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Sunday, 31 August, 2025
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मोहन भागवत का ’75 में रिटायर’ के नियम से पलटना हिंदुओं में उत्तराधिकार की चुनौती दिखाता है

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने रिटायरमेंट के नियम बदल लिए हैं. ‘75 साल का नियम’ सिर्फ कुछ नेताओं पर लगाया गया था, लेकिन शीर्ष नेताओं पर इसका असर नहीं है.

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मोहन भागवत ने 9 जुलाई 2025 को कहा: “जब आप 75 साल के हो जाएं, तो समझिए कि अब रुक जाना चाहिए और दूसरों के लिए जगह छोड़नी चाहिए.”

मोहन भागवत ने 28 अगस्त 2025 को कहा: “मैंने कभी नहीं कहा कि मैं रिटायर हो जाऊंगा या किसी को रिटायर होना चाहिए. संघ में हमें एक काम दिया जाता है, चाहे हम चाहें या न चाहें.”

ऐसा लगता है कि आरएसएस प्रमुख अपने ही शब्द भूल रहे हैं. कोई भी राजनीतिक पर्यवेक्षक यह नोट किए बिना नहीं रह पाया कि उनके जुलाई के बयान का लक्ष्य कौन था, खासकर जब उन्होंने पिछले साल तंज किया था कि कुछ लोग खुद को ‘ईश्वर द्वारा भेजा गया’ मानते हैं और यहां तक कि ‘ईश्वर बनना चाहते हैं.’

कुछ आरएसएस-बीजेपी नेता जल्द ही 75 साल के हो रहे हैं. यह सोचना भोलापन होगा कि दो महीने पहले भागवत को अपने बयान और अपनी उम्र तथा पद के बीच संबंध नजर नहीं आया. उन्होंने वह बयान स्वेच्छा से दिया था, किसी मजबूरी में नहीं. उस समय, शायद यह एक सोचा-समझा संदेश था. जैसे कि वे चुनौती देने का विचार कर रहे हों: “मैं अपने पद से हटता हूं, आप भी अपने पद से हटें.

अगर भागवत अपने रुख पर कायम रहते, तो आरएसएस-प्रशिक्षित बीजेपी नेता के लिए ससंघचालक द्वारा दिया गया ऐसा नाटकीय उदाहरण नजरअंदाज करना मुश्किल होता. लेकिन अब पीछे हटने से यह संकेत मिलता है कि भागवत खुद भी रिटायर नहीं होने वाले हैं. वे कहते हैं कि वे तब तक रहेंगे “जब तक संघ उन्हें सेवा करने के लिए कहे.”

तो फिर, उन्होंने सार्वजनिक रूप से किससे ‘75 साल के होने पर रुककर दूसरों के लिए जगह छोड़ने’ को कहा था? राजनीतिक नेताओं को छोड़कर, सभी अधिकारी, क्लर्क और उच्च स्तरीय नौकरशाह तो वैसे भी काफी पहले रिटायर हो जाते हैं.

अपने ही लोगों को झांसा

यह पीछे हटना आरएसएस-बीजेपी में कुछ चुनिंदा लोगों की अपने-अपने पदों पर बने रहने की जिद को दर्शाता है. यह अनजाने में यह भी दिखाता है कि उन के लिए उम्र कभी वास्तव में चिंता का विषय नहीं थी और पुराने नेताओं को हटाने के लिए जो बहाना बनाया गया था, वह नकली था. दूसरे शब्दों में, आरएसएस-बीजेपी ने अपने ही लोगों को धोखा दिया. इसे आरएसएस-बीजेपी समर्थकों की बड़ी संख्या अच्छा नहीं मानेगी. नेताओं को अब निंदा का सामना करना पड़ेगा. यह समझा जाएगा कि उनकी सभी बातें — सेवक बनने की, त्याग की, ‘झोला उठाकर चले जाने’ की — सिर्फ दिखावा थी. चाहे बहाने कुछ भी हों, नेता ही अपने बनाए नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं, जो उन्होंने दूसरों पर लागू किए थे. इसलिए वे सामान्य इंसान हैं. आदर्श नहीं.

