भारत ने एक क्षेत्र में पिछले दिनों चीन को पीछे छोड़ दिया. अब अमेरिका में जिस देश के सबसे ज्यादा इंटरनेशनल स्टूडेंट्स हैं, वह देश भारत है. पिछले महीने दिल्ली में स्थित अमेरिकी दूतावास ने सूचना दी कि वह 82,000 से ज्यादा भारतीयों को स्टूडेंट्स वीजा जारी कर चुका है. अमेरिकी दूतावास की अधिकारी पैट्रीशिया लसीना ने इस चलन का स्वागत किया और कहा कि विदेशी स्टूडेंट्स के लिए अमेरिकी पसंदीदा जगह है. इससे पहले दूतावास ने ये सूचना दी थी कि 2020-21 में अमेरिका में 1.67 लाख भारतीय स्टूडेंट्स पढ़ रहे थे. ऐसा लगता है कि कोविड की पाबंदियां हटने के बाद अमेरिका जाने वाले स्टूडेंट्स की बाढ़ सी आ गई है.
हमें ये नहीं मालूम कि जो भारतीय स्टूडेंट्स अमेरिका या अन्य विकसित देशों जैसे ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड या फ्रांस और जर्मनी समेत अन्य यूरोपीय देशों में जा रहे हैं, उनकी सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है. ऐसा आंकड़ा शायद उपलब्ध भी नहीं है. लेकिन जैसा कि मैं आगे बताऊंगा कि पहले विदेश पढ़ने जाने वाले मुख्य रूप से उच्च सामाजिक समूहों के लोग हुआ करते थे. हाल के वर्षों में और खासकर इस साल मैं अपनी सोशल मीडिया टाइम लाइन पर ढेर सारे अनुसूचित जाति और उससे कुछ कम ओबीसी और जनजाति के छात्रों के विदेश पढ़ने जाने की सूचनाएं देख रहा हूं.
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नया चलन
कोई भी ये पता लगा सकता है कि अमेरिकी या अन्य विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाने वाले ज्यादातर भारतीय स्टूडेंट्स उच्च जातियों के हैं. लेकिन हम इसमें आ रहे बदलाव को अपने आस पास महसूस कर सकते हैं. ये सही है कि सवर्ण छात्रों की तुलना में अनुसूचित जाति, जनजाति या ओबीसी के छात्र नाम मात्र के लिए ही विदेश पढ़ने जा रहे होंगे लेकिन अब ये चलन जोर पकड़ने लगा है और आने वाले दिनों में इन वर्गों से भी काफी छात्र विदेश जाएंगे.
कास्ट मैटर्स किताब के लेखक और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्कॉलर डॉ. सूरज येंगड़े ने हाल ही में ट्वीट करके बताया कि वे इन दिनों जिस भी देश में जाते हैं, वहां उन्हें ‘आंबेडकर की संताने’ यानी वंचित वर्गों के स्टूडेंट्स मिलते हैं. वे संघर्ष करके आगे आ रहे हैं. उन्होंने आगे लिखा कि एक या दो दशक का समय दीजिए, बहुजन स्टूडेंट्स पूरी दुनिया में जबर्दस्त तरीके से नजर आएंगे. सूरज येंगड़े ने ये भी बताया कि वे डॉ. आंबेडकर इंटरनेशनल स्टूडेंट्स एसोसिएशन की स्थापना करेंगे जिसकी विभिन्न देशों में शाखाएं होंगी.
पढ़ने के लिए विदेश जाना भारत में कोई नई बात नहीं है. नई बात है वंचित जातियों की इस क्षेत्र में जगी रुचि. आजादी से काफी पहले से भारतीय राजा-नवाब-जमींदार, व्यापारी, वकील और अंग्रेजी राज के भारतीय अफसर अपने बच्चों को विदेश पढ़ने के लिए भेजते रहे. ये चलन सबसे ज्यादा बंगाल, अब के महाराष्ट्र और तमिलनाडु में रहा.
फॉरेन रिटर्न होना उस समय उसी तरह गौरव की बात थी, जिस तरह आज ये बात गर्व से कही जाती है कि मेरा बेटा या बेटी अमेरिका में बस गए. पुराने समय में ज्यादातर अमीर और सामाजिक रूप से आगे बढ़े हुए लोग ही अपने बच्चों को विदेश भेज पाते थे. डॉ. बी.आर. आंबेडकर जैसे चंद अपवाद थे. उनका विदेश जाना भी इसलिए संभव हुआ क्योंकि बड़ोदा के मराठा राजा गायकवाड़ ने उन्हें स्कॉलरशिप दी. लेकिन इस शर्त के साथ कि विदेश से लौटने के बाद वे बड़ोदा में अपनी सेवाएं देंगे. कांग्रेस का लगभग सारा शीर्ष नेतृत्व– गांधी, नेहरू, पटेल- विदेश से पढ़कर लौटे लोगों से बना था.
