scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतकश्मीर पर मोदी की पहल भारतीय लोकतंत्र और मौन उदारवादियों के लिए सबसे बड़ी परीक्षा है

कश्मीर पर मोदी की पहल भारतीय लोकतंत्र और मौन उदारवादियों के लिए सबसे बड़ी परीक्षा है

भाजपा अपनी पहल को समर्थन नहीं होने को लेकर इतनी आश्वस्त है कि ‘कानून व्यवस्था’ बनाए रखने के लिए और अधिक संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ी है.

Text Size:

कश्मीर सुरक्षा घेरे में बंद है. जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को ऐसे हटाया गया मानो वो बेमतलब रहा हो, न कि भारत को कश्मीर से जोड़े रखने वाले कानूनी बंधन का एकमात्र प्रकट रूप.

इस बात को मानना ही होगा कि यह विषय हमेशा से भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे में रहा है. जून 1993 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के अपने लेख में भाजपा के तत्कालीन उपाध्यक्ष और प्रवक्ता के.आर. मलकानी ने कश्मीर समस्या पर भाजपा के समाधान की रूपरेखा प्रस्तुत की थी. अनुच्छेद 370 एक ‘अस्थाई और संक्रमणकालीन’ व्यवस्था है और इसे ‘खत्म करना होगा. पर ये तभी खत्म हो सकती है जब इसके लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत हो. इसमें थोड़ा समय लगेगा. और भाजपा तब तक के वक्त का उपयोग सबको, खास कर कश्मीरियों को, आश्वस्त करने में करेगी कि अनुच्छेद 370 से किसी का भला नहीं है. इसने सिर्फ भ्रष्टाचार और गैरज़िम्मेदारी को ढंकने का काम किया है. एक बार इसके हटते ही, कश्मीर अधिकारों और ज़िम्मेदारियों के मामले में पंजाब और बंगाल के समान हो जाएगा.’

26 वर्ष बाद भाजपा के पास कश्मीर समस्या के अपने समाधान को लागू करने लायक संसदीय बहुमत है. पर इसने कश्मीर में किसी को भी आश्वस्त नहीं किया है, अपने पूर्व गठबंधन सहयोगी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को भी नहीं, जिसकी नेता महबूबा मुफ्ती नज़रबंद रखी गई हैं. वास्तव में, भाजपा अपनी पहल को समर्थन नहीं होने को लेकर इतनी आश्वस्त है कि ‘कानून व्यवस्था’ बनाए रखने के लिए और भी अधिक संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती करने और इंटरनेट और फोन नेटवर्क को ठप करने जैसे कदम उठाने पड़े हैं.


यह भी पढ़ेंः धारा 370 पर भारत ने नहीं किया है किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते का उल्लंघन, न के बराबर होगा विरोध


कश्मीरियों के लिए नई सुबह नहीं

भाजपा की नादानी इतनी बड़ी है कि मुफ्ती जैसी साख गंवा चुकी नेता में भी दो टूक शब्दों में बोलने का साहस आ गया है. बीबीसी से बातचीत में उन्होंने सरकार के कदम को ‘हमारी भूमि पर कब्जे’ और ‘हमें अल्पसंख्यक और पूरी तरह शक्तिहीन बना देने’ की कवायद करार दिया है.

असाधारण रूप से बड़ी संख्या में तैनात सेना के हाथों रोज अपमानित होने वाले कश्मीरी कहेंगे कि पिछले तीन दशकों से वे इस प्रक्रिया के भी गवाह हैं. उनकी भूमि – स्कूल, कॉलेज – सेना के नियंत्रण में है, उनकी जामा तलाशी ली जाती है, उनके फुटपाथों पर कंटीले तारों का घेरा है, और उनके प्रसिद्ध बागों में बंकरों का अतिक्रमण है. पढ़ाई के लिए भारत के शेष हिस्सों में गए कश्मीरी भी तंग किए जाने, पुलिस द्वारा उठाए जाने, आतंकवाद का आरोप लगाए जाने और फर्जी आरोपों में लंबे समय तक हिरासत में रखे जाने के अनुभव बताएंगे. विविधता और सर्व धर्म समभाव वाले भारत का विचार कश्मीर में तीन दशक पहले दफन हो गया था. भारत के लोकतंत्र का निरंतर गुणगान करने वाले उदारवादी भी कश्मीर की स्थिति को लेकर चुप्पी साधे बैठे हैं. कश्मीरियों से बात करें और वे आपको बताएंगे कि वे इस खामोशी का अर्थ अच्छे से समझते हैं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