भागवत का यह यू-टर्न आरएसएस की उपदेशात्मक प्रवृत्ति का एक और उदाहरण है. इसके नेता दूसरों से यह और वह करने के लिए कहते रहते हैं, ‘लड़ाई लड़ने’ सहित, लेकिन खुद वह करने से दूर रहते हैं. जब पूछा जाता है, उनके अनुयायी बड़ी ठसक से इस की बचाव करते हैं: “हमारा (आरएसएस का) काम लड़ना नहीं है, बल्कि लोगों से लड़ने के लिए कहना है.” वे खुले तौर पर मानते हैं कि वे अपने दिए हुए उपदेश से ऊपर हैं. चूंकि आरएसएस सबसे बड़ा हिंदू संगठन होने का दावा करता है — कम से कम अनौपचारिक रूप से — इसलिए यह हिंदू बुद्धि पर विचार करने के लिए जरूरी हो जाता है:  क्या हिंदू बुद्धि इतनी स्थाई बचकानी है कि हमेशा दूसरों से वह सब काम करने के लिए कहती है जो वह खुद करने के लिए तैयार नहीं है?

आरएसएस-बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने ‘75 के पार रिटायर’ के नियम का पहले प्रचार किया था, ताकि अपने सम्मानित नेताओं को बिना औपचारिकता के किनारे कर दिया जा सके। बाद में, 2024 के लोकसभा और कुछ विधानसभा चुनावों में, कई बीजेपी नेताओं को उम्र 75 पार होने के कारण टिकट नहीं दिया गया. अब, इसे अपने लिए लागू न करना — यानी, जो लोग इस नियम के पीछे दिखाई देते हैं — आरएसएस-बीजेपी की गिरती छवि को और कमजोर करेगा.

जबकि आम जनता — जो अधिकतर बुनियादी जरूरतों और भय से प्रेरित रहती है — ही लोकतंत्र में निर्णायक होती है. इसीलिए उन के बीच नेता खुद को चेहरा बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जनता को बहकाते या धोखा देते हैं. फिर भी, बार-बार और जोर से किए गए दावे अंततः जनता तक पहुंचते हैं. ‘75 पर रिटायर’  करने की दलील भी ऐसा ही एक दावा था.

अब इसे चुनिंदा तरीके से लागू करने का मतलब धोखा देना है. इस तरह के अवसरवाद से — अपने ही उपकार-कर्ताओं पर — किसी नेतृत्व को बड़ी प्रशंसा नहीं मिल सकती. खुद किन्हीं भी नियमों से ऊपर होने का उनका दिखावा केवल इस आधार पर है कि वे उस पद पर बने रहना चाहते हैं, शायद हमेशा के लिए.

उत्तराधिकार व्यवस्था बनाने से बचना — एक हिंदू समस्या

यह विशेषता केवल आरएसएस-बीजेपी तक ही सीमित नहीं है. यह एक भारतीय, खासकर हिंदू, समस्या है. एम.के गांधी, जिन्होंने पहले विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय राजनीति में प्रवेश किया, ने कभी किसी और को निर्णय लेने की अनुमति नहीं दी — बावजूद इसके कि उन्होंने लगातार गलतियां कीं. उन्होंने कांग्रेस की पूरी नेतृत्व की इच्छाओं के खिलाफ अपनी कार्ययोजना को आगे बढ़ाया. उदाहरण के लिए, 1919 में उन्होंने कांग्रेस को तबाही लाने वाले खलीफत आंदोलन में धकेल दिया. उन्होंने 1924 में अपने सक्रियकर्मी और व्यक्तिगत सचिव महादेव देसाई के सामने अपनी गलती स्वीकार की, फिर भी उन्होंने नेतृत्व कभी नहीं छोड़ा. बल्कि, उन्होंने एक और गैर-जिम्मेदार, ‘बैक-सीट ड्राइविंग’ नेतृत्व का आविष्कार किया: सामने वाले नेताओं को कुछ करने के लिए मजबूर करना बिना उसके लिए खुद जिम्मेदार हुए. उनके बाद आने वाले हर कांग्रेस अध्यक्ष, और स्वतंत्रता के बाद भी, पहले प्रधानमंत्री या गृह मंत्री भी, स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं ले सके जब तक गांधी ने इसकी अनुमति नहीं दी. इस तरह के हिंदू नेतृत्व ने देश पर कई तबाही लायी — कुछ इतिहासकारों को इसके बारे में लिखना चाहिए.

कम से कम एक बौद्धिक नेता, राम मनोहर लोहिया, इस सच्चाई को सामने रखने से कतराए नहीं. उन्होंने निष्कर्ष दिया था कि 1946-47 में कांग्रेस के बूढ़े, बीमार और थके हुए नेतृत्व के कारण देश ने विभाजन और लाखों लोगों की हत्या, कष्ट और विस्थापन देखा, जो मानव इतिहास में अभूतपूर्व था. लोहिया कोई अनुमान नहीं लगा रहे थे: वे तो कांग्रेस कार्य समिति की उस बैठक (14-15 जून 1947) का हिस्सा थे जिसने विभाजन को स्वीकार किया और घटनाओं के केंद्र में थे. उन्होंने इसके तुरंत बाद इसके बारे में लिखा. उनके निष्कर्ष के अनुसार, उनकी किताब Guilty Men of India’s Partition के दूसरे चैप्टर की अंतिम पंक्तियों में लिखा है: “…कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि एक क्षयशील नेतृत्व, जो दंगों की स्थिति में काम कर रहा था, ने विभाजन पैदा किया, जबकि एक उद्देश्यपूर्ण और युवा नेतृत्व हिन्दुस्तान के भारत और पाकिस्तान में विभाजन को रोक सकता था.”

