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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतभागवत ने मोदी को दी चुनौती, आर्थिक संकट के बीच 'स्वदेशीनोमिक्स' को पुनर्जीवित करने की दी सलाह

भागवत ने मोदी को दी चुनौती, आर्थिक संकट के बीच ‘स्वदेशीनोमिक्स’ को पुनर्जीवित करने की दी सलाह

सरसंघचालक मोहन भागवत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जो आर्थिक दर्शन प्रस्तुत किया है वह मोदी सरकार की हाल की आर्थिक नीतियों के बिलकुल उलट है और यह चल नहीं सकता

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखिया, जिन्हें सरसंघचालक कहा जाता है, हर साल दशहरा के मौके पर अपने मुख्यालय नागपुर में राष्ट्र के नाम सम्बोधन जैसा एक व्याख्यान देते हैं. इसे हमेशा खबरों में जगह मिलती ही है, लेकिन फिलहाल जब भाजपा पहले कार्यकाल के मुक़ाबले ज्यादा बड़े बहुमत से दूसरी बार सत्ता में है तो इस व्याख्यान को ज्यादा अहमियत मिल रही है. खासकर इसलिए भी कि यह सरकार के कथित ‘केंद्रीय सरोकारों’— कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करना, समान आचार संहिता, और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण— पर काम कर रही है.

एक दशक से सरसंघचालक मोहन भागवत ने इस साल कुछ ज्यादा ही सुर्खियां बटोरीं क्योंकि उन्होंने भीड़ द्वारा ‘लिंचिंग’ के मसले को उठाने के अलावा हिन्दू और भारतीय की अपनी परिभाषा बताते हुए कहा कि दोनों मूलतः एक ही हैं. इन दोनों मसलों पर उनके विचार विवादास्पद थे और उन पर काफी तर्क-वितर्क हुए, आलोचनाएं भी हुईं और भक्तों ने प्रशंसा भी की. लेकिन इस हंगामे में उस काफी महत्वपूर्ण मसले पर ध्यान नहीं दिया गया जिस पर उन्होंने विस्तार से चर्चा की. आज हम उनके इसी विचार का गहन विश्लेषण करेंगे.

बेहतर होगा कि आप उनके 63 मिनट के कुछ हिस्सों को खुद सुनें. पहले मिनट में और फिर 28.00 से 42.00 तक 14 मिनट में उन्होंने अपना आर्थिक दर्शन पेश किया. इसकी कुंजी तो शुरू के कुछ सेकंड में ही स्पष्ट हो जाती है. वे अपने भाषण की शुरुआत भारत की दो सबसे प्रमुख, सबसे सम्मानित विभूतियों – गुरु नानक देव (550वीं जयंती) और महात्मा गांधी (150 वीं जयंती)— को याद करते हुए करते हैं. मेरा ख्याल है, आरएसएस-भाजपा दायरे के बाहर के या भारतीय राजनीति पर गहरी नज़र रखने वालों में से कई को शायद ही याद होगा कि भागवत ने जिन दत्तोपंत ठेंगड़ी का नाम लिया उनकी सौवीं जयंती 10 नवंबर से शुरू होगी.

कोई भी, चाहे वह आरएसएस का ही क्यों न हो, ठेंगड़ी को बेशक नानक या गांधी के समकक्ष नहीं रखेगा. लेकिन उन्हें इतना महत्वपूर्ण माना गया कि इन दोनों के साथ उनका भी नाम लिया गया. यह न कोई चलताऊ जिक्र था और न कोई आलंकारिक उपमा, यह तभी स्पष्ट हो जाता है जब आप उनके भाषण के उन 14 मिनटों का दूसरा हिस्सा ध्यान से सुनते हैं.

नागपुर के पास ही वर्धा में 1920 में जन्मे ठेंगड़ी आधुनिक (आज़ादी के बाद) आरएसएस के संस्थापकों (हालांकि यहां इसका जिक्र राजनीतिक रूप से गलत होगा) में थे और उन्होंने इसके राजनीतिक अवदान के दोनों अवतारों— भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी— का विचारधारात्मक आधार तैयार किया था. अर्थनीति उनका प्रिय विषय था. आरएसएस की आर्थिक विश्वदृष्टि को दूसरों से ज्यादा ठेंगड़ी के विचारों ने परिभाषित किया, खासकर पिछले 30 वर्षों के दौरान, जबकि भारत अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण कर रहा था.


