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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतमोहन भागवत की जाति को भूलने की ‘मासूम’ सलाह जातीय वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश है

मोहन भागवत की जाति को भूलने की ‘मासूम’ सलाह जातीय वर्चस्व को बनाए रखने की कोशिश है

सवाल उठता है कि ‘धर्म’ भी तो अतीत का विषय है. उसे भूलने की जरूरत क्यों नहीं है? धर्म से जुड़ी अनेक बुराइयां पूरे संसार में रही हैं, फिर उसे याद रखने की जरूरत क्यों?

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि वर्णव्यवस्था को भूल जाना चाहिए. उनके बयान के अर्थ को समझना आज के राजनीतिक संदर्भ में जरूरी है.

मोहन भागवत जिस संगठन के प्रमुख हैं वह वर्णव्यवस्था का खुला समर्थक रहा है. आज भी वह वर्णव्यवस्था का पैरोकार है जिसको खत्म करने की बात भागवत कर रहे हैं. संघ या हिन्दू महासभा का जाति व्यवस्था से संघर्ष करने का इतिहास नहीं रहा है. आरएसएस अपने को हिन्दू हितों का सबसे बड़ा रक्षक के रूप में प्रस्तुत करता है लेकिन हिन्दू समाज की सबसे बड़ी बुराई जाति व्यवस्था और इससे उपजी तमाम बुराइयों जैसे छूआछूत आदि को लेकर इस संगठन ने अपने सौ साल के इतिहास में कभी समाज में जन जागरूकता अभियान नहीं चलाया है. आधुनिक भारत में जाति प्रथा, छूआछूत आदि के खिलाफ जो समाज सुधार आंदोलन राजा राम मोहन राय, जोतिबा फुले, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, नारायण गुरु, स्वामी अछूतानन्द, पेरियार, महात्मा गांधी, डॉ भीमराव आम्बेडकर आदि ने चलाया वैसा कोई आंदोलन हेडगेवार, गुरु गोलवरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नहीं चलाया.

भागवत का यह बयान अपनी स्पष्टता और तेवर में राहुल गांधी के उस बयान के आगे कहीं नहीं ठहरता है जिसमें उन्होंने लंदन में एक कार्यक्रम में कहा था कि भारतीय संविधान मनुस्मृति के ऊपर सबसे बड़ी चोट है.


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जाति भूलने के पीछे का उद्देश्य

अगर शाब्दिक अर्थ को लें तो सवाल उठता है कि मोहन भागवत जाति को अतीत की बात बताकर उसे भूलने की सलाह दे रहे हैं. क्या करोड़ों दलित-आदिवासी-पिछड़े जाति व्यवस्था को भूल सकते हैं? जिनके जीवन को जाति व्यवस्था ने तीन हजार सालों से नरक बनाया हुआ है? जाति आज भी हमारे राष्ट्रीय जीवन को केवल प्रभावित ही नहीं करता है बल्कि परिभाषित भी करता है.

फिर वह अतीत की भूलने वाली चीज कैसे हुई?  मोहन भागवत कुछ तथ्यों को ध्यान में नहीं रखते हैं: परिवार, गांव की बसावट और राजनीति का आधार जाति है. अर्थतंत्र पर कुछ जातियों वर्चस्व है. नौकरियों का आधार ‘ओपन सीक्रेट’ की तरह जाति है. आरक्षण का आधार भी जाति ही है.

जाति को भूलने के पीछे आरक्षण को नष्ट करने का उद्देश्य दिखता है.

इन प्रश्नों/पक्षों के अलावा और भी बातें हैं, जिनका संबंध जाति की व्यवस्था से जुड़ा हुआ है. सवाल उठता है कि ‘धर्म’ भी तो अतीत का विषय है. उसे भूलने की जरूरत क्यों नहीं है? धर्म से जुड़ी अनेक बुराइयां पूरे संसार में रही हैं, फिर उसे याद रखने की जरूरत क्यों?

व्यक्ति की पहचान ‘जाति’ से है. तनाव से भरे माहौल में धर्म को राजनीतिक पहचान दे दी जाती है.

छवि सुधारने की कोशिश

यह सांप्रदायिकता-सामाजिक प्रश्नों को ओझल करने की चाल है. स्वाधीनता की लड़ाई ने सर्वधर्म समभाव का परिवेश निर्मित किया और जातिव्यवस्था, छुआछूत जैसे तमाम मुद्दों पर क्रांतिकारी कदम उठाए. जातियों के राजनीतिकरण ने व जातियों के प्रतिनिधित्व के सवाल ने जातिवादी व्यवस्था के लिए गंभीर संकट पैदा किए हैं. भागवत का बयान इसी संकट की अभिव्यक्ति है. वह छद्म (छिपे हुए) रूप से जाति विरोधी होने के दावे करते हुए अपने संगठन के लिए सामाजिक स्वीकार्यता चाहते हैं. जैसे मुसलमानों के संबंध में उनके सकारात्मक बयानों को लेकर उन्हें सेकुलर नहीं समझा जा सकता. वैसे ही जातिवाद विरोधी उनके बयान के आधार पर संघ को जातिव्यवस्था विरोधी नहीं कहा जा सकता है. यह इमेज दुरुस्त करने की कोशिश है.

इसका तात्कालिक कारण राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से जनता में जातिवाद और साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं के खिलाफ समता और एकता की चेतना का उभार है. इसमें आरएसएस सबसे बड़ा रोड़ा है. आरएसएस में हड़बड़ी मच गई छवि सुधार की.

दूसरा कारण है जातियों के राजनीतिकरण ने उत्पीड़ितों के उत्थान की मानसिकता निर्मित की है. जिससे वर्चस्ववादी जातियों में अप्रासंगिक या अलग-थलग पड़ जाने का भय है. इसलिए भी संघ अपने को जातिविरोधी साबित करना चाहता है ताकि वह जातीय वर्चस्व को बनाए रख सके और जातिवाद विरोधी जनभावना का दोहन भी कर सके.

डॉ. चंदन यादव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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