आरएसएस-बीजेपी नेतृत्व को इस पर विचार करना चाहिए — देश के लिए तत्काल आवश्यक कार्यों के निर्णय में नेतृत्व की उम्र का महत्व है, और एक बूढ़ा कमजोर नेतृत्व शीर्ष पर नहीं रहना चाहिए. ऐसे नेता वह नहीं करेंगे जो किया जाना चाहिए, और एक युवा नेतृत्व आवश्यक कार्य कर सकता है.

अधिकांश हिंदू नेता गांधी सिंड्रोम से पीड़ित हैं: वे कभी दूसरों को सही निर्णय लेने में सक्षम नहीं मानते. यह सोचना चाहिए कि इस मानसिकता ने पिछले सौ वर्षों में देश और उसकी राजनीति पर कितना बुरा प्रभाव डाला है.

असल ‘चाल, चरित्र’, कोई ‘चेहरा’ नहीं

भारतीय नेताओं को एक स्वस्थ, निष्पक्ष उत्तराधिकार प्रणाली तैयार करनी चाहिए. अन्यथा वे ठीक इसी कारण खुद को नेतृत्व के लिए अयोग्य साबित कर देते हैं, क्योंकि वे इस मामले को तय करने से बचते हैं. उन्हें खुद यह भी नहीं पता होता कि अगर वे अचानक चले गए तो उनकी पार्टी में क्या होगा. यह देश या पार्टी चलाने का तरीका नहीं है. हर व्यापारी, हर उद्योगपति जानता है कि उन्हें समय रहते अपने उत्तराधिकार की योजना बना देनी चाहिए. यह अजीब है कि भारतीय नेता, जिनका देश चलाने का काम है, इस पर कभी ध्यान नहीं देते.

आरएसएस-बीजेपी में से कोई भी यह दिखावा नहीं कर सकता कि उन्हें इस पर ध्यान है. यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी, जो 2003-04 में अपनी अच्छी सेहत में नहीं थे, 80 साल की उम्र में कभी यह स्वीकार नहीं किया कि उन्हें पद छोड़ देना चाहिए. उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से तब के बीजेपी अध्यक्ष एम वेंकैया नायडू को फटकार लगाई, जिन्होंने एलके अडवाणी का नाम उस नेतृत्व में शामिल किया था “जिसके तहत पार्टी अगला (2004) चुनाव लड़ेगी.” नायडू को स्पष्ट करना पड़ा कि उन का वाजपेयी, सर्वोच्च नेता, को छोटा दिखाने का इरादा नहीं था. 2004 का चुनाव हारने के बाद भी वाजपेयी ने यह संकेत नहीं दिया कि उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के लिए जगह छोड़ दी है. केवल समय ने उन्हें धीरे-धीरे पार्टी के सक्रिय शीर्ष पद से हटा दिया.

तो, किसी भी भारतीय राजनीतिक पार्टी में कोई उत्तराधिकार प्रणाली नहीं है. इस मुद्दे पर खुली और ईमानदार चर्चा भी नहीं होती. इसका कारण यह है कि कोई भी सत्तारूढ़ नेता पद छोड़ना नहीं चाहता. क्या यह देश के लिए अच्छा है? भारत के सभी ईमानदार नेताओं को इसके बारे में सोचना चाहिए — इससे पहले कि बहुत देर हो जाए.

जहां तक आरएसएस-बीजेपी का सवाल है, अब यह स्पष्ट है कि दूसरों को सत्ता से हटाने के लिए उनके ‘चाल, चरित्र, चेहरा’ का ढिंढोरा केवल दिखावा था. शीर्ष आरएसएस-बीजेपी नेताओं का नवीनतम रुख केवल यह दिखाता है कि 12 साल पहले उन्होंने अपने ही नेताओं को धोखा देकर उन्हें काल्पनिक ‘मार्गदर्शक मंडल’ में भेज दिया. जबकि यह उनकी असली ‘चाल’ और ‘चरित्र’ दिखाता है, और लगता है कि ‘चेहरा’ तो उन का कोई है ही नहीं.

लेखक हिंदी के कॉलमनिस्ट और पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.  

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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