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Saturday, 21 December, 2024
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मोहन भागवत वही कर रहे हैं जिससे मोदी इनकार कर रहे हैं — आत्मनिरीक्षण, लेकिन मूर्ख मत बनिए

बीजेपी और आरएसएस एक दूसरे से परस्पर लाभकारी रिश्ते से जुड़े हैं. भागवत की टिप्पणियां कमज़ोर मोदी से ज़्यादा शक्ति प्राप्त करने की एक चाल मात्र हैं.

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2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजे घोषित होने के एक हफ्ते बाद, बीजेपी और संघ परिवार का गुप्त पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ छाया से बाहर निकल आया. आरएसएस प्रमुख या सरसंघचालक मोहन भागवत ने नेताओं के “अहंकार” की सार्वजनिक रूप से निंदा की.

लेकिन भागवत की तल्ख टिप्पणियां थोड़ी देर से आईं. दस साल तक आरएसएस ने बीजेपी के साथ मिलकर काम किया है, कई सरकारी निकायों में घुसपैठ की और राज्य की शक्ति और विशेषाधिकारों का जितना हो सका, उतना लाभ उठाया है. अब “अहंकारी नेताओं” के बारे में विलाप करना पाखंड और दोमुंहापन के अलावा और कुछ नहीं है. आरएसएस भी उसी अहंकार का हिस्सा है.

10 जून को नागपुर में आरएसएस की बैठक में बोलते हुए भागवत ने चुनावी हार के मद्देनज़र भाजपा की कार्यप्रणाली पर निशाना साधा. उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए कहा, “एक सच्चा सेवक मर्यादा बनाए रखता है. काम करते समय वे शिष्टाचार का पालन करता है. उसे यह कहने का अहंकार नहीं होता कि ‘मैंने यह काम किया’. केवल उसी व्यक्ति को सच्चा सेवक कहा जा सकता है.”

भागवत ने चुनाव प्रचार के दौरान इस्तेमाल की गई अभद्र भाषा की भी निंदा की, मणिपुर में एक साल से अधिक समय से चल रही हिंसा के समाधान का आह्वान किया और सत्तारूढ़ पार्टी से विपक्ष का सम्मान करने को कहा.

मोदी अभी भी भ्रम वाली वैकल्पिक वास्तविकता में घूम रहे हैं. वे अभी भी परिणामों को लेकर तर्कहीन इनकार में हैं, फोटो खिंचवाने के लिए पोज़ दे रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय वीआईपी के साथ सेल्फी लेने के लिए जी7 शिखर सम्मेलन में शामिल हो रहे हैं. जबकि, वे मुश्किल से अपनी सीट (वाराणसी) जीत पाए और उनकी पार्टी टीडीपी और जेडीयू जैसे सहयोगियों द्वारा दिए जाने वाले ऑक्सीजन पर चल रही है.

भागवत वही कर रहे हैं जिसे करने से मोदी इंकार कर रहे हैं: आत्मनिरीक्षण में डूब जाना.

एक ही सिक्के के दो पहलू

सच तो यह है कि आरएसएस, एक दशक से मोदी सरकार के साथ पूरी तरह से जुड़ा हुआ है. इसने 2024 के चुनाव अभियान में एक गुप्त भूमिका निभाई, भाजपा उम्मीदवारों के लिए समर्थन जुटाया और अपने विशाल नेटवर्क का उपयोग करके राजनीतिक रूप से प्रेरित विवादों को तैयार किया और भाजपा को लाभ पहुंचाने के लिए अफवाहों का बाज़ार गर्म किया.

उदाहरण के लिए यह आरोप लगाया गया है कि संघ परिवार ने पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में भूमिका निभाई थी, एक ऐसा मीडिया उन्माद जो परिणाम आते ही बंद हो गया.

भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने मई में चुनाव के अंत में यह कह कर आरएसएस पर अपनी ताकत दिखाने की कोशिश की, “अतीत में हम कमज़ोर थे और हमें आरएसएस की ज़रूरत थी, (लेकिन) आज भाजपा खुद चलती है.” शायद नड्डा आरएसएस को नकारने का खाका दे रहे थे, यह कहते हुए कि भाजपा की बड़ी जीत केवल भाजपा और मोदी की है.

लेकिन मूर्ख मत बनिएगा, भाजपा और आरएसएस कई स्तरों पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. भाजपा सहित असंख्य संगठनों वाला संघ परिवार, सभी वैचारिक स्रोत यानी आरएसएस से जुड़े हुए हैं.


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भागवत के लिए सवाल

भागवत से महत्वपूर्ण सवाल पूछे जाने चाहिए. सबसे पहले, आरएसएस, जो कथित तौर पर सिद्धांत रूप से “व्यक्ति पूजा” या नायक पूजा का विरोधी है, तब कहां था, जब किराए की पीआर एजेंसियों और एक व्यक्ति मुख्यधारा के मीडिया द्वारा मोदी पंथ का निर्माण किया जा रहा था?

