scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होममत-विमतइजरायल-यूएई समझौते से भारत के पीओके प्लान को बल मिल सकता है, मोदी को बस संतुलनकारी नीति जारी रखनी है

इजरायल-यूएई समझौते से भारत के पीओके प्लान को बल मिल सकता है, मोदी को बस संतुलनकारी नीति जारी रखनी है

इस्लामी सहयोग संगठन द्वारा कश्मीर मुद्दे पर विशेष बैठक की अनुमति देने से इनकार से भारत के रुख को व्यापक मान्यता मिलने का संकेत मिलता है.

Text Size:

यहूदी इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के बीच हुए ‘अब्राहम समझौते’, जिसे ईसाई अमेरिका ने कराया है, से विभाजित मध्य पूर्व क्षेत्र में किसी बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती, जब तक कि तीनों अब्राहमिक धर्मों के अनुयायियों का सचमुच में हृदय परिवर्तन नहीं होता हो. यह अनिश्चितता न केवल भारत को साझा व्यापार मंचों में भागीदारी का अवसर प्रदान करती है, बल्कि मध्य पूर्व में उभरते सुरक्षा समीकरण के दायरे और पैमाने को भी व्यापक बनाती है, जिसका पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) संबंधी किसी भी कार्ययोजना के संदर्भ में दूरगामी और सकारात्मक महत्व हो सकता है.

लेकिन यूएई-इजरायल समझौता संपन्न होने के तुरंत बाद ही फ़लस्तीनी मुद्दे पर विवादों में घिर गया है. यूएई समझौते के एक प्रावधान की व्याख्या पश्चिमी तट के इज़रायली नियंत्रण वाले इलाकों पर कब्जे की योजना के ‘तत्काल अंत’ के रूप में करता है. लेकिन इज़रायली अधिकारी ‘निलंबन’ शब्द पर अटक गए हैं और उनकी दलील है कि अभी इस बारे में फ़लस्तीनियों से बातचीत जारी रहेगी.

इसलिए स्वाभाविक है कि भारत को समझौते का व्यापक अध्ययन करने इसकी परिस्थितियों संबंधी विवरणों पर विचार करने तथा विशेषकर कोविड-19 बाद की उभरती विश्व व्यवस्था में भारतीय एवं क्षेत्रीय संदर्भ में इसके प्रभावों पर गहन चिंतन करने की ज़रूरत होगी. आर्थिक मंदी, तेल की गिरती मांग और कोरोनोवायरस महामारी के कारण बढ़ती बेरोजगारी जैसी समस्याओं के मद्देनजर फ़लस्तीनियों का मुद्दा पृष्ठभूमि में चला गया है.

इसके अलावा, उभर रहा यह गैर-अरब गठबंधन अरब जगत से अमेरिका की वापसी की भी अपेक्षा करेगा. लेकिन अरब एकजुटता अभी अतीत की बात नहीं बनी है और यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि अमेरिका ने मध्य पूर्व से मुंह मोड़ लिया है.

कोविड-19 बाद की विश्व व्यवस्था के वर्तमान के मुकाबले बहुत अलग होने की संभावना है. भारत को एक नई और उभरती भू-राजनीतिक व्यवस्था में एक बेहतर और अधिक सक्रिय भूमिका के लिए खुद को तैयार करना चाहिए.

अभी तक सबकुछ अनुकूल रहा है

ये अच्छी बात है कि जब ट्रंप प्रशासन अपने दूतावास को तेल अवीव से येरुशलम स्थानांतरित कर रहा था, तो अमेरिका और इज़रायल के साथ अपने रणनीतिक जुड़ाव और अरब जगत के साथ आर्थिक एवं ऊर्जा सुरक्षा संबंधी समझौतों के बीच संतुलन बिठाने के लिए भारत ने अपनी ‘तटस्थ मुद्रा’ को बनाए रखा.

इस बीच चीन ने इजरायल-फलस्तीन संघर्ष के संदर्भ में ‘चार बिंदुओं’ पर आधारित अपनी नीति को औपचारिक रूप दे दिया है, जिसका राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जुलाई 2017 में अपने एक भाषण में उल्लेख किया था. चीनी नीति की राष्ट्रीय हितों पर यथार्थवादी दृष्टिकोण रखते हुए संतुलन बनाकर चलने की भारत की नीति से काफी समानता है. यहां ये उल्लेखनीय है कि इजरायल को मान्यता देने के मामले में पाकिस्तान ने अपने अरब आका की राह अपनाने से इनकार कर दिया है.

