गूगल मुझे बता रहा है कि नेपोलियन बोनापार्ट इस सवाल को खारिज करने के लिए ज्यादा जीवंत मिसाल दिया करता था कि सिंहासन क्या है? इस सप्ताह मेरा मकसद सीमित है और मैं 1970 की क्लासिक फिल्म ‘वाटरलू’ में नेपोलियन का किरदार निभा रहे रॉड स्टीगर के एक डायलॉग का उपयोग करके ही संतुष्ट हो रहा हूं, जो कुछ इस प्रकार था कि सिंहासन क्या है, बस फर्नीचर का एक महंगा हिस्सा.
वह 19वीं सदी का शुरुआती दौर था, जब सिंहासन की कद्र बची हुई थी. अधिकांश आधुनिक विश्व में तो इसका अस्तित्व भी नहीं है. हाल के दिनों में राष्ट्रवाद ने व्यापक राष्ट्रीयता के रूप में घुसपैठ कर ली है. फिर भी, राष्ट्र-राज्य, सिंहासन, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज आदि के प्रतीक हमारी चेतना से आमतौर पर ओझल हो चुके हैं. वैसे, विलुप्त नहीं हुए हैं. उदाहरण के लिए खिलाड़ी लोग मुकाबलों के दौरान इन्हें बहुत गंभीरता से लेते हैं. दरअसल, आधुनिक राष्ट्र-राज्य ज्यादा मजबूत और सुरक्षित हो गए हैं. इसलिए इन प्रतीकों का महत्व अस्तित्व-केंद्रित कम और स्मृति-केंद्रित ज्यादा हो गया है.
इसलिए हम इस तर्क को अपने घिसेपिटे मगर इस प्रासंगिक सवाल से आगे बढ़ा सकते हैं कि आखिर कोई झंडा क्या है? क्या आज का कोई नेपोलियन यह कह सकता है कि अरे यह तो महज कपड़े का एक टुकड़ा है जिसे बेवजह ज्यादा महत्व दे दिया गया है? शायद नहीं कह सकता. लेकिन उसके सैनिक आज झंडा लहराते हुए वाटरलू के वेलिंगटन से लड़ने नहीं पहुंच गए होते. वक़्त बदलता है, लोग बदलते हैं और प्रतीक भी बदलते हैं. ‘झंडा क्या है?’ जैसे बेमानी सवाल हम इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि भारत में सबसे पुरानी और सबसे रक्तरंजित बगावत नागालैंड समस्या पर लंबे समय से चली आ रही शांति वार्ता जब अंतिम मुकाम पर पहुंच गई है, तब वह ऐसे ही सवाल पर आकर अटक गई है.
भारत सरकार और नागा भी मानते हैं कि उन्होंने एक-दूसरे के साथ बहुत बुरा किया है, कि हिंसा से बात नहीं बनने वाली. नागा पक्ष अभी भी अपने अलग झंडे की मांग कर रहा है, जो राजधानी कोहिमा में राष्ट्रीय तिरंगे के साथ आसमान में लहराए. मोदी सरकार यह मांग मानने को तैयार नहीं है. वार्ता अब उस स्तर पर पहुंच गई है कि सरकार कह रही है कि आप अपने सांस्कृतिक और सामुदायिक अवसरों के लिए अपना झंडा रख सकते हैं. नागाओं का कहना है कि यह तो वैसा ही होगा जैसे कोई एनजीओ अपना झंडा रखता है. बैंकिंग मामलों के दिग्गज केवी कामथ ने वार्ताओं के संदर्भ में एक बहुत ही मौजूं बात कही है. उनका कहना है कि सबसे अच्छी वार्ता वह है जिसमें दोनों पक्ष थोड़े असंतुष्ट होकर वार्ता मेज से उठें. यानी, दोनों पक्ष ऐसा कुछ मान गया हो जिसे वह नहीं मानना चाहता था.
