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Thursday, 25 April, 2024
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अर्थव्यवस्था भारत का सबसे धारदार औजार है, लेकिन वो कुंद हो रहा है

एक दहकती हुई अर्थव्यवस्था जो कभी भारत की सबसे बड़ी रणनीतिक ताकत बन गई थी वह आज किस कदर उसकी हैसियत को चोट पहुंचा रही है, यह कश्मीर संकट पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं से साफ दिख रहा है.

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भारत आज एक गंभीर रूप लेते रणनीतिक खतरे का सामना कर रहा है. यह खतरा इसलिए नहीं पैदा हुआ है कि पाकिस्तान ने एलओसी पर एक और ब्रिगेड को तैनात कर दिया है, या कि उसने कोई बेहद नाटकीय मिसाइल परीक्षण कर डाला है. न ही चीन ने सीमा पर कोई नई घुसपैठ की है.

यह खतरा तीन तरह का नहीं है. न तो यह सैन्य किस्म का है, न ही यह हमारे पारंपरिक दुश्मनों की ओर से पैदा किया गया है, और न ही यह हमारी सीमा के पार से उभर रहा है. यह खतरा तीन तरह का जरूर है. इसका स्वरूप आर्थिक है, यह आंतरिक है, और यह पिछले दो दशकों में कमाई गई हमारी थाती को बरबाद करने पर आमादा है. यह थाती है— ‘अंतरराष्ट्रीय साख’ यानी 9/11 कांड के बाद की दुनिया में एक ‘भद्रलोक’ वाली छवि से बनी हमारी साख. यह साख कुछ तो हमारी स्थिरता और लोकतन्त्र के कारण, और मुख्यतः हमारी बढ़ती आर्थिक मजबूती के कारण बनी थी.

इसे आसानी से इस तरह समझा जा सकता है— जब आपकी अर्थव्यवस्था 8 प्रतिशत या इससे ज्यादा की दर से बढ़ रही हो, तो इसे आप अपने लिए सात खून माफ वाला मामला मान सकते हैं. 7 प्रतिशत की दर पर इसे पांच खून माफ वाला मामला मान सकते हैं. मगर जब यह 5 प्रतिशत की दर पर आ गई तो मान लीजिए कि आप खतरनाक स्थिति में पहुंच गए हैं. यह वो स्थिति है जहां एक उभरती विश्व शक्ति तीसरी दुनिया की किसी लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में तब्दील हो जाती है, जिसकी प्रति व्यक्ति आय महज 2000 डॉलर के निचले दायरे में होती है (श्रीलंका की इससे दोगुनी है).


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1991 की गर्मियों में शुरू किए गए आर्थिक सुधारों के बाद 25 वर्षों में भारत पश्चिम से लेकर पूरब और मध्य-पूर्व तक पूरी दुनिया का चहेता बन गया था. भारत की अनूठी सामाजिक-राजनीतिक विशेषताओं, दुनिया के बड़े हिस्से जब अपनी विविधता-बहुलता से जूझ रहे हैं तब इनके बीच भी फलने-फूलने की भारत की क्षमता, इसकी लोकतान्त्रिक व्यवस्था और रणनीतिक संयम आदि ने दुनिया में इसका कद ऊंचा कर दिया था. यह करगिल युद्ध, 26/11 के भारतीय संसद पर हमले के बाद के ‘ऑपरेशन पराक्रम’ के दौरान भारत को मिले व्यापक समर्थन से स्पष्ट हो गया था.

लेकिन हमारी सबसे बड़ी ताकत थी आर्थिक. एक्स्प्रेस ट्रेन की गति से दौड़ रही दुनिया में भारत न केवल सबसे तेजी से वृद्धि कर रही दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था था बल्कि वह टेक्नोलोजी की अपनी ताकत, नए आविष्कारों, विदेशी पूंजी के प्रति मैत्री भाव, मजबूत बाज़ार और टैक्स व्यवस्था के चलते पूरी दुनिया को आकर्षित करता था. उसने 2008 की वैश्विक आर्थिक गिरावट से खुद को जिस तरह बचाए रखा उसके कारण उसे दुनियाभर में प्रशंसा मिली थी.

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इन वर्षों में उथलपुथल भरी दुनिया में भारत एक संयमित, समझ में आने वाले, और महादेश के आकार के एक मजबूत द्वीप के रूप में उभरा था, वैश्विक पोर्टफोलियो और प्रत्यक्ष निवेश के चुंबक के रूप में. इस वजह से चीन समेत सभी बड़ी ताकतें और उनकी कंपनियां भारत की स्थिरता तथा सुरक्षा में अपना हित देखती थीं.

इस तरह, एक दहकती अर्थव्यवस्था उस दौर में भारत की सबसे बड़ी रणनीतिक ताकत बन गई जब इसका सैन्य खर्च गिर गया था और सेना का आधुनिकीकरण अपनी दिशा और गति खो बैठा था.