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ठेंगड़ी अटल बिहारी वाजपेयी के साथी थे और दोनों ने मिलकर 1955 में भोपाल में आरएसएस के श्रमिक संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) का गठन किया था. लेकिन वाजपेयी की सरकार के छह साल के दौरान वे आपस में बुरी तरह लड़ते रहे. अर्थव्यवस्था के मामले में ठेंगड़ी उनकी राह के सबसे बड़े रोड़े थे, जो सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण से लेकर आयात शुल्क में कटौती और एफडीआइ के लिए दरवाजे खोलने तक हर फैसले का विरोध कर रहे थे. एक समय तो उन्होंने आर्थिक सुधारों को आग बढ़ा रहे वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को बरखास्त करने तक की मांग कर दी थी. वाजपेयी एक साल तक इसे टालते रहे मगर अंततः उन्होंने हथियार डाल दिए.

भाजपा/आरएसएस के लोग जिसे सामूहिक तौर पर ‘संगठन’ कहते हैं उसमें ठेंगड़ी असली ताकत रखते थे. वे अरुण शौरी को नापसंद करते थे. सुप्रीम कोर्ट ने पुरानी समाजवादी मानसिकता में जब यह फैसला सुनाया कि किसी भी सार्वजनिक उपक्रम को बेचने से पहले संसद की मंजूरी जरूरी मानी जाए, तो ठेंगड़ी काफी खुश हुए होंगे. इस फैसले ने शौरी के कदम रोक दिए थे. आज के संदर्भ में गौर करने वाली बात यह है कि यह तब हुआ था जब वाजपेयी सरकार ने दो बड़ी तेल कंपनियों एचपीसीएल और बीपीसीएल को बेचने का फैसला कर लिया था.

और, अकेले ठेंगड़ी ही नहीं थे. उनके बीएमएस ने वाजपेयी के आर्थिक सुधारों का वामपंथी संगठनों और काँग्रेस से जुड़े इंटक से भी ज्यादा जोरदार विरोध किया. इस बीच उन्होंने किसानों के लिए 1979 में भारतीय किसान संघ और 1991 में स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) बनाया, जिससे हम आज ज्यादा परिचित हैं. वर्ष 1991 तो आपको याद होगा ही, जब नरसिंह राव-मनमोहन सिंह ने बड़े सुधारों का श्रीगणेश किया था. एसजेएम ने ‘ड्रंकेल ड्राफ्ट’ के साथ व्यापार के वैश्वीकरण का विरोध करके अपनी एक राष्ट्रीय हैसियत और आवाज़ बनाई. भाजपा में आरएसएस के आदमी माने जाने वाले महासचिव के.एन. गोविंदाचार्य इसके सबसे मुखर प्रवक्ता थे.

वाजपेयी का कार्यकाल खत्म होने तक दोनों के बीच की खटास दिखने लगी थी. प्रायः जब भी कोई नया विचार सामने आता तो वाजपेयी बनावटी हंसी के साथ कुछ इस तरह की टिप्पणी करते कि ‘अरे भाई, ठेंगड़ी जी को कौन संभालेगा….’ लेकिन इस कडवे विरोध के बीच ही वाजपेयी ने बीटी कॉटन बीज की मंजूरी दे दी थी. मनमोहन और मोदी की सरकारों के 16 साल में एक भी नए बीज की मंजूरी नहीं दी गई है.


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बहरहाल, यह लड़ाई 2004 में खत्म हो गई. उस साल वाजपेयी सत्ता गंवा बैठे और 14 अक्तूबर को ठेंगड़ी का निधन हो गया. उन्हें इस बात का संतोष रहा होगा कि वामपंथी नियंत्रण वाली नयी यूपीए सरकार ने निजीकरण से पल्ला झाड़कर वैसी कल्याणकारी योजनाएं शुरू कीं, जो वे पसंद करते.

सरसंघचालक ने गुरु नानक और महात्मा गांधी सरीखी हस्तियों के साथ जिन ठेंगड़ी जी का नाम लिया उनके बारे में इतना सब जान लेने के बाद हम अर्थनीति पर भागवत के 14 मिनट के व्याख्यान की बेहतर व्याख्या कर सकते हैं.