इतिहासकार मृदु राय ने ‘बेहद उकसाऊ कार्रवाइयों के बावजूद’ अब तक अधिकांश कश्मीरियों के अहिंसक रहने की ‘दृढ़ प्रतिबद्धता’ का ज़िक्र किया है. इस अर्थ में कश्मीरी भारत के सर्वाधिक महान सपूत महात्मा गांधी का अनुसरण कर रहे हैं. पर, इस बात की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है कि कश्मीर में लोकतांत्रिक सिद्धांतों के परित्याग की नवीनतम घटना का परिणाम क्या होगा. गत सप्ताह अतिरिक्त सुरक्षा बलों की रणनीतिक तैनाती से यही लगता है कि सरकार को बड़े पैमाने पर विरोध की आशंका है, और पहले की तरह ही वो कश्मीर में शांति स्थापित करने के लिए युद्ध के तमाम मानदंडों को ताक पर रखने के लिए तत्पर रहेगी.

कश्मीर के लोकप्रिय शायर आग़ा शाहिद अली ने कभी लिखा था ‘वे कायम करते हैं वीरानगी, और कहते हैं उसे अमन’.

एडवर्ड ल्यूस अपनी किताब द रिट्रीट ऑफ वेस्टर्न लिबरलिज़्म में बड़ी ही आशावादी भविष्यवाणी करते हैं: ‘हालांकि नरेंद्र मोदी में… बोनापार्ट वाले लक्षण दिखते हैं, पर इस बात की कल्पना कठिन है कि वह व्यवस्था को खत्म करने की कोशिश करेंगे. इसमें उन्हें सफलता मिलेगी, ये तो और भी नामुमकिन लगता है. भारत में मुखर असहमति की संस्कृति और बहुलतावाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि मैं वर्तमान में लोकतंत्र को पश्चिम के देशों के मुकाबले भारत में अधिक सुरक्षित मानता हूं.’ और उसके बाद वह कहते हैं कि ‘भारत के पक्ष में सबसे बड़ी बात आर्थिक विकास की है.’


यह भी पढ़ें: कहीं अयोध्या मामले पर भी धारा 370 की तरह कोई बड़ा कदम न उठा लिया जाए


कश्मीरियत भाजपा के एजेंडे में नहीं

अब स्थिति ये है कि विकास की गति धीमी हो चुकी है और मोदी की सर्वज्ञात बोनापार्टी प्रवृतियां, भाजपा के दीर्घकालीन एजेंडे की मदद से, सतह पर आ गई हैं. अनुच्छेद 370 को, दिखावटी बहस तक किए बिना, हटाया जाना भारतीय लोकतंत्र की गंभीरतम परीक्षा है.

अपने 1993 के लेख के निष्कर्ष में मलकानी ने सुझाव दिया था कि जब भी कश्मीर घाटी को राज्य बनाया जाता है, ‘कश्मीरी भाषा को शिक्षा और कामकाज का माध्यम बनाना होगा… ताकि कश्मीरियत को मज़ूबत और पुनर्स्थापित किया जा सके और पाकिस्तान के आकर्षण और प्रभाव को रोका जा सके.’ आज की भाजपा की कश्मीरियत की वैसी किसी भावना को पुनर्स्थापित करने में कोई दिलचस्पी नहीं है; उसकी एकमात्र चाहत उस समुदाय पर हिंदू राष्ट्र का अपना विचार थोपना है, जो कि उसकी दृष्टि में दमित और असहाय है.

क्या 5 अगस्त कश्मीरियों के भारत से अलगाव का प्रस्थान बिंदु साबित होगा, या यह उस दिन के रूप में जाना जाएगा जब भारत के खोखले उदारवादी विपक्ष ने आखिरकर अपनी आवाज़ हासिल की? कहां गई मुखर असहमति और बहुलतावाद की भारतीय संस्कृति?

(नीति नायर यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर, और वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलर्स में पब्लिक पॉलिसी फेलो हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments