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Sunday, 22 December, 2024
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मोदी-शाह का कमेस्ट्री बनाम गणित का फॉर्मूला असम चुनाव में कितना खरा साबित होगा

केंद्र या असम की भाजपा सरकार ने हरेक व्यक्ति के जीवन को छूने की कोशिश की है, इससे मतदाताओं के साथ ‘केमिस्ट्री’ बनाने का मोदी–शाह का राजनीतिक सिद्धांत निराधार नहीं लगता फिर भी मोदी-शाह को चिंता करनी चाहिए क्योंकि चुनावी गणित सत्ताधारी दल के पक्ष में नहीं दिखता.

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चुनाव गणित का खेल है मगर इसमें ‘केमिस्ट्री’ (रसायनशास्त्र) गणित पर हावी हो जाती है. आधुनिक भारत के निर्विवाद ‘चुनाव गुरु’ नरेंद्र मोदी और अमित शाह की यही टेक रही है. पिछले सात वर्षों से इधर-उधर मिले एक-दो झटकों को छोड़ चुनावों में भाजपा का पलड़ा जिस तरह भारी रहा है उसके चलते यह एक तरह से स्वयंसिद्ध सत्य बन गया है.

मोदी और शाह का कहना यह है कि कुछ सामाजिक या जातीय समूहों और उनके संख्याबल पर विपक्ष की निर्भरता बेमानी है. काम तो करती है भाजपा (यानी मोदी) और मतदाताओं के बीच की ‘केमिस्ट्री’, जो जनहित योजनाओं, व्यक्तिपूजा आदि से बनती है और जातीय समीकरणों से ऊपर होती है. उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी मोर्चे में शामिल मायावती, अखिलेश यादव, और अजित सिंह जैसे विपक्षी नेता इस बात की तस्दीक करेंगे. वैसे, चुनाव रणनीति विशेषज्ञ प्रशांत किशोर जैसे कुछ लोग इससे असहमत होंगे और 2015 के बिहार चुनाव का उदाहरण देंगे, जब नीतीश कुमार, लालू यादव और राहुल गांधी के गठबंधन ने भाजपा का पत्ता साफ कर दिया था.

जो भी हो, अमित शाह आज जबकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के लिए बारूदी सुरंगें बिछाने में व्यस्त हैं, उन्हें असम में अपनी कमजोरियों का जरूर एहसास होगा. सवाल सिर्फ उस राज्य में अपनी सत्ता बचाने का नहीं है, जो लोकसभा में 14 सांसद भेजता है. मोदी-शाह का ‘केमिस्ट्री बनाम गणित’ वाला जो चुनावी सिद्धांत है उसकी कड़ी परीक्षा इस उत्तर-पूर्वी राज्य में होने जा रही है. इस परीक्षा को व्यापक, राष्ट्रीय संदर्भ इस तथ्य से मिलता है कि भाजपा अपने सहयोगियों का जिस तरह इस्तेमाल करके खारिज करती रही है उसके कारण असम में विपक्ष का गणित मजबूत हुआ है.


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विपक्ष का मजबूत गणित

असम में राजनीतिक समीकरण के उलटफेर के कारण बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन में वापस शामिल हो गया है, जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2016 के विधानसभा चुनाव में उसने कांग्रेस से अलग होकर भाजपा से हाथ मिला लिया था. इसकी जगह, बीपीएफ की प्रतिद्वंद्वी यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (यूपीपीएल), जो 2016 में कॉंग्रेस के साथ थी, अब भाजपा के साथ हो गई है. बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले उस गठबंधन के साथ है, जिसमें तीन वाम दल और चार छोटी पार्टियां शामिल हैं.