क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना का ज़िक्र करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने यूएई की ओर इशारा करते हुए, कहा कि ‘कोई अन्य देश जो भी करता हो, हम इजरायल को तब तक स्वीकार नहीं करेंगे जब तक कि फ़लस्तीनियों को उनके अधिकार नहीं मिल जाते.’ इस बार में उनकी दलील पर गौर करना महत्वपूर्ण है कि (यदि पाकिस्तान ने फ़लस्तीनियों के उत्पीड़न को नजरअंदाज करते हुए इज़रायल को स्वीकार किया), ‘तो हमें कश्मीर को भी छोड़ना पड़ेगा’.

यदि इस संदर्भ में देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक सारे सही कदम उठाए हैं.


यह भी पढ़ें : अनुच्छेद 370 बहाल करने की कुछ कश्मीरी पंडितों की मांग अतार्किक, ऐतिहासिक समर्थन का अभाव

मोदी 2017 में, सभी वर्जनाओं को तोड़ते हुए, इज़रायल जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने थे. इज़रायली रक्षा मंत्रालय के अंतरराष्ट्रीय रक्षा सहयोग संबंधी बेहद प्रभावशाली विभाग ‘सिबात’ के मुख्य सहयोगी देशों में शामिल भारत का इज़राइल के साथ रक्षा व्यापार 20 बिलियन डॉलर के स्तर पर पहुंचने की संभावना है. मोदी की संतुलन की नीति का सबसे अच्छा असर तब दिखा जब अरब जगत ने भारत में अपार अवसरों के मद्देनज़र व्यापार और निवेश की संभावनाओं पर काम करने की अपनी तत्परता का संकेत दिया. इससे भी महत्वपूर्ण, इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) द्वारा कश्मीर मुद्दे पर विशेष बैठक की अनुमति देने से इनकार से भारत के रुख को व्यापक मान्यता मिलने का संकेत मिलता है.

लेकिन भारत को सतर्क रहना होगा

अब्राहम समझौते का एक महत्वपूर्ण घटक है क्षेत्रीय खतरों के खिलाफ इज़रायल और यूएई के बीच अधिक सुरक्षा सहयोग. कहने की ज़रूरत नहीं कि ईरान समझौते में शामिल तीनों पक्षों का साझा दुश्मन है. ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में वेनेज़ुएला जा रहे तीन ईरानी तेल टैंकर जहाजों को जब्त कर लिया था. अमेरिका ने दोनों ही देशों पर सख्त प्रतिबंध लगा रखे हैं.

अमेरिकी प्रतिबंध और सख्ती से उसके कार्यान्वयन के प्रभाव, मध्य पूर्व और बाकी जगहों में नए साझेदारों के बढ़ते वर्चस्व, तथा चीन-ईरान और ईरान-तुर्की-मलेशिया के नए उभरते गठबंधनों के मद्देनज़र भारत को नए सिरे से अपनी नीतियां तैयार करनी पड़ेगी.

चीन ग्वादर और हिंद महासागर क्षेत्र से गहराई से जुड़ा हुआ हैं. दूसरी ओर ईरान चाबहार बंदरगाह में भारत की भूमिका पर गंभीरता से पुनर्विचार कर रहा है. ऐसे समय जब अरब जगत का एक भाग फ़लस्तीनी मुद्दे से खुद को अलग करता और इज़रायल के साथ पींगें बढ़ाता दिख रहा है, अबू धाबी से अपना राजदूत वापस बुलान की धमकी दे चुका तुर्की खिलाफत-2 को पुनर्स्थापित करने के अपने सपने को साकार करने के लिए पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देशों के साथ एक नया गैर-अरब इस्लामी गठबंधन बनाने के लिए सक्रिय है. इस गैर-अरब इस्लामी गठबंधन के वास्तविक धरातल पर उतरने पर, यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन किस ओर झुकता है, तथा भारत और पूरे क्षेत्र के लिए इसके क्या निहितार्थ निकलते हैं.

कोविड-19 महामारी द्वारा लाई गई आर्थिक तबाही शायद एक वास्तविक चुनौती साबित हो रही है तथा नए और अब तक अनपेक्षित माने जाने वाले गठबंधनों को जन्म दे रही है, जिनका भारत पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा.


यह भी पढ़ें : अयोध्या के बाद काशी और मथुरा का समाधान आसान होगा, पर पीओके भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है


(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य हैं और पूर्व में आर्गनाइज़र का संपादक रहे हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. Agar apne dum pe modi kuch ni kar sakta then don’t blind trust from USA or UAE.

    Chari tu aachar kha or Soo ja

Comments are closed.