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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतमोदी के पास एक ही रास्ता, टिकैत के साथ बैठें और कृषि कानूनों का मसौदा तैयार करें: जूलियो रिबेरो

मोदी के पास एक ही रास्ता, टिकैत के साथ बैठें और कृषि कानूनों का मसौदा तैयार करें: जूलियो रिबेरो

मोदी सरकार पूरे साल भर के लिए बंधक बनकर नहीं रह सकती. उसे कोई समाधान निकालना होगा और वो भी शीघ्रता से. सरकार देश के किसानों को अलग-थलग करने का जोखिम नहीं उठा सकती.

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तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने की पंजाब और हरियाणा के किसानों की मांग, जिसे अब भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत की अगुवाई में उत्तर प्रदेश के किसान व्यापक रूप से उठा रहे हैं, पिछले तीन महीनों से राजनीति के केंद्र में है.

निसंदेह नरेंद्र मोदी-अमित शाह सरकार के लिए ये अब तक की सबसे जटिल स्थिति है, जिसका कोई समाधान भी नहीं दिख रहा. विरोध प्रदर्शनों के नेता के रूप में उभरने वाले टिकैत ने घोषणा की है कि सरकार मांगों को मान ले इसके लिए किसान 2 अक्टूबर, मोहनदास करमचंद गांधी की 125वीं जयंती, तक इंतजार करेंगे. आंदोलनकारी किसान तब तक दिल्ली जाने वाली सड़कों पर धरना देते रहेंगे, जिन पर नर्वस पुलिस बल ने नुकीली कीलें और अवरोधक लगा रखे हैं.

मोदी सरकार पूरे साल भर के लिए बंधक बनकर नहीं रह सकती. उसे कोई समाधान निकालना होगा और वो भी शीघ्रता से. सरकार देश के किसानों को अलग-थलग करने का जोखिम नहीं उठा सकती. हमारे सैनिक बड़े पैमाने पर किसान वर्ग से ही आते हैं. किसानों के साथ अन्याय होने की कोई भी धारणा परोक्ष रूप से हमारे जवानों के मनोबल को प्रभावित करेगी.

एक और खतरा मंडरा रहा है. पंजाब के किसान मौजूदा आंदोलन में सबसे आगे रहे हैं. उन्होंने विगत में ‘खालिस्तानी आतंकवादियों’ को खारिज कर दिया था और खालिस्तान आंदोलन से अपने हितों का नुकसान होने का अहसास होने के बाद आतंकवादियों को पुलिस को सौंपने का काम किया था. लेकिन अगर मोदी-शाह सरकार ने स्थिति से निपटने के लिए सख्ती बरती, तो यह असंतोष फिर से परेशानी वाले हालात पैदा कर सकता है. खासकर सरकार को किसानों के खिलाफ अपने ‘डर्टी ट्रिक्स’ विभाग को सक्रिय नहीं करना चाहिए. ऐसा करना नुकसानदेह साबित होगा.

सरकार को कोई असावधान कदम उठाने से भी बचना चाहिए. उसे सम्मानित पत्रकारों और विपक्षी नेताओं के खिलाफ नए मोर्चे नहीं खोलने चाहिए. ऐसे समय उनसे भिड़ना, जबकि किसानों की समस्या से निपटना सर्वाधिक जरूरी है, आत्मघाती ही माना जाएगा.

टिकैत के किसानों ने पिछले दो लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का समर्थन किया था. अब उनका समर्थन खोने का खतरा है और यदि ऐसा हुआ तो असंतोष अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में फैल सकता है. यानि किसानों के विवाद का जल्दी समाधान नहीं करना हर तरह से मोदी सरकार के लिए नुकसानदेह है.


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किसान नेताओं से मशविरा करें

इस समय गृह मंत्री अमित शाह के लिए नहीं भी तो कम से कम प्रधानमंत्री मोदी के लिए अफसोस करने की जरूरत है. साफ तौर पर यह एक दक्षिणपंथी सरकार है. इसे उद्योग जगत के समर्थन की जरूरत होती है, जो बदले में सरकार से अपनी चिंताओं पर गौर करने की उम्मीद करता है.

तो फिर मोदी सरकार मजदूर वर्गों (उनके नेताओं के जरिए) से परामर्श क्यों नहीं करती, जब वह उनके (किसानों, श्रमिकों) फायदे के लिए कानून बनाती है? उन्हें निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा होने का हिस्सा दिलाते हुए साथ लेकर चलना अच्छा नेतृत्व माना जाएगा.

कृषि सुधारों के संबंध में सरकार की सोच बिल्कुल सही है कि सब्सिडी और कृषि ऋण माफी का चलन खत्म किए जाने की आवश्यकता है. यदि किसानों का जीवनस्तर सुधरता है, जैसा कि सरकार का वादा है, तो भला उन्हें क्यों आपत्ति होगी? साथ ही, इस डर को भी खत्म किया जाना चाहिए कि कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट सेक्टर के कदम रखने से किसान और कृषि पर आश्रित अन्य लोगों पर भारी आर्थिक मार पड़ेगी. ये सब करने में थोड़ी कठिनाई आएगी लेकिन मुश्किल कार्यों में ही तो आखिरकार सरकार की क्षमता परखी जाती है.