बढ़ती जीडीपी तब हजारों टन परमाणु हथियारों से ज्यादा शक्तिशाली अस्त्र था. अगर कोई बड़ी ताकत आपके ‘सौवरेन’ या कॉर्पोरेट बॉन्ड में पैसे लगा रही है तो वह ऐसी किसी कार्रवाई या नीति में हिस्सेदारी कतई नहीं करेगी जिससे आपके यहां अस्थिरता पैदा होती हो. चीन के मामले में भी व्यापार सरप्लस अगर 60 अरब डॉलर पर पहुंच गया तो यह भारत में उपभोक्ता अर्थव्यवस्था में उछाल पर निर्भर था.

वे बेशक हमें काफी मशीनरी, बिजली संयंत्र, और इंजिनियरिंग के सामान बेचते हैं. लेकिन दूसरी कौन अर्थव्यवस्था है जो इतने बड़े आकार की है, और हजारों अरब डॉलर के खराब क्वालिटी के उनके कबाड़— खिलौनों, चप्पलों, फर्नीचर, पारासोल, अगरबत्तियों, भड़कीले लिबास, प्लास्टिक चूड़ियों, आदि— की भूखी है, जो भारत के कस्बों और गांवों की दुकानों में भरा दिखता है?

दूसरी किसी अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले भारी मात्रा में आयात करने की भारत की क्षमता पर चीन की निर्भरता भारत के लिए एक तरह से एक रणनीतिक पूंजी बन गई. इसलिए जरा गौर कीजिए कि जब करगिल (1999), संसद पर हमले (2001-2), और 26/11 कांड (2008) के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच संकट पैदा हुआ तब चीन की प्रतिक्रिया क्या थी. आज के मुक़ाबले इन मौकों पर उसकी प्रतिक्रिया भारत के लिहाज से बेहतर और ज्यादा सहायतापूर्ण थी. यहां तक कि 2009 में दलाई लामा के तवांग दौरे से जब तनाव पैदा हुआ था तब भी मनमोहन सिंह की कमजोर सरकार ने बड़ी बहादुरी से चीन को आंख दिखा दी थी और उसे बिना किसी शोरशराबे के शांत कर दिया था.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ज़्यादातर समय तक वृद्धि की गति न केवल बनाए रखी गई थी बल्कि 2012-14 के गतिरोध के बाद उसमें तेजी भी लाई गई. इससे भारत को, और नरेंद्र मोदी को लाभ भी हुआ था. दुनियभर के नेताओं के बीच उनकी छवि और उनका कद काफी ऊंचा उठा था. लेकिन उन्होंने नोटबंदी करके खुद ही इस गति पर ब्रेक लगा दिया. उसके बाद से ही भारत की आर्थिक वृद्धि में गिरावट जारी है.

बड़ी गिरावट पिछली चार तिमाहियों में आई है और इस मुकाम पर किसी को इसमें जल्दी सुधार की उम्मीद नहीं दिख रही है. यह दुनिया में भारत की हैसियत को गिरा रहा है. यह अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने पर हो रही प्रतिक्रियाओं में प्रतिबिम्बित हो रहा है. यह वास्तव में एक निर्णायक मोड़ था और 1971 के युद्ध के बाद से भारत की ओर से एक बड़ा उकसावा था. लेकिन हमारी गिरती वृद्धिदर के कारण जो रणनीतिक क्षति हो रही है उसका पहला संकेत इससे भी पहले मिल गया था जब डोनाल्ड ट्रम्प ने इमरान खान की मौजूदगी में यूं ही कह दिया था कि वे भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने को तैयार हैं.

ट्रम्प तो ट्रम्प ही हैं, फिर भी वे ऐसी कोशिश करने को तब शायद ही तैयार होते जब भारत की अर्थव्यवस्था पहले की तरह ही जीवंत होती और उनके देश की कंपनियां यहां निवेश करके मुनाफा कमा रही होतीं, न कि उनके पास आकर भारत में लग रहे शुल्कों और नीतिगत अनिश्चितताओं की शिकायत कर रही होतीं. वालमार्ट, एमेजन, उनकी तमाम दवा कंपनियां आज उनके पास आकर रोना रो रही हैं कि भारत ने अचानक अपनी नीतियों और टैक्सों में बदलाव कर दिया है.

आज ब्रिटेन की लचर-सी टोरी सरकार कश्मीर मसले पर भारत से लगभग झिड़कते हुए बात कर रही है और यूएन सुरक्षा परिषद में हमारे खिलाफ आक्रामक तेवर दिखा रही है, जबकि टोनी ब्लेयर की लेबर सरकार भारत की आर्थिक बुलंदी के दौर में उसके प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित करती थी. 2002 से 2013 के बीच ब्रिटेन के छह प्रधानमंत्री भारत के दौरे पर आए. जब भारत की विशाल कंपनी टाटा ने जगुआर लैंड रोवर (जेएलआर) और कोरस कंपनियों को 14.3 अरब डॉलर में खरीद लिया और ब्रिटेन में निजी क्षेत्र में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाली सबसे बड़ी कंपनी बन गई तब जाहिर है कि वहां की हरेक पार्टी भारत के प्रति सद्भाव ही प्रदर्शित करती.


