हाथरस का ‘बलात्कार’ कांड ऐसा पहला मामला नहीं है. लेकिन इसको लेकर दिखा आक्रोश निश्चय ही एक लंबे समय बाद नज़र आया है. दलित महिलाओं, उनकी पहचान और उनके आत्मसम्मान को अनादि काल से तार-तार किया जाता रहा है. आज भी, ऊंची जाति के मर्द दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं और उन्हें पेड़ों से लटका देते हैं. भले ही आज हम एक ऐसे प्रधानमंत्री के शासन में हैं जोकि खुद ओबीसी समुदाय से है.
स्वाभाविक तौर पर भारत चाहता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाथरस की घटना पर बात करें – जो एक ऐसा मामला है कि उस पर योगी आदित्यनाथ प्रशासन की निष्ठुरता और घटना की जघन्य प्रकृति ने ऊंची जातियों की कठोर चेतना तक को झकझोर दिया है. लेकिन मजाल है कि सामाजिक मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी की चिर-परिचित चुप्पी टूट जाए, जब तक कि मामला कश्मीर, जीवित या दिवंगत गांधियों, जवाहरलाल नेहरू या तीन तलाक़ की जकड़ से आज़ाद कराई जाने वाली मोदी की मुस्लिम बहनों का नहीं हो.
गत सप्ताह कनाडा के इन्वेस्ट इंडिया कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने गर्व से भारत को एक जीवंत लोकतंत्र बताया जहां राजनीतिक स्थिरता है, कुशल प्रतिभाओं की भरमार है और जिसकी नीतियां निवेश और व्यवसाय के अनुकूल हैं. भारत में अधिक विदेशी निवेश लाने और -23.9 प्रतिशत सिकुड़ चुकी जीडीपी को बढ़ाने के उद्देश्य से मोदी एक चमकदार नए भारत की तस्वीर पेश करना चाहते हैं जहां नए कृषि और श्रम कानूनों तथा नरम कॉरपोरेट कानूनों के साथ ही सबकुछ भला-चंगा है. और मोदी ने भारत की बदसूरत सच्चाइयों को राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने के भीतर छुपा रखा है. लेकिन दुनिया इस बात को जानती है जोकि उत्तरप्रदेश ‘बलात्कार’ कांड की अंतरराष्ट्रीय कवरेज और प्रधानमंत्री पर ‘टाइम’ पत्रिका के संपादकीय से जाहिर है. हाथरस मोदी के लिए एक आइना बन गया है.
किसका पीएम?
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को बाकी बातों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है – ’देश का जोख़िम’ उसकी सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों से भी तय होता है. यूरोपीय जर्नल ऑफ पॉलिटिकल इकोनॉमी में प्रकाशित एक लेख में, शोधकर्ता मथायस ब्यूसे और कार्स्टन हेफ़ेकर ने पाया कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का प्रवाह काफी कुछ आंतरिक संघर्ष, जातीय तनाव, कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार के स्तर, सरकार की लोकतांत्रिक जवाबदेही और नौकरशाही की गुणवत्ता पर निर्भर करता है.
स्पष्टत: प्रधानमंत्री मोदी इस तथ्य से अनजान हैं. जहां हाथरस कांड पर पूरा राष्ट्र आक्रोशित है, प्रधानमंत्री मोदी ने मुंह नहीं खोलने का विकल्प चुना है, ना तो राष्ट्र की महिलाओं को सुरक्षा का भरोसा दिलाने के लिए और ना ही इस कांड की बर्बरता की निंदा के लिए. हम योगी आदित्यनाथ से तो महिलाओं को आश्वस्त करने की उम्मीद नहीं कर सकते, लेकिन पीएम से ज़रूर ये उम्मीद करते हैं.
