scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतजनोन्मादी नेताओं के खिलाफ प्लेटो और अरस्तू की चेतावनी से मोदी का भारत क्या सीख सकता है

जनोन्मादी नेताओं के खिलाफ प्लेटो और अरस्तू की चेतावनी से मोदी का भारत क्या सीख सकता है

घृणा जनोन्माद फैलाने वाले नेताओं का एक प्रभावी औजार है. प्लेटो के अनुसार, ऐसे नेता लोकतंत्र के लिए खतरा हैं. इसका समाधान भारत के बहुसंख्यकों और समानता की उनकी चाहत में है.

Text Size:

प्लेटो और अरस्तू ने लोकतंत्र की निरंतरता पर परस्पर विपरीत विचार व्यक्त किए थे. प्लेटो ने अपनी पुस्तक रिपब्लिक के आठवें खंड में लोकतंत्र को मूलत: अस्थाई बताया है. उनका कहना है कि लोगों को स्वतंत्रता दिए जाने पर उनके बीच जनोन्माद फैलाने वाले नेताओं के उभरने की परिस्थिति भी बनती है. सत्ता के लिए ऐसे नेताओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा से निरंकुश शासन पैदा हो जाता है.

इसके विपरीत अरस्तू ने अपनी पुस्तक पॉलिटिक्स के पांचवें खंड के पांचवें अध्याय में कहा है कि लोग समाज में विशेषाधिकार और संपत्ति के वितरण में समानता चाहते हैं, जो कि सिर्फ लोकतंत्र में ही संभव है. अधिक समानता वाले समाज की लालसा लोगों को जनोन्मादी नेताओं को ठुकराने के लिए प्रेरित करेगी, जिससे लोकतंत्र सरकार के सबसे टिकाऊ रूप में उभरेगा. हालांकि दोनों ही इस बात पर सहमत थे कि लोकतंत्र की अंतर्निहित कमज़ोरियों के कारण इस पर जनोन्माद फैलाने वाले नेताओं के कब्ज़े की आशंका बनी रहती है.

नरेंद्र मोदी ने अब जबकि अपना दूसरा कार्यकाल शुरू किया है, भारतीय लोकतंत्र एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा नज़र आता है. इसलिए इस बात पर विचार करना मुनासिब होगा कि क्या अरस्तू के कथनानुसार एक समतामूलक समाज की आकांक्षा जनोन्माद फैलाने वाले नेताओं को काबू में रख सकेगी या फिर जनोन्माद अंतत: निरंकुश शासन को जन्म देगा, जिसे कि प्लेटो ने अपरिहार्य बताया है.


यह भी पढ़ेंः ‘हार्वर्ड’ के अर्थशास्त्रियों को नौकरी पर रखने में कोई हर्ज़ नहीं पर उनकी सुनिए भी तो मोदी जी


काण्ट का तर्कयुक्त संकल्प

लोकतंत्र के मूल में काण्ट के तर्कयुक्त संकल्प की अवधारणा निहित है. लोकतंत्र किसी भी मुद्दे को बहस और चर्चा के ज़रिए तय करता है, और समुदाय के सदस्यों या प्रतिनिधियों के बीच ये चर्चा इस काम के लिए स्थापित सभा में होती है, जहां बेरोकटोक बोलने की गारंटी होती है. तर्कयुक्त संकल्प लोगों के विचारों या मतों का समुच्चय मात्र नहीं है. न ही यह सिर्फ बहुसंख्यकों की इच्छा है. जैसा कि अरस्तू ने कहा था, कि तर्कयुक्त संकल्प दरअसल बहस के लिए गठित सभा, जहां बोलने की स्वतंत्रता होती है, में हुई खुली बहस में बनी सहमति है. विचार-विमर्श रहित बहुमत को जनता का तर्कसंगत संकल्प नहीं कहा जा सकता. तर्कसंगत संकल्प की ठोस व्यवस्था के बिना लोकतंत्र का अस्तित्व नहीं हो सकता.

जबकि जनोन्मादी तंत्र दरअसल बयानबाज़ी का एक साधन है जिसमें जनता के तर्कयुक्त संकल्प की अवहेलना करते हुए आबादी के एक हिस्से, अक्सर बहुसंख्यक, की भावनाओं को भड़काया जाता है.

इसे एक समुदाय के स्कूल की जगह चुनने के उदाहरण से समझा जा सकता है. तर्कसंगत संकल्प की बात करें तो उसके लिए जगह की उपयुक्तता, सुविधाएं, भूमि का प्रकार, दूरी आदि पर विचार किया जाएगा. स्थान चुनने के लिए विभिन्न हितधारकों और विभिन्न मानकों के बीच एक व्यापक समझौता होना आवश्यक होगा. साथ ही, अपनाए जाने से पहले इस संकल्प को बहुमत की कसौटी पर कसा जाएगा.