आजादी के बाद भी ये चलन जारी रहा. इलीट लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए विदेश भेजते रहे. इधर देश के अंदर भी सरकारी नौकरियों और पीएसयू के कारण पढ़े-लिखे लोगों का एक इलाके से दूसरे इलाके में जाना तेज हुआ. इस प्रक्रिया का लाभ भी ज्यादातर सामाजिक रूप से आगे बढ़े हुए लोगों को हुआ, क्योंकि इंग्लिश एजुकेशन से पहले जुड़ने के कारण वे इसका फायदा उठाने में सक्षम थे. इस तरह देश में सरकारी अफसरों, शिक्षकों, एकाउंटेंट, वकीलों आदि का एक वर्ग तैयार हुआ, जो अपने बच्चों को विदेश भेजने की सोच रहा था और कई लोग ऐसा कर पा रहे थे.
अपनी चर्चित किताब कास्ट ऑफ मेरिट में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर अजंता सुब्रह्मण्यम ने विस्तार से बताया है कि सवर्ण और खासकर ब्राह्मण इंजीनियरिंग एजुकेशन और आईआईटी में कैसे छा गए और वहां से उनके लिए अमेरिका जाने का रास्ता किस तरह खुला. इसमें वे जाति की परंपरा, सांस्कृतिक क्षमता और संपर्कों के जाल की भूमिका देखती हैं.
1960 के दशक के अंत से भारतीय इंजीनियर बड़ी संख्या में अमेरिका जाने लगे, जिनमें से कई ने वहां उच्च शिक्षा के लिए एडमिशन लिया. सूचना क्रांति के नए दौर में ये चलन बढ़ गया. पहले से वहां गए लोग अपने समुदाय के बच्चों को प्रोत्साहित करके अमेरिका ले जाने लगे.
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लेकिन अब हालात बदल रहे हैं और अन्य समूहों के छात्र भी विदेश जाने लगे हैं. इसके पीछे मैं छह प्रमुख वजहें देखता हूं.
1. केंद्र और कई राज्य सरकारें वंचित जाति, वर्गों और जाति समूहों के छात्रों को विदेश में पढ़ने के लिए स्कॉलरशिप दे रही है. इसमें से कई योजनाएं कामयाब हैं. मिसाल के तौर पर केंद्र सरकार और महाराष्ट्र और तमिलनाडु की ओवरसीज फेलोशिप का फायदा कई विद्यार्थी उठा चुके हैं. आदिवासी स्टूडेंट्स के लिए झारखंड सरकार की स्कॉलरशिप भी कामयाब है. लेकिन दिल्ली सरकार की ओवरसीज फेलोशिप की शर्तें इस तरह रखी गई हैं, जिसकी वजह से गिने-चुने छात्र ही इसे ले पा रहे हैं. अगर तमाम राज्य सरकारें स्कॉलरशिप दें और शर्तों को आसान बनाया जाए तो बड़ी संख्या में ऐसे छात्र विदेश जाकर पढ़ पाएंगे.
2. ये बात महत्वपूर्ण है कि 2022 का भारत 1947 के भारत से अलग है. आरक्षण के कारण वंचित जातियों में लाखों लोगों का मिडिल क्लास बन चुका है. इसके अलावा अर्थव्यवस्था से सरकारी नियंत्रण हटने और बाजार अर्थव्यवस्था के आने से भी वंचित समुदायों में कई उद्यमी बने हैं. ये दोनों तरह के कई लोग अपने बच्चों को विदेश भेजने में समर्थ हैं या कम से कम ऐसा करने की सोच सकते हैं.