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले हफ्ते पश्चिम बंगाल में एक चुनावी भाषण के दौरान हर तरह के विरोध प्रदर्शनों में एक खास वर्ग के कार्यकर्ताओं की अनिवार्य मौजूदगी की बात की, चाहे वह सीएए/एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन हो, जेएनयू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों का विरोध हो, कृषि कानून विरोधी प्रदर्शन हो या किसी अन्य मुद्दे पर विरोध. उन्होंने ये साबित करने की कोशिश की कि सरकार को, उसके इरादों या उसके कार्यों पर विचार किए बिना निशाना बनाने वालों में भाजपा विरोधी सबसे आगे रहते हैं.

प्रधानमंत्री ने इन घटनाक्रमों के पीछे ‘विदेशी हाथ’ होने की भी बात की जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी करती थीं. कहीं उनका मतलब ये तो नहीं था कि सरकार के ज्ञात विरोधियों ने ही विदेशों में आलोचना का माहौल बनाया और इस तरह देश को अपमानित किया?


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रिहाना एंड कंपनी को नज़रअंदाज़ करें

मैं प्रधानमंत्री मोदी को रिहाना जैसी गायिकाओं और ग्रेटा थनबर्ग जैसी युवा पर्यावरण कार्यकर्ताओं और उन लोगों को नज़रअंदाज़ करने की सलाह दूंगा, जिनसे शायद, उनकी सरकार के अनुसार, ‘भारत-विरोधी’ तत्वों ने उन मामलों पर टिप्पणी करने के लिए संपर्क किया हो जिनसे न तो उनका वास्ता है और न ही जिनमें उनकी रुचि है. यदि रिहाना के सामने भारत का नक्शा रखा जाए तो वो शायद उसमें पंजाब को ढूंढ भी नहीं पाएं. लेकिन ट्विटर पर उनके एक करोड़ या उससे भी अधिक फॉलोअर्स हैं और शायद उनसे संपर्क करने वालों ने इसी बात का फायदा उठाने की कोशिश की हो.

हमें हैरानी नहीं होनी चाहिए यदि कल को पता चले कि जस्टिस फॉर सिख, न्यूयॉर्क स्थित मेरिकी सिख वकील गुरपतवंत सिंह पन्नून के दिमाग की उपज, जैसे विरोधियों ने बारबाडोस मूल की गायिका को इसमें फंसाया हो. रिहाना के ट्वीट्स पर किसी को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि उनसे जो भी नुकसान होना था वो हो चुका है और जल्द ही उसे भुला भी दिया जाएगा.

अभी तो इस बात का संकल्प लें कि भविष्य में संसदीय प्रथाओं और प्रक्रियाओं को दरकिनार नहीं करेंगे, भले ही तेज़ गति का बदलाव अपने लिए गढ़ी आपकी छवि को मजबूत करता हो. इस तरह की हड़बड़ी का नकारात्मक पक्ष बहुत गंभीर होता है. अपने मन की शांति के लिए भी इससे बचना चाहिए.

रिहाना और अन्य लोगों द्वारा किए गए थोड़े नुकसान का मुकाबला करने के लिए सम्मानित क्रिकेटरों, गायकों, फिल्म सितारों और अन्य प्रसिद्ध लोगों का सहारा लिए जाने से भारत रत्न से सम्मानित दो हस्तियों और अन्य सितारों को शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है. वे इस विवाद में शामिल नहीं होना चाहेंगे, लेकिन साथ ही वे ऐसे मजबूत नेता की ओर से किए गए आग्रह पर ‘ना’ भी नहीं कह सकते. मानो इतना भर ही पर्याप्त नहीं था कि अहम राज्य महाराष्ट्र में भाजपा की पुरानी सहयोगी शिवसेना ने इस बात की जांच कराने का फैसला किया है कि भारत रत्न से सम्मानित दो हस्तियों ने रिहाना का मुकाबला करने के लिए एक जैसे बयान कैसे जारी किए.

मोदी-शाह सरकार ने खुद के लिए सांप छछूंदर वाली स्थिति बना ली है. एक तरफ कुआं है तो दूसरी तरफ खाई. ऐसे में अब सबसे कम अप्रिय विकल्प है तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना तथा राकेश टिकैत और अन्य किसान नेताओं के साथ बैठकर नए कानूनों का मसौदा तैयार करना, जो कि भारत में कृषि क्षेत्र को आधुनिक बनाने के लिए समय की मांग है.

(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं. वह मुंबई पुलिस के आयुक्त तथा गुजरात और पंजाब के पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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