सार संक्षेप : आर्थिक संकट है मगर इसे बहुत महत्व देने की जरूरत नहीं है. शैतान को ज्यादा तवज्जो क्यों दें? अकेले जीडीपी ही आर्थिक वृद्धि का पैमाना नहीं है. भ्रष्टाचार पर हमला बोलिए मगर बेक़सूरों को परेशान मत कीजिए. हम स्वदेशी में विश्वास करते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम खुद को अलगथलग कर लें. व्यापार तो वैश्विक मामला है लेकिन हम वही खरीदें जिसे हम खुद नहीं बना रहे हैं. ब्राज़ील और भारतीय मवेशी के संकर नस्ल का गो वीर्य हम क्यों आयात करें? स्वदेशी का प्रयोग करें. इसके बाद वे बताते हैं कि निर्यात किस तरह अच्छी बात है और आयात किस तरह बुरा है, आरएसएस का सादगी का मंत्र क्या है, जो एकदम जरूरी हो वही खरीदना चाहिए, आप जो उत्पादन कर रहे हैं उसे प्रतियोगिता से संरक्षण दीजिए, आदि-आदि.

इनमें से कुछ बिलकुल उसी तरह नहीं पेश किया गया है, बल्कि मेरी व्याख्या है. इसके बाद वे एफडीआइ पर आते हैं. फिर सारांश के तौर पर— विदेशी यहां निवेश कर सकते हैं मगर हम उन देशों से सीख लें, जो बोर्ड में स्थानीय सदस्य को वीटो पावर के साथ शामिल करने पर ज़ोर देते हैं. इस तरह विदेशियों के पास शेयर तो होंगे मगर अधिकार हमारी सरकार के हाथ में होंगे. दूसरी ओर, देखिए कि क्या हो रहा है. माना जाता है कि हमारी नयी कंपनियां भारतीयों के हाथ में हैं, वे ही उन्हें चला रहे हैं. लेकिन गहराई में जाकर देखेंगे तो पता चलेगा कि शेयर चीनियों के हाथ में हैं. इसे क्लासिक ‘ठेंगड़ीनोमिक्स’ ही कहा जाएगा.

यह सब 2008 के बाद भारत में सबसे गंभीर आर्थिक सुस्ती से निबटने में जुटी मोदी सरकार के ताज़ा उपायों और वादों के उलट ही है. वह और ज्यादा क्षेत्रों को एफडीआइ के लिए खोल रही है, नए व्यापारिक समझौते कर रही है खासकर अमेरिका के साथ, और क्षेत्रीय व्यापार समझौते (आरसीईपी) के तहत इस क्षेत्र के देशों के साथ. वह अर्थव्यवस्था का हौसला बढ़ाने के लिए भारी निजीकरण और वित्तीय क्षेत्र को रामबाण देने की घोषणाएं कर रही है. स्वदेशी जागरण मंच व्यापारिक समझौतों और सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री के अलावा नयी खेती और बीज तकनीक का भी विरोध कर रहा है.


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मोदी सरकार ने हर मोर्चे पर उलटी दिशा में ही कदम उठाया है, जो वाजपेयी को खुश करता और ठेंगड़ी को नाराज. अब आप देखिए कि 2003 में वाजपेयी को जिस बीपीसीएल को बेचने से रोक दिया गया था उस सबसे बड़े पीसीयू को आज बेचने की तैयारी है. हम देख सकते हैं कि मोदी ने इस पर कोई अभी विचार नहीं किया है. 2016 में पुराने पड़ चुके जो 187 कानून इकट्ठे रद्द कर दिए गए थे उनमें 1976 का वह कानून भी था जिसे इंदिरा गांधी के राज में बनाया गया था और जिसके तहत बहुराष्ट्रीय कंपनी बर्मा शेल का राष्ट्रीयकरण करके बीपीसीएल नाम दिया गया था. इस पर संसद में लेफ्ट, राइट, सेंटर किसी ने ध्यान नहीं दिया, तो अपने सांसदों से पूछिए जो सेंट्रल हॉल में झपकी लेते रहते हैं या गप्प लड़ाते रहते हैं.

हम अभी यह नहीं कह सकते कि स्वदेशी मार्का अर्थनीति पर इतने विस्तार से चर्चा करने वाले भागवत फिर कोई जवाबी संघर्ष शुरू करने का इरादा रखते हैं या नहीं. वाजपेयी और मोदी में सत्ता को लेकर जो फर्क है उसके मद्देनजर यह मुमकिन तो नहीं लगता मगर असंभव भी नहीं है. हम बस यही उम्मीद करते हैं कि ऐसी विचारधारा की खोज अभी बाकी है जो इस बात की वकालत करे कि भारतीय अर्थव्यवस्था जिस गड्ढे में गिर गई है उससे बाहर निकलने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि गड्ढे को और खोदा जाए.

(इस आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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