जब मोदी सरकारों को गिराने, विपक्षी नेताओं पर अभद्र भाषा का प्रयोग करने और मुख्यमंत्रियों को जेल भेजने के बारे में घमंड से बात कर रहे थे, तब अहंकार के खिलाफ आरएसएस का विलाप कहां था? अहंकारी नेताओं के साथ यह बिल्कुल ठीक था, जबकि इससे उन्हें वोट मिल रहे थे.

दूसरा, क्या भागवत विपक्ष का सम्मान करने और उसे विरोधी के रूप में न मानने के आरएसएस के तथाकथित “सिद्धांतवादी” रुख के बारे में बोलते, अगर भाजपा 300 से अधिक सीटें जीतती, जैसा कि वो उम्मीद कर रही थी? नहीं, “400 पार” प्रदर्शन से आरएसएस को राज्य सत्ता के सभी विशेषाधिकारों का चुपचाप आनंद लेने की अनुमति मिल जाती.

तीसरा, भागवत को अचानक आम सहमति बनाने के गुण और झूठ और अभद्र भाषा के नुकसान क्यों पता चल गए? आखिर, भाजपा ने एक दशक तक ध्रुवीकरण की राजनीति की है, विपक्ष को विभिन्न “गिरोहों” के सदस्य के रूप में नामित किया है, संसद में विपक्ष को खारिज किया है और “विपक्ष-मुक्त भारत” का पूरी तरह से अलोकतांत्रिक नारा लगाया है. वास्तव में यह ध्रुवीकरण वही था जो आरएसएस चाहता था.

चौथा, भागवत को मणिपुर में सुधार की ज़रूरत के बारे में अब चुनाव में हार के बाद ही क्यों पता चला है? राज्य में एक साल से हिंसा भड़की हुई है: 200 से अधिक लोग मारे गए हैं और 70,000 लोग विस्थापित हुए हैं.

भागवत जी, नागरिकों को मूर्ख बनाने की कोशिश मत कीजिए. आपके भाषण में कुछ भी “सिद्धांत” नहीं है. यह चालाकी, कपटपूर्ण और उच्च नैतिक आधार पर कब्ज़ा करने का दिखावा है. आप बस यही चाहते हैं कि कमजोर मोदी आपको सत्ता के अपने हिस्से का और भी बड़ा हिस्सा दें.


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‘घुस जाओ और छा जाओ’

नेहरू-गांधी शासन द्वारा स्वतंत्रता के बाद से दशकों तक राज्य संरचना से दूर रखे जाने के कारण, आरएसएस उच्च सरकारी कार्यालयों तक पहुंच के लिए लालायित था.

वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले की किताब The RSS: A View to the Inside से पता चलता है कि आरएसएस का गठन मुख्य रूप से निचले डिवीजन ऑफिस क्लर्क और स्टेशनमास्टर या टियर 2 शहरों के प्रांतीय मध्यम वर्ग के परिवारों से हुआ था. इसलिए यह हमेशा राज्य के “कमांडिंग हाइट्स” में प्रवेश करने की संभावना से उत्साहित रहा है, जो अब तक अंग्रेज़ी भाषा-शिक्षित अभिजात वर्ग के लिए आरक्षित था.

जब भाजपा पहली बार 1978 में सत्ता में आई — जनता पार्टी के भारतीय जनसंघ घटक के रूप में — तो कार्यकर्ताओं के बीच एक नारा चला “घुस जाओ और छा जाओ”.

जब यह मौका आया, तो आरएसएस ने जहां भी संभव हो, पदों को भरने के लिए दौड़ लगा दी, लेकिन जनता पार्टी की सरकार एक कमजोर गठबंधन थी जो जल्द ही अपने कई विरोधाभासों के कारण ढह गई.

2014-2024 के बीच मोदी के दशक में भाजपा और आरएसएस ने आपसी लाभ के आधार पर घनिष्ठ संबंध बनाए. बहुमत वाली सरकार ने राज्य या अर्ध-राज्य निकायों में आरएसएस की विजयी बढ़त सुनिश्चित की, चाहे वो विश्वविद्यालय परिषद हों, विदेशी संबंध निकाय हों, सांस्कृतिक संगठन हों या सिनेमा संस्थान हों.

दो साल तक पुणे में प्रतिष्ठित FTII के प्रमुख के रूप में भाजपा से जुड़े गजेंद्र चौहान की नियुक्ति का विरोध किया गया. जेएनयू के कुलपति ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि उन्हें “आरएसएस से जुड़े होने पर गर्व है”. विनय सहस्रबुद्धे, जो वर्षों तक एक अज्ञात आरएसएस विचारक थे और एक अस्पष्ट संघ थिंक टैंक का नेतृत्व कर रहे थे, आज मौलाना आज़ाद द्वारा 1950 में स्थापित उच्च-स्तरीय अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के अध्यक्ष हैं.