दूसरी तरफ, यदि मान लेते हैं विभिन्न हितधारक भी धर्म, रंग या सामाजिक दर्जे के आधार पर दो व्यापक समुदायों में विभाजित किए जाते हैं. जनोन्माद में विश्वास रखने वाला कोई नेता भी उन्हीं हितधारकों को लुभाने की कोशिश करेगा, पर शायद किसी विभाजनकारी कारक के आधार पर. जैसे धर्म के नाम पर, वह मांग करेगा कि क्षेत्र में धार्मिक समुदाय विशेष के बहुसंख्यक होने का निर्धारण करते हुए स्कूल का स्थान तय किया जाए. वह ऐसा कथानक गढ़ेगा कि जिसमें दावा होगा कि अतीत में उसके पसंदीदा समुदाय को ऐसा मौका नहीं दिया गया था, या फिर कहा जाएगा कि बहुसंख्यकों के धर्म को देश की शिक्षा व्यवस्था का आधार बनाया जाना चाहिए. इस तरह विभिन्न भावनात्मक अपीलों में से किसी का इस्तेमाल किया जाएगा.

तर्कसंगत संकल्प से किनारा करने के वास्ते एक समुदाय (बहुसंख्यक) की भावनाओं को उभारना और दूसरे समुदाय को खारिज करना ही जनोन्माद फैलाना है. यहां महत्वपूर्ण अंतर ये है कि जहां तर्कसंगत संकल्प में समस्या के समाधान के लिए उसे तर्क की कसौटी पर कसना अनिवार्य है, वहीं जनोन्मादी नेता तर्क प्रक्रिया से कोई वास्ता नहीं रखना चाहता, और उसकी दिलचस्पी मात्र समस्या को किसी असंबद्ध भावनात्मक मुद्दे में बदलने में होती है. जनभावनाओं का दोहन लोकतंत्र की कमज़ोरी है.

लोगों को उकसाने में भावनाएं अक्सर तर्क से ज़्यादा प्रभावी होती हैं. जनोन्मादी नेता जानबूझ कर ऐसे मुद्दे चुनता है जो समुदाय विशेष की पहचान से गहरे जुड़े होते हैं, और जिन्हें अतीत की कोई बड़ी घटना दूसरे समुदाय से अलग करती है.

तुरंत किसी बात से घृणा करने लगना इंसान का सहज स्वभाव है. जबकि विश्वास और प्रेम का असर दिखने में समय लगता है. इस कारण जनोन्मादी नेताओं के हाथ में घृणा एक बेहद शक्तिशाली भावनात्मक औजार होता है. चूंकि ऐतिहासिक रूप से विभिन्न समुदायों के आपसी संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव रहे होते हैं, इसलिए अतीत या वर्तमान के किसी मुद्दे को लेकर दो समूहों के बीच वास्तविक या काल्पनिक मतभेद पैदा करना ज्यादा मुश्किल काम नहीं होता है. सामान्य परिस्थितियों में तर्कयुक्त संकल्प के मुकाबले इसकी अनदेखी कर दी जाती है. पर तनाव, संघर्ष और आपात उथल-पुथल की स्थिति में मतभेद सतह पर आ जाता है, जिसका फायदा उठाने के लिए जनोन्मादी नेता तैयार बैठे रहते हैं.


यह भी पढ़ेंः देखिये तो सही, ‘उजाड़’ के ये किस्से ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र की कैसी खबर लेते हैं!


प्लेटो का समस्यामूलक समाधान

यदि जनोन्माद लोकतंत्र पर लगातार बना हुए खतरा है, तो हम इससे कैसे निपट रहे हैं?

इस सवाल ने प्लेटो को उलझन में डाल दिया था, जिसका मानना था कि जनोन्माद की अंतत: जीत होगी. क्योंकि प्लेटो की मान्यता थी कि एक जनोन्मादी नेता के बाद आगे उससे भी ज़्यादा कुशल जनोन्मादी नेता का उभार निरंतर होता रहेगा, और फिर एक ऐसा दिन आएगा जब ऐसा कोई नेता तर्कयुक्त संकल्प रहित लोकतंत्र के मुखौटे को फेंक निरंकुश शासन स्थापित कर लेगा.

इस समस्या का प्लेटो द्वारा दिया गया समाधान स्वयं समस्याग्रस्त था. वह अभिभावक-दार्शनिकों की एक समिति, जिसमें लगभग सभी कम्युनिस्ट होते, द्वारा संचालित तानाशाही का पक्षधर था. प्लेटो का समाधान त्रुटिपूर्ण था, लेकिन ये बात गौर करने लायक है कि प्राचीन विश्व का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति भी जनोन्मादी नेताओं से लोकतंत्र की रक्षा के सवाल से जूझ रहा था. यह अपने आप में समस्या की गंभीरता का एहसास करने के लए पर्याप्त है.

अरस्तू की अपील

अरस्तू का सुझाया समाधान क्या था? अरस्तू का मानना था कि समानता की अवधारणा के इर्द-गिर्द बहुमत निर्मित करना हमेशा संभव होगा. यहां समानता से मतलब गिनी गुणांक से मापी जाने वाली संपत्ति या आय की समानता नहीं, बल्कि हैसियत, विशेषाधिकार, वस्तुओं और समाज में उपलब्ध अवसरों की समानता है.