3. पश्चिमी दुनिया, खासकर अमेरिका और ब्रिटेन में हाल के दिनों में भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद को लेकर जागरूकता बढ़ी है. अभी तक अफर्मेटिव एक्शन या डायवर्सिटी का फायदा भारतीय स्टूडेंट्स को मिलता था. अब वहां खासकर यूनिवर्सिटी जैसे अकादमिक क्षेत्र में ये चेतना बढ़ी है कि भारतीय समाज में स्तर हैं और कुछ लोग उनमें वंचित हैं और कुछ बेहद मजबूत. इस वजह से वहां एक के बाद एक यूनिवर्सिटी में जातिभेद को स्वीकार किया जा रहा है. मिसाल के तौर पर अमेरिका की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी– कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी ने जाति को भेदभाव के सूचक के तौर पर स्वीकार कर लिया है. इससे पहले हार्वर्ड, ब्रैंडिस और यूसी डेविस तथा कॉल्बी कॉलेज जाति को भेदभाव के आधार के तौर पर स्वीकार कर चुके हैं. जाति के प्रति चेतना का अमेरिकी शिक्षा जगत में हुआ विस्तार भारत की वंचित जातियों को फायदा पहुंचाएगा.
4. जाति के प्रति चेतना के विस्तार में लेखकों की भी भूमिका है. मिसाल के तौर पर पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता इसाबेल विलकर्सन ने जातिवाद पर बहुचर्चित किताब ‘कास्ट: ऑरिजिन्स ऑफ आवर डिसकटेंट्स’ लिखी जो वहां बेस्टसेलर बनी. अमेरिकी टीवी की सबसे बड़ी हस्ती ओपरा विनफ्रे ने इस किताब को अपने बुक क्लब में शामिल किया और 100 सीईओ को इसे भेजा. इसके अलावा रटगर्स यूनिवर्सिटी की ऑड्र ट्रस्को, सूरज येंगड़े, अंजता सुब्रह्मण्यम का अकादमिक कार्य भी अमेरिका में पढ़ा जा रहा है.
5. इसके अलावा जाति को लेकर अमेरिका में तीन बड़े विवाद भी हुए. पहला केस टेक कंपनी सिस्को का है, जिसमें एक भारतीय इंजीनियर ने दो भारतीय मैनेजरों पर जातिवाद करने का आरोप लगाया, जिसका संज्ञान कैलिफोर्निया के नौकरी दफ्तर ने लिया. दूसरा केस न्यूजर्सी में एक हिंदू मंदिर का है, जिसके बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स ने खबर छापी कि वहां वंचित जातियों के मजदूरों को बंधुआ रखकर उनसे काम कराया जाता है. तीसरा केस गूगल का है, जिसमें कर्मचारी जागरूकता के एक कार्यक्रम में दलित अधिकार एक्टिविस्ट और इक्वैलिटी लैब की संस्थापक तेनमोई सुंदरराजन को बोलना था, पर भारतीय सवर्ण कर्मचारियों के विरोध के कारण ये कार्यक्रम न हो पाया. इन घटनाओं से भी अमेरिकियों को पता चल रहा है कि भारतीयों में जातिभेद है और खासकर दलित कितनी तरह से सताए जाते हैं.
6. भारत में अब कई बहुजन खासकर दलित संगठन और कार्यकर्ता स्टूडेंट्स को विदेश में शिक्षा के लिए तैयार कर रहे हैं और उन्हें सुविधाएं भी दे रहे हैं. इसका सकारात्मक असर हुआ है. इन संगठनों में आए नए आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाओं को इन संस्थाओं में साकार रूप मिल रहा है. इनमें सबसे चर्चिच नाम नालंदा अकादमी का है, जिसका वर्धा कैंपस और डिजिटल रूप 14,000 से भी ज्यादा स्टूडेंट्स तक पहुंच रहा है. इसके संस्थापक अनूप कुमार हैं.
Nalanda batch 2022-23.
We have over 200 students studying with us from 15 states across the country, preparing for their higher education. 🙂 pic.twitter.com/pIxKMEHtZc
— Anoop Kumar (@Anoopkheri) September 28, 2022
वहीं एकलव्य संस्था भी महाराष्ट्र के वंचित स्टूडेंट्स को देश और विदेश की अच्छी यूनिवर्सिटीज के लिए तैयार कर रही है. इसके संस्थापक राजू केंद्रे का समाज सेवा में अब बड़ा नाम है और फोर्ब्स मैगजीन ने भी उनके काम के महत्व को स्वीकार किया है. राजू केंद्रे ने हाल ही में लंदन में अपनी फेलोशिप पूरी की है. उनका काम मुख्य रूप से विमुक्त जनजातियों के बीच है. दिप्रिंट की पत्रकार निधिमा तनेजा ने हाल ही में एकलव्य संस्था के कामकाज पर विस्तृत रिपोर्ट लिखी है.
ऐसे प्रयास अब असर दिखाने लगे हैं.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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