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मुइवा के नागाओं को अपने झंडे की शर्त छोड़ कर समझौता करना अपमानजनक लगता है. उधर मोदी सरकार के लिए भी विकल्प मुश्किल है. अभी, 31 अक्तूबर को ही उसने जम्मू-कश्मीर के झंडे को उतारे जाने का जश्न मनाया है और इसे सरदार पटेल के लिए श्रद्धांजलि के तौर पर पेश किया है क्योंकि यह उनका जन्मदिन भी था. लेकिन, नयी ऊर्जा के साथ उभरे भारतीय राष्ट्रवाद को रेखांकित करते हुए जो चीज़ एक बड़े राज्य से छीन ली गई, वह अब केवल 30 लाख आबादी वाले एक जनजातीय राज्य को कैसे सौंपी जा सकती है?
प्रतीकवाद के मामले में नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के रुखों में भारी अंतर है. वाजपेयी से जब यह पूछा गया था कि भारत सरकार अगर इस बात पर अड़ी है कि वार्ता संविधान के ढांचे के भीतर ही होगी तो कश्मीरी अलगाववादी कैसे इसमें शामिल होंगे, तो वाजपेयी ने निरुत्तर कर देने वाला जवाब दिया था कि हम ‘इंसानियत’ की शर्तों के अंदर बात करेंगे.
मोदी की भाजपा कठोर, अटल और मैं थोड़ी सावधानी बरतते हुए कह सकता हूं कि, ज्यादा कर्कश राष्ट्रवाद की ओर मुड़ गई है. इस तरह का राष्ट्रवाद प्रतीकों के मामले में ‘लचीला’ नहीं हो सकता. इसीलिए किसी राज्य के झंडे को उतारना जश्न का मामला बन जाता है, तो कोई राज्य जब झंडे की मांग करता है तो उसका प्रतिकार किया जाता है जबकि तीसरे राज्य (कर्नाटक) के झंडे को हिचकते हुए बर्दाश्त किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान से संबंधित अपना आदेश वापस ले लिया मगर किसी सिनेमाहॉल ने राष्ट्रगान बजाना बंद करने की हिम्मत नहीं की है. कोई जब इसके लिए हॉल में उठकर खड़ा नहीं होता तो उसे परेशान किया जाता है. मानो नयी पीढ़ी के भारतीयों को एक-दूसरे को यह जताना जरूरी हो गया है कि वे देशभक्त ही नहीं, राष्ट्रवादी भी हैं.
यह भाजपा पूरे भारत के लिए ‘एक विधान, एक निशान, एक प्रधान’ के अपने संस्थापकों के वैचारिक सपने के काफी करीब है. इस हद तक भारत कई कदम पीछे लौटकर खौफजदा साठ वाले दशक की मानसिकता में पहुंच गया है. मेरी तरह आपका बचपन भी अगर उस दशक में बीता है, तो उस दौर में पहुंचते ही आपके लिए आज के भारत की कल्पना करना असंभव हो जाएगा. 1961 (गोवा) से लेकर 1971 (बांग्लादेश) तक हमने चार बड़े युद्ध और कई छोटी लड़ाइयां लड़ीं. क्या हमारी पीढ़ी ने कल्पना की होगी कि 1971 की जंग अगले पांच दशकों के लिए हमारी आखिरी जंग होगी? क्या हम कल्पना कर सकते थे कि इतने समय में भारत सभी बगावतों और अलगाववादी राजनीतिक आंदोलनों को शांत कर देगा?
सम्मानित विद्वान, खासकर अमेरिका के सेलिग हैरिसन उस ‘खतरनाक दशक’ में भारत के टूटने की बातें कर रहे थे. भारत ने उन्हें गलत साबित किया और आज वह हाल की समस्याओं के बावजूद राजनीतिक, रणनीतिक, सैनिक और आर्थिक दृष्टि से अब तक के अपने इतिहास के सबसे सुरक्षित दौर में है. मैं याद दिलाना चाहूंगा कि यह कोई 2014 के बाद नहीं हुआ है. मैं 2003 में लौटता हूं, जब ‘ओपेरेशन पराक्रम’ खत्म हुआ था और भारत ने उस मोड़ पर दबाव की रणनीति का प्रयोग किया था. यानी, एक सुरक्षित भारत का अनुकूल युग आज से 15 साल पहले ही अपने शिखर पर पहुंच चुका था. अब इसकी उलटी दिशा में जाना आसान नहीं है- न तो आंतरिक मामले में और न बाह्य मामले में, बशर्ते हमारी सियासत हमारी सामाजिक समरसता के साथ खिलवाड़ न करे.