1998-2004 के वाजपेयी के वर्ष भाजपा-आरएसएस संबंधों के लिए बहुत अलग थे. अटल बिहारी वाजपेयी एक संसदीय प्रधानमंत्री थे जिनके लिए चुनावी प्रक्रिया पवित्र थी. वे आरएसएस को सरकार से बाहर रखने के लिए दृढ़ थे.

वाजपेयी का मानना ​​था कि कार्यकारी स्थान और सरकारी शक्ति का उपयोग करने का अधिकार केवल निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास है. उन्होंने वित्त मंत्री के चयन पर आरएसएस के के सुदर्शन का विरोध किया, आरएसएस के श्रमिक नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी (जिन्होंने एक बार वाजपेयी को “क्षुद्र राजनीतिज्ञ” कहा था) के साथ मिले और अयोध्या में राम मंदिर पर तेज़ी से आगे न बढ़ने के लिए वीएचपी के अशोक सिंघल की नाराज़गी सही.

यह सुदर्शन, ठेंगड़ी और सिंघल की आरएसएस तिकड़ी थी जो वाजपेयी पर हमलों में सबसे आगे थी. कोई आश्चर्य नहीं कि आरएसएस ने कहा कि वाजपेयी केवल एक “मुखौटा” थे और वे असली शक्ति थे.


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आरएसएस और मोदी: सत्ता का बदलता समीकरण

मोदी आरएसएस के साथ अपने व्यवहार में कहीं ज़्यादा चतुराईपूर्ण रहे हैं. उन्होंने न सिर्फ उन्हें राज्य के पदों पर कब्ज़ा करने दिया है, जिन्हें वे पसंद करते हैं, बल्कि उन्होंने आरएसएस को यह भी आभास दिया है कि वे उनके वैचारिक एजेंडे को पूरा कर रहे हैं. अपने कार्यकर्ताओं की कमी के कारण, भाजपा चुनाव के समय पैदल सैनिकों की एक सेना के लिए आरएसएस पर निर्भर है.

प्रधानमंत्री ने चालाकी से एक ऐसा मॉडल बनाया, जिसमें आरएसएस को कुछ सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थानों को अपने खेल का हिस्सा बनाने की अनुमति देने के बदले में उन्हें पूर्ण शक्ति प्राप्त है. यह दोनों के लिए फायदेमंद रहा है.

लेकिन 2024 में भाजपा के बहुमत से चूक जाने से चीजें नाटकीय रूप से बदल गई हैं. “400 पार” तो भूल ही जाइए, भाजपा 272 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई. वो हिंदुत्व के गढ़ अयोध्या (फैज़ाबाद सीट) के साथ-साथ एससी और एसटी निर्वाचन क्षेत्रों में भी हार गई, जिसे आरएसएस दशकों से अपने पाले में लाने की कोशिश कर रहा था. इसके अलावा, भागवत के बाद, आरएसएस के सदस्य इंद्रेश कुमार ने “अहंकार” के खिलाफ आवाज़ उठाई, जिसने भाजपा को 240 सीटों पर रोक दिया.

अब तक, मोदी ने जनादेश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है, लेकिन उनके और आरएसएस के बीच सत्ता का समीकरण, जो कभी उनके पक्ष में था, अब दूर होने लगा है. अगर यह स्पष्ट हो जाता है कि मोदी वोट पकड़ने वाले से वोट भगाने वाले में बदल गए हैं, तो संघ दूसरे विकल्पों की तलाश करने में संकोच नहीं करेगा.

अगर तथाकथित चुनावी संपत्ति एक बासी, पुरानी देनदारी में बदल जाती है, तो वो मोदी को छोड़ने की तैयारी शुरू कर सकता है.

मोदी की निर्मित ‘आभा’ चली गई है. इसी तरह आरएसएस का समर्थन भी चला गया है. मोदी के कमज़ोर होने के साथ, आरएसएस, जो अब तक मोदी के नेतृत्व में अधीनस्थ स्थिति में था, एक बड़ी भूमिका के लिए जोर दे रहा है.

तो, क्या आरएसएस तुरंत एक नई राजनीतिक व्यवस्था बनाने के लिए जोर देगा? या यह एक अधिक आम सहमति वाले नेता के उभरने का इंतज़ार करेगा? क्या यह उप-प्रधानमंत्री की नियुक्ति के लिए जोर देगा या शीर्ष स्थान में बदलाव की कोशिश करेगा? ये सभी खुले सवाल हैं.

फिलहाल, आरएसएस मुश्किल में फंस गया है. जब एक विभाजनकारी, अभिमानी और दबंग मोदी मतदाताओं को अलग-थलग कर रहे थे, तब चुप रहकर उसने अपनी कब्र खुद खोदी. अब, आखिरकार बोलकर, यह नैतिक उच्च आधार खो सकता है जिसकी उसे इतनी कदर है: आप सत्ता के फल की बेतहाशा लालसा नहीं कर सकते और फिर भी यह दावा नहीं कर सकते कि आप इससे बहुत दूर हैं.

(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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