इस घटना – ऊंची ठाकुर जाति के मर्दों द्वारा कथित रूप से एक दलित महिला के साथ बलात्कार – और उसके बाद की जांच को लेकर जातिवादी वर्चस्व के आरोपों को देखते इस बात पर भी संदेह खड़ा होता है कि सरकार वास्तव में दलित और ओबीसी समुदायों के सामाजिक विकास के बारे में सोचती है भी या नहीं, हालांकि भाजपा एक वोट बैंक के रूप में इनको लुभाने का प्रयास करती रही है. और, हाथरस की घटना कोई अपने तरह की अकेली घटना नहीं है.
ऐसे में विदेशी निवेशकों के समक्ष खुद को महान राष्ट्र बताना अपनी पीठ खुद थपथपाने, और आइने से नज़र फेरने के समान है. यदि प्रधानमंत्री मोदी ने समय रहते इस बात को स्वीकार नहीं किया कि भाजपा के हिंदुत्व एजेंडे ने फिर से सवर्ण स्वाभिमान की खतरनाक आग को सुलगाने का काम किया है, खासकर उत्तरप्रदेश में जहां मुख्यमंत्री एक भगवाधारी ठाकुर है, तो अंतत: जातीय बम भाजपा को अपनी चपेट में लेते हुए फटेगा. दलितों के गुस्से को पहले से ही महसूस किया जा रहा है क्योंकि चंद्रशेखर जैसे दलित नेता गांधी के समान शांति की गुहार लगाने के बजाय बोस की तरह गर्जना करने का विकल्प चुन रहे हैं.
समानता, शर्तों के साथ
एयरफोर्स वन की नकल वाले प्रधानमंत्री के विमान, दिल्ली की सेंट्रल विस्टा परियोजना और प्रतिमाओं पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करने में आर्थिक और राजनीतिक रूप से सक्षम सरकार के बलात्कार के खिलाफ तथा पुलिस व्यवस्था से संबंधित बेहतर एवं अधिक संवेदनशील कानून नहीं बनाने या दलितों के उत्थान के लिए काम नहीं करने पर किसी को भी हैरानी हो सकती है. वास्तव में, जब भाजपा बलपूर्वक संसद से अनुच्छेद 370 को निरस्त कराने या हाल में ही कृषि कानूनों को पारित कराने का काम करा सकती है, तो फिर दलितों और महिलाओं के लिए बेहतर कानून बनाने में क्या अड़चन है?
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जाहिर है, इसका जवाब थोड़ा जटिल है. भारत में, खुद समानता का विचार भी एक डिस्क्लेमर के साथ आता है. आप स्वयं को समान तभी कह सकते हैं, जब राष्ट्रवाद, नैतिकता और देशभक्ति के स्वयंभू झंडाबरदारों – आमतौर पर चीखते टीवी एंकर और भाजपा के मंत्री – ने इसका सर्टिफिकेट दिया हो. संवेदनाहीन समाचार चैनलों ने हाथरस कांड के आरोपियों के उस दावे को भी सनसनीखेज बनाकर दिखाने से गुरेज नहीं किया जिसमें पीड़िता के परिजनों पर उसकी हत्या का आरोप लगाया गया था, क्योंकि वे आपस में ‘दोस्त’ थे. एक मृत महिला के चरित्र पर लांछन लगाने से किसी ने परहेज नहीं किया. ऊंची जाति के पुलिसकर्मियों को, जो अब ‘बलात्कार’ नहीं होने का दावा कर रहे हैं, पीड़िता का ज़बरन अंतिम संस्कार करने दिया गया. ठाकुर बहुल गांव में पीड़ित परिवार को घेराबंदी में रखने और उनको डराए-धमकाए जाने की अनुमति दी गई. ये सब इसलिए होने दिया गया क्योंकि पीड़िता दलित थी.
भारत में समानता एक मिथक है, और हाथरस कांड इसका सबूत है. पीएम मोदी भले ही मार्केटिंग में माहिर हों, लेकिन इंसानी ज़मीर की भी कोई हैसियत होती है. दुनिया सब देख रही है.
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(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)