यदि आप किसी समाज की कल्पना एक बहुस्तरीय पिरामिड के रूप में करते हैं, तो सर्वसाधारण इसके सबसे चौड़े निचले हिस्से में और कुलीन इसे सबसे संकरे शीर्ष पर होते हैं. जैसा कि स्पष्ट है कि सहज अवस्था में किसी समाज के अधिकांश लोग समानता के पक्ष में होंगे, क्योंकि पिरामिड में जो जितना नीचे है उसकी संख्या उतनी ही अधिक है, और इस तरह सर्वसाधारण बहुमत में हैं जिनमें समानता की अधिक लालसा है.

इसलिए अरस्तू का समाधान तर्क और/या भावना के आधार पर समानता के लिए एक अपील थी, क्योंकि जनोन्मादी तंत्र को पराजित करने के लक्ष्य के संदर्भ में दोनों एक तरफ हैं. उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक, हर धर्म समानता की अवधारणा पर ही स्थापित हुए हैं. हिंदू धर्म भी अक्सर समानता या उसकी कमी संबंधी असहमति के आधार पर जाति आधारित अपनी जड़ों से दूर अलग-अलग धाराओं में बंटता रहा है.

इसलिए अरस्तू ज़्यादा गलत नहीं था. साथ ही अरस्तू, खुल कर ऐसा कहे बिना, यह भी मानते था कि जनोन्माद का मुकाबला जनोन्माद से ही हो सकता है, जो कि समतामूलक उद्देश्यों वाला जनोन्माद होगा. ध्यान दें कि यह गिनी गुणांक आधारित नवउदारवादी समानता नहीं है, बल्कि वास्तविक समानता है.

बहुसंख्यकों की भूमिका

सहज बुद्धि से देखें तो अरस्तू द्वारा सुझाए गए समाधान की अपरिहार्यता स्पष्ट है. यदि एक जनोन्मादी नेता समाज को धर्म के आधार पर दो समुदायों में विभाजित करने का प्रयास करता है, तो इस विचार का विरोध करने वाले लोग ऐसे नेता के खिलाफ क्या करें? चूंकि समाज में सभी समान हैं, इसलिए यदि दोनों ही समुदायों में समानता समर्थक बराबर अनुपात में हों, और वे जनोन्माद फैलाने वाले नेता एवं उनके समर्थकों के खिलाफ समान आधार वाला अभियान चलाने के लिए तैयार हों, तो ये असरदार साबित हो सकता है. दूसरा विकल्प है समानता की भावना के अनुरूप काम करते रहना चाहे जनोन्माद फैलाने वाला नेता कुछ भी कहे. यदि अरस्तू का पिरामिड सही है, तो समानता की आकांक्षा का हावी होना तय है, क्योंकि समय के साथ जनोन्मादी असर कम होता जाता है.


यह भी पढ़ेंः वामपंथ नहीं रहा लेकिन देश में नये सोच के ‘नव-वाम’ की जरूरत बरकरार


हालांकि, अरस्तू के समाधान को लागू करने में तब जटिलता आती है जब (क) विभाजन रेखा के दोनों ओर मौजूद लोगों की संख्या में भारी अंतर हो; या (ख) बहुसंख्यकों का समर्थन पाने के लिए जनोन्मादी नेता आपस में ही प्रतिस्पर्धा करने लगें. भारत के मामले में, मुसलमानों की आबादी सिर्फ 15 प्रतिशत है, जबकि हिंदू 80 प्रतिशत हैं. ये बेहद एकतरफा मामला है. एक जनोन्मादी नेता का दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति शायद भविष्य में देखने को मिले. पर, अभी किसी जनोन्मादी नेता से छुटकारा पाना बहुसंख्यकों के तर्कसंगत संकल्प पर ही निर्भर करता है, न कि अल्पसंख्यकों पर. समानता की बहुसंख्यकों की लालसा ही जनोन्माद को पराजित करने में सहायक साबित होगी.

लोकतंत्र को पटरी से उतारने वाले जनोन्मादी तंत्र के मुकाबले के बारे में अरस्तू के दृष्टिकोण की व्यावहारिकता क्या है? संक्षिप्त उत्तर है, लोगों के तर्कसंगत संकल्प को लोकतांत्रिक फैसले की बुनियाद के रूप में फिर से बहाल करना. यह सभी नागरिकों की समानता की आकांक्षा को जगा कर किया जा सकता है, चाहे वे अल्पसंख्यक हों या प्रभावशाली वर्ग के. दूसरी बात, प्रभावशाली वर्ग को सभी के लिए समानता, सिर्फ अपने सदस्यों के लिए ही नहीं, सुनिश्चित करने के लिए आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए. और अंत में, समानता के आंदोलन को एक करिश्माई नेता ढूंढ़ना होगा जो राजनीति में किसी भी जनोन्मादी नेता के खिलाफ आवाज़ उठाने में सक्षम हो.

सिर्फ समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व ही जनोन्माद के खतरे का प्रभावी जवाब हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(सोनाली रानाडे @sonaliranade और शैलजा शर्मा @ArguingIndian हैंडल से ट्वीट करते हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

share & View comments