्यता थी.

इसके खिलाफ डॉ. आंबेडकर ने लंबी लड़ाई लड़ी. उनका लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पूरा विश्वास था. उनका कहना था कि जातिगत असमानता और आर्थिक भेदभाव दोनों ही लोकतंत्र को कमजोर करेंगे. इसलिए वे एक साथ सामाजिक और आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष करते रहे. डॉ. आंबेडकर ने साउथबोरो कमेटी से लेकर साइमन कमीशन, गोलमेज सम्मेलन और फिर संविधान सभा में दलितों के प्रतिनिधित्व का मामला रखा था. संविधान सभा के समापन भाषण में उन्होंने कहा था, ” यदि राजनीतिक लोकतंत्र का आधार सामाजिक -आर्थिक लोकतंत्र नहीं हुआ, तो ऐसा राजनीतिक लोकतंत्र ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकता. यदि लोकतंत्र को सफल बनाना है, तो सामाजिक-आर्थिक समानता लानी होगी. स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, इनमें से किसी को अलग नहीं किया जा सकता.’


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अश्वेत लोगों के आंदोलन और मार्टिन लूथर किंग के प्रयासों के बाद अब अमेरिका में कई क्षेत्रों में अफ्रीकन-अमेरिकन समुदाय को जनसंख्या के मुताबिक प्रतिनिधित्व मिल गया है. बराक ओबामा अमेरिका के दो बार राष्ट्रपति बन चुके है. लेकिन भारत में अब तक कोई दलित प्रधानमंत्री नहीं बना है. न ही सत्ता रचना के शिखर पदों पर दलित नजर आते हैं. मौजूदा दौर में ऐसा होता हुआ दिखता भी नहीं है.

ओबामा का राष्ट्रपति बन पाना इसलिए मुमकिन हुआ है क्योंकि अमेरिका के गोरे लोगों ने उन्हें राष्ट्रपति चुना, क्योंकि वहां की 15 फीसदी से भी कम ब्लैक आबादी के चाहने भर से ओबामा राष्ट्रपति नहीं बन सकते थे. मार्टिन लूथर किंग के आंदोलन में गोरे लोगों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया और कई श्वेत लोग रंगभेद विरोधी आंदोलन में शहीद भी हुए. लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ. अभी भी रिजर्वेशन के पक्ष में आंदोलन हो, या जातिगत भेदभाव के विरुद्ध कोई आंदोलन, उनमें सवर्ण हिन्दुओं की बेहद कम या न के बराबर भागीदारी होती है.

बहरहाल ये भारतीय समाज व्यवस्था की कमजोरी और खामी है, जिसका नतीजा सारा देश भुगत रहा है. कामना करनी चाहिए कि अमेरिका के श्वेतों की तरह भारत में भी सवर्णों में मानवीय चेतना का विस्तार होगा और वे बड़ी संख्या में जाति मुक्ति के आंदोलन से जुड़ेंगे. अगर ऐसा हुआ तो डॉ. आंबेडकर के योगदान का वे नए सिरे से मूल्यांकन कर पाएंगे.

मेरा मानना है कि डॉ. आंबेडकर को उनके योगदान के लिए विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए था. उन्हें एक ऐसी शख्सियत के तौर पर याद किया जाना चाहिए जिन्होंने भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में इतना बड़ा सामाजिक परिवर्तन अहिंसात्मक ढंग से कर दिखाया, जिससे करोड़ों लोगों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव आया. आज भारत में लोकतंत्र पर दलित – पिछड़े समाज का विश्वास है तो इसका सबसे बड़ा श्रेय डॉ. आंबेडकर को जाता है. यह भारत की नहीं, बल्कि पूरे विश्व में लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ी सफलता है.

मार्टिन लूथर किंग को 1964 में शांति के लिए नोबल सम्मान दिया गया था. नोबल पीस प्राइज कमेटी को डॉ. आंबेडकर के नाम पर विचार करना चाहिए था.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.)

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