जैसी कि स्थिति है, एनडीए के सहयोगियों, भाजपा, बीपीएफ, और असम गण परिषद ने मिलकर 41.59 प्रतिशत वोट बटोरे थे, अब कांग्रेस की साथ आ गई बीपीएफ ने तब 3.94 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. 2016 में वोटों के बंटवारे में बीपीएफ के वोटों को अगर एनडीए के वोटों में से घटा दिया जाए तो 2016 में उसका वोट प्रतिशत 38 प्रतिशत रह जाता है. यूपीए के जो आज घटक हैं—कॉंग्रेस, एआइयूडीएफ, बीपीएफ, वाम दल और अन्य—उन्होंने 2016 में 49 फीसदी वोट हासिल किए. इस तरह, दोनों बड़े गठबंधनों के वोटों में 11 प्रतिशत का अंतर भाजपा की नींद जरूर खराब कर रहा होगा.

जनहित योजनाओं के जरिए एनडीए की केमिस्ट्री

भाजपा के नेता कॉंग्रेस पर एआइयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल से हाथ मिलाने के लिए हमले करके मतदाताओं को हिंदू-मुस्लिम आधार पर ध्रुवीकृत करने की कोशिश में जुटे होंगे, मगर लोगों को भाजपा सरकार की जनहित वाली योजनाएं आकर्षित कर रही हैं. असम के कई जिलों में ‘दप्रिंट’ ने लोगों से जो बातचीत की उससे यही उजागर हुआ कि लोग सर्बानंद सोनोवाल की सरकार से संतुष्ट हैं. ‘ओरुणोदोई’ योजना— जिसके तहत हर चुनाव क्षेत्र में 15 से 17 हज़ार के बीच महिलाओं को हर महीने बैंक खाते में सीधे 830 रुपये जमा हो रहे हैं— से लेकर छात्राओं के लिए स्कूटर और साइकिल देने के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों के लिए तमाम तरह की योजनाओं की बहार है. इन सबके ऊपर से केंद्रीय योजनाएं भी हैं.

गुवाहाटी से 130 किमी पूरब नगांव के कशोमाई गांव की बैजंती बोरा को यह नहीं मालूम है कि उन्हें गैस का सिलिंडर सर्बानंद सोनोवाल ने दिया या नरेंद्र मोदी ने, मगर पिछले साल उन्हें शायद प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत एक सिलिंडर मिल गया था. हां, उसमें गैस भराने के लिए उन्हें स्थानीय डीलर को करीब 1000 रुपये जरूर देने पड़े थे. उन्हें पिछले साल अपने बैंक खाते में दो बार 2000 रु. भी मिले थे. उनका मानना है कि यह शायद वृद्धावस्था पेंशन के तहत मिला होगा. हाल में कुछ लोगों ने उनके घर में एक शौचालय भी बनवा दिया. बैजंती को नहीं मालूम कि किस सरकार ने उनके लिए यह सब किया, उन्हें यह भी नहीं मालूम कि किन योजनाओं के तहत ये सारे लाभ उन्हें मिले. वे बस इतना जानती हैं कि यह सरकार (चाहे यह सोनोवाल की हो या मोदी की) ‘कुछ अच्छा काम कर रही है.’

गुवाहाटी से 30 किमी पूरब कामरूप जिले के हहरा गांव के प्रशांत मेढ़ी तो सरकारी योजनाओं से बेहद खुश हैं. उनके इलाके के 98 प्रतिशत खेतों को नयी नहर बन जाने के कारण अब सिंचाई की सुविधा मिल गई है. उनके क्षेत्र के करीब 50 युवकों को ‘स्वयं’ योजना के तहत 30-30 हजार रु. (बाद में 20-20 हजार और) मिले हैं, और किसी ने मशरूम की खेती शुरू की है तो किसी ने बकरी पालन या मुर्गी पालन शुरू कर दिया है. गांववालों को अगले साल नल से पानी मिलने की भी उम्मीद है, क्योंकि “इसके लिए अधिकतर काम पूरा हो गया है.”

असम में राजनीति भले ही ध्रुवीकृत हो गई हो, नीतियों और योजनाओं का ध्रुवीकरण नहीं हुआ है. हहरा से कुछ दूर सोनापुर पाथर गांव की मल्लिका खातून का पूरा परिवार खुश है कि उन सबका नाम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में दर्ज हो गया है. मैंने जब उनसे पूछा कि उन्हें सरकारी योजनाओं का कुछ लाभ मिला है या नहीं तो उनके चेहरा भावशून्य दिखा, लेकिन खास सवालों पर उनका जवाब अलग किस्म का था.