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भारत अब इतना ताकतवर और अहम हो गया है कि कोई उसे न दबा सकता है, न उसकी ज़मीन हड़प सकता है. हम भारतीयों को भी सुरक्षा और अर्जित सुकून का यह एहसास होना चाहिए था. लेकिन, इसके विपरीत हम उसी पुरानी असुरक्षा की आशंकाओं में डूब रहे हैं.
इसकी वजह आपको मोदी-शाह की भाजपा की राजनीति में मिल सकती है. इसे इस तरह देखिए. इस सरकार के कुछ आलोचक दूसरों को पीड़ा में देखने का सुख लेते हुए उस पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण कर डाला है. यह एक तथ्य है. लेकिन आज भारत इतना ताकतवर हो चुका है कि वह इस हद तक के अंतरराष्ट्रीयकरण से विचलित न हो. अब तक, 5 अगस्त को किए गए बदलावों के तीन महीने बाद तक तीन जाने-पहचाने देशों के अलावा किसी देश ने भारत से इन बदलावों को रद्द करने को नहीं कहा है. बाकी सब इसे- खामोशी से ही सही भारत का आंतरिक मामला मान रहे हैं.
बेशक, यह हमेशा के लिए नहीं चल सकता. कश्मीर में ज्यादा तेजी से सामान्य स्थिति बहाल होनी चाहिए, इसके राजनीतिक नेताओं और प्रमुख हस्तियों को ज्यादा समय तक कैद नहीं रखा जाना चाहिए और संचार-संवाद पर रोक हटनी चाहिए. वरना अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ेगा और ट्रंप सरीखे मित्र सरकारों के लिए तटस्थ बने रहना मुश्किल हो जाएगा. और सवाल यह भी है कि सामान्य स्थिति बहाल होने के बाद क्या कश्मीर राष्ट्रीय चेतना में उतनी हो मजबूत मौजूदगी बनाए रखेगा? या खुल कर कहें तो, क्या वह तब भी सामूहिक असुरक्षा और इससे उपजे उग्र राष्ट्रवाद को भड़काता रहेगा?
कश्मीर के नये हालात से उपजी चुनौती यह नहीं है कि इसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया है, बल्कि यह है कि इससे पहले यह इतना बड़ा आंतरिक मसला नहीं बना था. कश्मीर में समस्या का मतलब है पाकिस्तान, उग्र इस्लामवाद, पांचवें खंभे, जिहादी आतंकवाद वगैरह से खतरा. यह राष्ट्रीय असुरक्षा का सीधा और अटूट सिलसिला है. आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोजगारी के मद्देनजर इस उग्र राष्ट्रवाद को जारी ही नहीं बल्कि धार देते जाने की जरूरत और बढ़ने ही वाली है. इस तरह की बढ़त लेने के बाद यह कहने का कोई चुनावी फायदा नहीं मिलने वाला कि हम आश्चर्यजनक रूप से मजबूत सुरक्षित स्थिति में हैं. क्योंकि तब आप ‘दूसरे’ का भय दिखाकर अपनी राजनीति कैसे चलाएंगे?
1972 से 2014 के बीच के दशकों में भारतीय राष्ट्रवाद बड़े तनावमुक्त, सुरक्षित और सुकून भरे एहसास के साथ विकास कर रहा था. अब हमें उस दौर से खींचकर एक बार फिर उन्हीं डरों से लड़ने को कहा जा रहा है जिन्हें हमने सोचा था कि 50 साल पहले हम दफना चुके हैं. दिलचस्प बात यह है कि इसी मानसिकता में दो विपरीत खेल खेले जा रहे हैं- जिसमें किसी के झंडे का उतारा जाना राष्ट्रीय उत्सव का मौका बन जाता है और दूसरा जब इसकी मांग करता है तो इसे मानना एक असुविधाजनक मजबूरी माना जाता है.
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