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सभी विश्लेषण अंततः काल्पनिक ही होते हैं, लेकिन आप उन्हें सिर्फ इसलिए खारिज नहीं कर सकते कि वे आपको पसंद नहीं हैं. तब तो नहीं ही, जब वे तथ्यों पर आधारित हों. जब ट्रम्प प्रेस कनफरेंस में इमरान के साथ बैठे थे तब उनके दिमाग में यह साफ था कि भारत उनका रणनीतिक सहयोगी नहीं बल्कि परेशान करने वाला व्यापारिक योद्धा है, जो चिढ़ ही पैदा करता है. और शुद्ध रणनीतिक दृष्टि से देखें तो वे चीन को नाराज नहीं करना चाहते थे, जिसके हित अफगानिस्तान में ट्रम्प के हितों से टकराते हैं.

पिछले महीने बायरीज में कुछ सुधार के प्रयास किए गए और एक नया व्यापार समझौता परेशानियों का समाधान कर सकता है. यह इस महीने संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में साफ हो जाएगा. अब सबकी निगाहें मोदी-ट्रम्प मुलाक़ात से ज्यादा दोनों देशों के वाणिज्य मंत्रियों— पीयूष गोयल और रॉबर्ट लाइथीजर— की बैठक पर लगी होंगी. अगर इससे कुछ समाधान होता है, जिसकी पूरी उम्मीद है, तो हम अर्थव्यवस्था और व्यापार को जो रणनीतिक बढ़त का नया ब्रह्मास्त्र बता रहे हैं उसकी पुष्टि हो जाएगी.

आज कश्मीर में हालात बुरे दिख रहे है मगर ये सबसे बुरे स्तर पर नहीं पहुंचे हैं. हाल में बीती बातों को भूल जाने की हमारी आदत रही है, खासकर गूगल से पहले वाली बातों को. 1991-94 में घाटी में जनआक्रोश, सरकारी कार्रवाई, दमन और हिंसा अब तक का सबसे बुरा दौर रहा है. उन दिनों वहां यातना केंद्र खूब चल रहे थे, विदेशी पत्रकारों को वहां जाने से रोका जा रहा था, मुठभेड़ों में लोग मारे जा रहे थे. उधर पंजाब भी जल रहा था, जहां रोज कई लोग मारे जा रहे थे. इसके साथ ही इन सब पर उग्र अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं आ रही थीं और भारत बेसहारा हो गया था. हमारा एकमात्र मित्रदेश सोवियत संघ भी लापता हो गया था. मानवाधिकारों के लिए चिंतित रहने वाला अमेरिका बिल क्लिंटन प्रशासन के करीबी परमाणु अस्त्र विरोधी संगठनों के दबाव में भारत पर निरंतर निशाना साध रहा था.


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वाशिंगटन में ऐसा एक भी सार्वजनिक आयोजन नहीं होता था जिसमें सुयोग्य भारतीय राजनयिकों को इन आरोपों को झेलना नहीं पड़ता था कि कश्मीर में फौज जनसंहार और बलात्कार कर रही है. तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव दुनिया में अकेले पड़ चुके थे और देश में इस सबसे पूरी निर्ममता से निबट रहे थे. भाजपा उन्हें वक़्त आने पर भारत रत्न से सम्मानित कर सकती है, जिसके वे हकदार माने जाते हैं. तब मुझे जरूर याद दिलाइएगा कि मैंने यह कहा था. यह शायद उनकी इस सबसे बड़ी उपलब्धि के लिए नहीं दिया जाएगा कि उन्होंने हमें यह दिखा दिया था कि शीतयुद्ध के बाद की दुनिया में अर्थनीति ही सबसे बड़ी रणनीतिक पूंजी क्यों है. उन्होंने 1991 की गर्मियों में आर्थिक सुधारों को लागू करना शुरू किया था; और बाज़ार, जीडीपी, व्यापार, सबमें तेजी आ गई थी. और तब भारत के दोस्त उन देशों की राजधानियों में भी पैदा होने लगे थे, जहां इसकी उम्मीद नहीं थी.

राष्ट्रपति क्लिंटन के पहले और दूसरे कार्यकाल में फर्क पर जरा गौर कीजिए. पहले कार्यकाल में इसमें उपविदेश मंत्री रॉबिन राफेल भी शामिल थे, जिन्होंने कश्मीर में भारत के विलय के दस्तावेज़ पर ही सवाल उठा दिया था, जबकि दूसरे कार्यकाल में क्लिंटन ने घोषणा कर दी थी कि भारतीय उपमहादेश में नक्शा अब खून की लकीरों से बदला नहीं जा सकता. तेज प्रगति करती अर्थव्यवस्था नब्बे के दशक में अगर एक निर्णायक रणनीतिक पूंजी थी, तो सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था 2019 में एक बोझ ही साबित होगी.

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