‘क्या आपको लॉकडाउन के दौरान कोई चावल नहीं मिला?’

मल्लिका का जवाब था, ‘हां, छह लोगों के लिए 30 किलो मिला. और तीन बार मिला.’

‘लॉकडाउन में और भी कुछ मिला?’

‘हां, मेरे बैंक खाते में तीन बार 500 रु. आया. और कुछ नहीं.’ (यह पिछले साल मार्च में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की घोषणा के अनुसार कोविड संकट से निबटने के अनुदान के तहत था).
‘आपके घर में जो शौचालय बन रहा है वह ?’

‘कुछ लोग (स्थानीय सरकारी कर्मचारी) बना रहे हैं लेकिन अभी पूरा नहीं बना है.’

इस तरह की कहानियां किसी भी गांव या कस्बे में सुनी जा सकती हैं. हरेक घर को किसी-न-किसी योजना का लाभ मिला है, भले ही लोगों को मालूम न हो कि किस योजना का लाभ मिला या किसने उसे लागू किया. उदाहरण के लिए, आप सोच सकते हैं कि बैजंती को केवल एक सिलिंडर क्यों मिला और उसमें गैस भरवाने के लिए पैसे क्यों देने पड़े. योजनाओं को लागू करने में चूकें हुई होंगी लेकिन केंद्र या राज्य की भाजपा सरकार ने हरेक व्यक्ति के जीवन को छूने की कोशिश की है, और इससे मतदाताओं के साथ अपनी ‘केमिस्ट्री’ बनाने का मोदी–शाह का जो राजनीतिक सिद्धांत है वह निराधार नहीं लगता. इसके अलावा, इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में जो विकास हुआ है वह कोई भी देख सकता है. और यह इस ‘केमिस्ट्री’ को और मजबूत ही करता है.

गिनती में उलझे हैं एनडीए और यूपीए

तो फिर असम को लेकर मोदी-शाह को चिंता क्यों करनी चाहिए? क्योंकि मुझे लगता है कि गणित सत्ताधारी दल के पक्ष में नहीं है. असम के कॉंग्रेस नेताओं का कहना है कि 2016 में कॉंग्रेस और एआइयूडीएफ साथ मिलकर चुनाव लड़े होते तो कम-से-कम 17 सीटों पर उनके कुल वोट एनडीए के वोटों से ज्यादा होते. यानी तब 126 सदस्यों वाली विधानसभा में एनडीए को 69 और यूपीए को 56 सीटें मिली होतीं और मुक़ाबला कांटे का होता. 2016 में 12 सीटें जीतने वाली बीपीएफ आज यूपीए के साथ है.

हालांकि भाजपा ने बोडोलैंड क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए यूपीपीएल को साथ लेकर बीपीएफ से किनारा कर लिया है लेकिन बीपीएफ के हागरमा मोहिलरी का काफी असर है. यूपीपीएल 2016 में कॉंग्रेस से हाथ मिलाकर एक सीट पर चुनाव हार गई थी लेकिन बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था, लेकिन विधानसभा चुनाव में उसकी अभी परीक्षा नहीं हुई है. उधर तीसरा मोर्चा भी सबको उलझन में डाले हुए है. यह मोर्चा सीएए विरोधी दो नए दलों—अखिल गोगोई के रायजोर दल और लुरीनज्योति गोगोई के असम जातीय परिषद—से मिलकर बना है. कॉंग्रेस नेताओं को आशंका है कि ये दोनों मिलकर सीएए विरोधी वोटों में सेंध लागा सकते हैं, जो विपक्षी गठबंधन के पाले में आते. और सत्ता पक्ष भी आशंकित है कि ये दोनों मिलकर असम गण परिषद के वोटों में सेंध लगा सकते हैं.

असम में राजनीतिक जोड़तोड़ ने केमिस्ट्री बनाम गणित के इस खेल में सभी दावेदारों की सांसें अटका रखी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें,यहां व्यक्त विचार निजी है)


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